
संस्कारधानी जबलपुर, ८ सितंबर २००९, बुधवार. सनातन सलिल नर्मदा तीर पर स्थित महर्षि जाबाली, महर्षि महेश योगी और महर्षि रजनीश की तपस्थली संस्कारधानी जबलपुर में आज सूर्य नहीं उगा, चारों ओर घनघोर घटायें छाई हैं. आसमान से बरस रही जलधाराएँ थमने का नाम ही नहीं ले रहीं. जबलपुर ही नहीं पूरे मध्य प्रदेश में वर्षा की कमी के कारण अकाल की सम्भावना को देखते हुए लगातार ४८ घंटों से हो रही इस जलवृष्टि को हर आम और खास वरदान की तरह ले रहा है. यहाँ तक की २४ घंटों से अपने उड़नखटोले से उपचुनाव की सभाओं को संबोधित करने के लिए आसमान खुलने की राह देखते रहे और अंततः सड़क मार्ग से राज्य राजधानी जाने के लिए विवश मुख्यमंत्री और राष्ट्र राजधानी जाने के लिए रेल मार्ग से जाने के लिए विवश वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री भी इस वर्षा के लिए भगवन का आभार मान रहे हैं किन्तु कम ही लोगों को ज्ञात है कि भगवान ने देना-पावना बराबर कर लिया है. समकालिक साहित्य में सनातन मूल्यों की श्रेष्ठ प्रतिनिधि डॉ. चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' को अपने धाम ले जाकर प्रभुने इस क्षेत्र को भौगोलिक अकाल से मुक्त कर उसने साहित्यिक बौद्धिक अकाल से ग्रस्त कर दिया है.
ग्राम होरीपूरा, तहसील बाह, जिला आगरा उत्तर प्रदेश में २० सितम्बर १९३९ को जन्मी चित्राजी ने विधि और साहित्य के क्षेत्र में ख्यातिलब्ध पिता न्यायमूर्ति ब्रिजकिशोर चतुर्वेदी बार-एट-ला, से सनातन मूल्यों के प्रति प्रेम और साहित्यिक सृजन की विरासत पाकर उसे सतत तराशा-संवारा और अपने जीवन का पर्याय बनाया. उद्भट विधि-शास्त्री, निर्भीक न्यायाधीश, निष्पक्ष इतिहासकार, स्वतंत्र विचारक, श्रेष्ठ साहित्यिक समीक्षक, लेखक तथा व्यंगकार पिता की विरासत को आत्मसात कर चित्रा जी ने अपने सृजन संसार को समृद्ध किया.

ग्वालियर, इंदौर तथा जबलपुर में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त चित्रा जी ने इलाहांबाद विश्व विद्यालय से १९६२ में राजनीति शास्त्र में एम्.ए. तथा १९६७ में डी. फिल. उपाधियाँ प्राप्तकर शासकीय स्वशासी महाकौशल कला-वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष के रूप में कर्मठता और निपुणता के अभिनव मानदंड स्थापित किये.
चित्राजी का सृजन संसार विविधता, श्रेष्ठता तथा सनातनता से समृद्ध है.
द्रौपदी के जीवन चरित्र पर आधारित उनका बहु प्रशंसित उपन्यास 'महाभारती' १९८९ में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा प्रेमचंद्र पुरस्कार तथा १९९९३ में म.प्र. साहित्य परिषद् द्वारा विश्वनाथ सिंह पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
ययाति-पुत्री माधवी पर आधारित उपन्यास 'तनया' ने उन्हें यशस्वी किया. लोकप्रिय मराठी साप्ताहिक लोकप्रभा में इसे धारावाहिक रूप में निरंतर प्रकाशित किया गया.
श्री कृष्ण के जीवन एवं दर्शन पर आधारित वृहद् उपन्यास 'वैजयंती' (२ खंड) पर उन्हें १९९९ में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा पुनः प्रेमचंद पुरस्कार से अलंकृत किया गया.
उनकी महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियों में प्रथा पर्व (महाकाव्य), अम्बा नहीं मैं भीष्म (खंडकाव्य), तथा वैदेही के राम खंडकाव्य) महत्वपूर्ण है.
स्वभाव से गुरु गम्भीर चित्रा जी के व्यक्तित्व का सामान्यतः अपरिचित पक्ष उनके व्यंग संग्रह अटपटे बैन में उद्घाटित तथा प्रशंसित हुआ.
उनका अंतिम उपन्यास 'न्यायाधीश' शीघ्र प्रकाश्य है किन्तु समय का न्यायाधीश उन्हें अपने साथ ले जा चुका है.
उनके खंडकाव्य 'वैदेही के राम' पर कालजयी साहित्यकार डॉ. विद्यानिवास मिश्र का मत- ''डॉ चित्रा चतुर्वेदी ने जीवन का एक ही संकल्प लिया है कि श्री राम और श्री कृष्ण की गाथा को अपनी सलोनी भाषा में अनेक विधाओं में रचती रहेंगी. प्रस्तुत रचना वैदेही के राम उसी की एक कड़ी है. सीता की करूँ गाथा वाल्मीकि से लेकर अनेक संस्कृत कवियों (कालिदास, भवभूति) और अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओँ के कवियों ने बड़ी मार्मिकता के साथ उकेरी है. जैस अकी चित्रा जी ने अपनी भूमिका में कहा है, राम की व्यथा वाल्मीकि ने संकेत में तो दी, भवभूति ने अधिक विस्तार में दी पर आधुनिक कवियों ने उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया, बहुत कम ने सोचा कि सीता के निर्वासन से अधिक राम का ही निर्वासन है, अपनी निजता से. सीता-निर्वासन के बाद से राम केवल राजा रह जाते हैं, राम नहीं रह जाते. यह उन्हें निरंतर सालता है. लोग यह भी नहीं सोचते कि सीता के साथ अन्याय करना, सीता को युगों-युगों तक निष्पाप प्रमाणित करना था.''
चित्रा जी के शब्दों में- ''आज का आलोचक मन पूछता है कि राम ने स्वयं सिंहासन क्यों नहीं त्याग दिया बजे सीता को त्यागने के? वे स्वयं सिंहासन प् र्बैठे राज-भोग क्यों करते रहे?इस मत के पीछे कुछ अपरिपक्वता और कुछ श्रेष्ठ राजनैतिक परम्पराओं एवं संवैधानिक अभिसमयों का अज्ञान भी है. रजा या शासक का पद और उससे जुड़े दायित्वों को न केवल प्राचीन भारत बल्कि आधुनिक इंग्लॅण्ड व अन्य देशों में भी दैवीय और महान माना गया है. रजा के प्रजा के प्रति पवित्र दायित्व हैं जिनसे वह मुकर नहीं सकता. अयोग्य राजा को समाज के हित में हटाया जा सकता था किन्तु स्वेच्छा से रजा पद-त्याग नहीं कर सकता था....कोइ भी पद अधिकारों के लिया नहीं कर्तव्यों के लिए होता है....''
चित्रा जी के मौलिक और तथ्यपरक चिंतन कि झलक उक्त अंश से मिलती है.
'महाभारती में चित्रा जी ने प्रौढ़ दृष्टि और सारगर्भित भाषा बंध से आम पाठकों ही नहीं दिग्गज लेखकों से भी सराहना पाई. मांसलतावाद के जनक डॉ . रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के अनुसार- ''पारंपरिक मान्यताओं का पालन करते हुए भी लेखिका ने द्रौपदी कि आलोकमयी छवि को जिस समग्रता से उभरा है वह औपन्यासिकता की कसौटी पर निर्दोष उतरता है. डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के मत में- ''द्रौपदी के रूप में उत्सर्ग्शीला नारी के वर्चस्व को अत्यंत उदात्त रूप में उभरने का यह लाघव प्रयत्न सराहनीय है.''
श्री नरेश मेहता को ''काफी समय से हिंदी में ऐसी और इतनी तुष्टि देनेवाली रचना नजर नहीं आयी.'' उनको तो ''पढ़ते समय ऐसा लगता रहा कि द्रौपदी को पढ़ा जरूर था पर शायद देखना आज हुआ है.''
आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के अनुसार- ''द्रौपदी को महाभारती कहना अपने आप में एक विशिष्ट उपलब्धि है.''
स्वयं चित्रा जी के अनुसार- ''यह कहानी न्याय पाने हेतु भटकती हुई गुहार की कहानी है. आज भी न्याय हेतु वह गुहार रह-रहकर कानों में गूँज रही है. नारी की पीडा शाश्वत है. नारी की व्यथा अनंत है. आज भी कितनी ही निर्दोष कन्यायें उत्पीडन सह रही हैं अथवा न सह पाने की स्थिति में आत्मघात कर रही हैं.
द्रुपदनन्दिनी भी टूट सकती थी, झंझाओं में दबकर कुचली जा सकती थी. महाभारत व रामायण काल में कितनी ही कन्याओं ने अपनी इच्छाओं का गला घोंट दिया. कितनी ही कन्याओं ने धर्म के नाम पर अपमान व कष्ट का हलाहल पान कर लिया. क्या हुआ था अंबा और अंबालिका के साथ? किस विवशता में आत्मघात किया था अंबा ने? क्या बीती थी ययाति की पुत्री माधवी पर? अनजाने में अंधत्व को ब्याह दी जाने वाली गांधारी ने क्यों सदा के लिए आँखें बंद कर ली थीं? और क्यों भूमि में समां गयीं जनकनन्दिनी अपमान से तिलमिलाकर? द्रौपदी भी इसी प्रकार निराश हो टूट सकती थी.
किन्तु अद्भुत था द्रुपदसुता का आत्मबल. जितना उस पर अत्याचार हुआ, उतनी ही वह भभक-भभककर ज्वाला बनती गयी. जितनी बार उसे कुचला गया, उतनी ही बार वह क्रुद्ध सर्पिणी सी फुफकार-फुफकार उठी. वह याज्ञसेनी थी. यज्ञकुंड से जन्म हुआ था उसका. अन्याय के प्रतिकार हेतु सहस्त्रों जिव्हाओंवाली अक्षत ज्वाला सी वह अंत तक लपलपाती रही.
नीलकंठ महादेव ने हलाहल पान किया किन्तु उसे सावधानी से कंठ में ही रख लिया था. कंठ विष के प्रभाव से नीला हो गया और वे स्वयं नीलकंठ किन्तु आजीवन अन्याय, अपमान तथा पीडा का हलाहल पी-पीकर ही दृपद्न्न्दिनी का वर्ण जैसे कृष्णवर्ण हो गया था. वह कृष्ण हो चली, किन्तु झुकी नहीं....''
चित्रा जी का वैशिष्ट्य पात्र की मनःस्थिति के अनुकूल शब्दावली, घटनाओं की विश्वसनीयता बनाये रखते हुए सम-सामयिक विश्लेषण, तार्किक-बौद्धिक मन को स्वीकार्य तर्क व मीमांसा, मौलिक चिंतन तथा युगबोध का समन्वय कर पाना है.
वे अत्यंत सरल स्वभाव की मृदुभाषी, संकोची, सहज, शालीन तथा गरिमामयी महिला थीं. सदा श्वेत वस्त्रों से सज्जित उनका आभामय मुखमंडल अंजन व्यक्ति के मन में भी उनके प्रति श्रृद्धा की भाव तरंग उत्पन्न कर देता था. फलतः, उनके कोमल चरणों में प्रणाम करने के लिए मन बाध्य हो जाता था.
मुझे उनका निष्कपट सान्निध्य मिला यह मेरा सौभाग्य है. मेरी धर्मपत्नी डॉ. साधना वर्मा और चित्रा जी क्रमशः अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में एक ही महाविद्यालय में पदस्थ थीं. चित्रा जी साधना से भागिनिवत संबंध मानकर मुझे सम्मान देती रहीं. जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं ईंट-पत्थर जुडवाने के साथ शब्द-सिपाही भी हूँ तो उनकी स्नेह-सलिला मुझे आप्लावित करने लगी. एक-दो बार की भेंट में संकोच के समाप्त होते ही चित्रा जी का साहित्यकार विविध विषयों खासकर लेखनाधीन कृतियों के कथानकों और पात्रों की पृष्ठभूमि और विकास के बारे में मुझसे गहन चर्चा करने लगा. जब उन्हें किसी से मेरी ''दोहा गाथा'' लेख माला की जानकारी मिली तो उनहोंने बिना किसी संकोच के उसकी पाण्डुलिपि चाही. वे स्वयं विदुषी तथा मुझसे बहुत अधिक जानकारी रखती थीं किन्तु मुझे प्रोत्साहित करने, कोई त्रुटि हो रही हो तो उसे सुधारने तथा प्रशंसाकर आगे बढ़ने के लिए आशीषित करने के लिए उन्होंने बार-बार माँगकर मेरी रचनाएँ और लंबे-लंबे आलेख बहुधा पढ़े.
'दिव्या नर्मदा' पत्रिका प्रकाशन की योजना बताते ही वे संरक्षक बन गयीं. उनके अध्ययन कक्ष में सिरहाने-पैताने हर ओर श्रीकृष्ण के विग्रह थे. एक बार मेरे मुँह से निकल गया- ''आप और बुआ जी (महीयसी महादेवी जी) में बहुत समानता है, वे भी गौरवर्णा आप भी, वे भी श्वेतवसना आप भी, वे भी मिष्टभाषिणी आप भी, उनके भी सिरहाने श्री कृष्ण, आपके भी.'' वे संकुचाते हुए तत्क्षण बोलीं 'वे महीयसी थीं, मैं तो उनके चरणों की धूल भी नहीं हूँ.'

चित्रा जी को मैं हमेशा दीदी का संबोधन देता पर वे 'सलिल जी' ही कहती थीं. प्रारंभ में उनके साहित्यिक अवदान से अपरिचित मैं उन्हें नमन करता रहा और वे सहज भाव से सम्मान देती रहीं. उनके सृजन पक्ष का परिचय पाकर मैं उनके चरण स्पर्श करता तो कहतीं 'क्यों पाप में डालते हैं, साधना मेरी कभी बहन है.' मैं कहता- 'कलम के नाते तो कहा आप मेरी अग्रजा हैं इसलिए चरणस्पर्श मेरा अधिकार है.' वे मेरा मन और मान दोनों रख लेतीं. बुआ जी और दीदी में एक और समानता मैंने देखी वह यह कि दोनों ही बहुत स्नेह से खिलातीं थीं, दोनों के हाथ से जो भी खाने को मिले उसमें अमृत की तरह स्वाद होता था...इतनी तृप्ति मिलती कि शब्द बता नहीं सकते. कभी भूखा गया तो स्वल्प खाकर भी पेट भरने की अनुभूति हुई, कभी भरे पेट भी बहुत सा खाना पड़ा तो पता ही नहीं चला कहाँ गया. कभी एक तश्तरी नाश्ता कई को तृप्त कर देता तो कभी कई तश्तरियाँ एक के उदार में समां जातीं. शायद उनमें अन्नपूर्णा का अंश था जो उनके हाथ से मिली हर सामग्री प्रसाद की तरह लगती.
वे बहुत कृपण थीं अपनी रचनाएँ सुनाने में. सामान्यतः साहित्यकार खासकर कवि सुनने में कम सुनाने में अधिक रूचि रखते हैं किन्तु दीदी सर्वथा विपरीत थीं. वे सुनतीं अधिक, सुनातीं बहुत कम.
अपने पिताश्री तथा अग्रज के बारे में वे बहुधा बहुत उत्साह से चर्चा करतीं. अपनी मातुश्री से लोकजीवन, लोक साहित्य तथा लोक परम्पराओं की समझ तथा लगाव दीदी ने पाया था.
वे भाषिक शुद्धता, ऐतिहासिक प्रमाणिकता तथा सम-सामयिक युगबोध के प्रति सजग थीं. उनकी रचनाओं का बौद्धिक पक्ष प्रबल होना स्वाभाविक है कि वे प्राध्यापक थीं किन्तु उनमें भाव पक्ष भी सामान रूप से प्रबल है. वे पात्रों का चित्रण मात्र नहीं करती थीं अपितु पात्रों में रम जाती थीं, पात्रों को जीती थीं. इसलिए उनकी हर कृति जादुई सम्मोहन से पाठक को बाँध लेती है.
उनके असमय बिदाई हिंदी साहित्य की अपूरणीय क्षति है. शारदापुत्री का शारदालोक प्रस्थान हिंदी जगत को स्तब्ध कर गया. कौन जानता था कि ८ सितंबर को न उगनेवाला सूरज हिंदी साहित्य जगत के आलोक के अस्त होने को इंगित कर रहा है. कौन जानता था कि नील गगन से लगातार हो रही जलवृष्टि साहित्यप्रेमियों के नयनों से होनेवाली अश्रु वर्षा का संकेत है. होनी तो हो गयी पर मन में अब भी कसक है कि काश यह न होती...
चित्रा दीदी हैं और हमेशा रहेंगी... अपने पात्रों में, अपनी कृतियों में...नहीं है तो उनकी काया और वाणी... उनकी स्मृति का पाथेय सृजन अभियान को प्रेरणा देता रहेगा. उनकी पुण्य स्मृति को अशेष-अनंत प्रणाम.
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12 टिप्पणियाँ
SHRADDHANJALI
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
आचार्य जी नें बहुत गहनता से याद किया है, कार्तिका जी को विनम्र श्रद्धांजलि
जवाब देंहटाएंबेहद दुखद हमारी भी श्रद्धांजलि...
जवाब देंहटाएंसाहित्य जगत को अपूरणीय क्षति। मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
जवाब देंहटाएंसादर नमन।
जवाब देंहटाएंश्रद्धांजलि।
जवाब देंहटाएंमेरी श्रद्धांजलि।
जवाब देंहटाएंडॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' को सलिल जी नें भाव भीनी श्रद्धांजली दी है। साहित्य जगत को यह बडी क्षती है।
जवाब देंहटाएंकार्तिका जी को
जवाब देंहटाएंहमारी भी विनम्र श्रद्धांजलि....
श्र्द्धांजली
जवाब देंहटाएंविनम्र श्रद्धांजलि
जवाब देंहटाएंvarmaji ne chitra ji ke vyaktitv ko sabake saamne rakh kar ek badaa kam kiya. chitra ji ko varma ji k lekh ke karan mai itani gaharai se jaan payaa. is badi lekhika ko meri bhi shrddhaanjali...
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