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विजय का पर्व दशहरा [आलेख] - कृष्ण कुमार यादव


रचनाकार परिचय:-
कृष्ण कुमार यादव का जन्म 10 अगस्त 1977 को तहबरपुर, आजमगढ़ (उ0 प्र0) में हुआ। आपनें इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नात्कोत्तर किया है। आपकी रचनायें देश की अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं साथ ही अनेकों काव्य संकलनों में आपकी रचनाओं का प्रकाशन हुआ है। आपकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं: अभिलाषा (काव्य संग्रह), अभिव्यक्तियों के बहाने (निबन्ध संग्रह), इण्डिया पोस्ट-150 ग्लोरियस इयर्स (अंग्रेजी), अनुभूतियाँ और विमर्श (निबन्ध संग्रह), क्रान्ति यज्ञ:1857-1947 की गाथा।
आपको अनेकों सम्मान प्राप्त हैं जिनमें सोहनलाल द्विवेदी सम्मान, कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, महाकवि शेक्सपियर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान, काव्य गौरव, राष्ट्रभाषा आचार्य, साहित्य-मनीषी सम्मान, साहित्यगौरव, काव्य मर्मज्ञ, अभिव्यक्ति सम्मान, साहित्य सेवा सम्मान, साहित्य श्री, साहित्य विद्यावाचस्पति, देवभूमि साहित्य रत्न, सृजनदीप सम्मान, ब्रज गौरव, सरस्वती पुत्र और भारती-रत्न से आप अलंकृत हैं। वर्तमान में आप भारतीय डाक सेवा में वरिष्ठ डाक अधीक्षक के पद पर कानपुर में कार्यरत हैं।
दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन ’दश’ व ’हरा’ से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं– क्रमश: शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूश्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री रूप में माँ दुर्गा की लगातार नौ दिन तक पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और माँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण के पुतले का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती है।

भारतीय संस्कृति में कोई भी उत्सव व्यक्तिगत नहीं वरन् सामाजिक होता है। यही कारण है कि उत्सवों को मनोरंजनपूर्ण व शिक्षाप्रद बनाने हेतु एवं सामाजिक सहयोग कायम करने हेतु इनके साथ संगीत, नृत्य, नाटक व अन्य लीलाओं का भी मंचन किया जाता है। यहाँ तक कि भरतमुनि ने भी नाट्यशास्त्र में लिखा है कि– “देवता चंदन, फूल, अक्षत, इत्यादि से उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना कि संगीत नृत्य और नाटक से होते हैं।“ सर्वप्रथम राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम के जीवन व शिक्षाओं को जन–जन तक पहुँचाने के निमित्त बनारस में हर साल रामलीला खेलने की परिपाटी आरम्भ की। एक लम्बे समय तक बनारस के रामनगर की रामलीला जग–प्रसिद्ध रही, कालांतर में उत्तर भारत के अन्य शहरों में भी इसका प्रचलन तेजी से बढ़ा और आज तो रामलीला के बिना दशहरा ही अधूरा माना जाता है। यहाँ तक कि विदेशों मे बसे भारतीयों ने भी वहाँ पर रामलीला अभिनय को प्रोत्साहन दिया और कालांतर में वहाँ के स्थानीय देवताओं से भगवान राम का साम्यकरण करके इंडोनेशिया, कम्बोडिया, लाओस इत्यादि देशों में भी रामलीला का भव्य मंचन होने लगा, जो कि संस्कृति की तारतम्यता को दर्शाता है।

भारत विविधताओं का देश है, अत: उत्सवों और त्यौहारों को मनाने में भी इस विविधता के दर्शन होते हैं। हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा काफी लोकप्रिय है। एक हफ्ते तक चलने वाले इस पर्व पर आसपास के बने पहाड़ी मंदिरों से भगवान रघुनाथ जी की मूर्तियाँ एक जुलूस के रूप में लाकर कुल्लू के मैदान में रखी जाती हैं और श्रद्धालु नृत्य–संगीत के द्वारा अपना उल्लास प्रकट करते हैं। मैसूर (कर्नाटक) का दशहरा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित है। वाड्यार राजाओं के काल में आरंभ इस दशहरे को अभी भी शाही अंदाज में मनाया जाता है और लगातार दस दिन तक चलने वाले इस उत्सव में राजाओं का स्वर्ण –सिंहासन प्रदर्शित किया जाता है। सुसज्जित तेरह हाथियों का शाही काफिला इस दशहरे की शान है। आंध्र प्रदेश के तिरूपति (बालाजी मंदिर) में शारदीय नवरात्र को ब्रह्मोत्सवम् के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन नौ दिनों के दौरान सात पर्वतों के राजा पृथक–पृथक बारह वाहनों की सवारी करते हैं तथा हर दिन एक नया अवतार लेते हैं। इस दृश्य के मंचन और साथ ही चक्रस्नान (भगवान के सुदर्शन चक्र की पुष्करणी में डुबकी) के साथ आंध्र में दशहरा सम्पन्न होता है। केरल में दशहरे की धूम दुर्गा अष्टमी से ’पूजा वैपू’ के साथ आरंभ होती है। इसमें कमरे के मध्य में सरस्वती माँ की प्रतिमा सुसज्जित कर आसपास पवित्र पुस्तकें रखी जाती हैं और कमरे को अस्त्रों से सजाया जाता है। उत्सव का अंत विजयदशमी के दिन ’पूजा इदप्पु’ के साथ होता है। महाराज स्वाथिथिरूनाल द्वारा आरंभ शास्त्रीय संगीत गायन की परंपरा यहाँ आज भी जीवित है। तमिलनाडु में मुरगन मंदिर में होने वाली नवरात्र की गतिविधयाँ प्रसिद्ध हैं। गुजरात में दशहरा के दौरान गरबा व डांडिया–रास की धूम रहती है। मिट्टी के घडे़ में दीयों की रोशनी से प्रज्वलित ’गरबो’ के इर्द–गिर्द गरबा करती महिलायें इस नृत्य के माध्यम से देवी का ध्यान करती हैं। गरबा के बाद डांडिया–रास का खेल खेला जाता है। ऐसी मान्यता है कि माँ दुर्गा व राक्षस महिषासुर के मध्य हुए युद्ध में माँ ने डांडिया की डंडियों के जरिए महिषासुर का सामना किया था। डांडिया–रास के माध्यम से इस युद्ध को प्रतीकात्मक रूप मे दर्शाया जाता है।

दशहरे की बात हो और बंगाल की दुर्गा–पूजा की चर्चा न हो तो अधूरा ही लगता है। वस्तुत: दुर्गापूजा के बिना एक बंगाली के लिए जीवन की कल्पना भी व्यर्थ है। मान्यताओं के अनुसार नौवीं सदी में बंगाल में जन्मे बालक व दीपक नामक स्मृतिकारों ने शक्ति उपासना की इस परिपाटी की शुरूआत की। तत्पश्चात दशप्रहारधारिणी के रूप में शक्ति उपासना के शास्त्रीय पृष्ठाधार को रघुनंदन भट्टाचार्य नामक विद्वान ने संपुष्ट किया। बंगाल में प्रथम सार्वजनिक दुर्गा पूजा कुल्लक भट्ट नामक धर्मगुरू के निर्देशन में ताहिरपुर के एक जमींदार नारायण ने की पर यह समारोह पूर्णतया पारिवारिक था। बंगाल के पाल और सेनवंशियों ने दूर्गा–पूजा को काफी बढ़ावा दिया। प्लासी के युद्ध (1757) में विजय के पश्चात लार्ड क्लाइव ने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु अपने हिमायती राजा नवकृष्णदेव की सलाह पर कलकत्ते के शोभा बाजार की विशाल पुरातन बाड़ी में भव्य स्तर पर दुर्गा–पूजा की। इसमें कृष्णानगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों द्वारा निर्मित भव्य मूर्तियाँ बनावाई गईं एवं वर्मा और श्रीलंका से नृत्यांगनाएं बुलवाई गईं। लार्ड क्लाइव ने हाथी पर बैठकर इस समारोह का आनंद लिया। राजा नवकृष्णदेव द्वारा की गई दुर्गा–पूजा की भव्यता से लोग काफी प्रभावित हुए व अन्य राजाओं, सामंतों व जमींदारों ने भी इसी शैली में पूजा आरम्भ की। सन् 1790 में प्रथम बार राजाओं, सामंतो व जमींदारों से परे सामान्य जन रूप में बारह ब्राह्मणों ने नदिया जनपद के गुप्ती पाढ़ा नामक स्थान पर सामूहिक रूप से दुर्गा–पूजा का आयोजन किया, तब से यह धीरे–धीरे सामान्य जनजीवन में भी लोकप्रिय होता गया। बंगाल के साथ–साथ बनारस की दुर्गा पूजा भी जग प्रसिद्ध है। इसका उद्भव प्लासी के युद्ध (1757) पश्चात बंगाल छोड़कर बनारस में बसे पुलिस अधिकारी गोविंदराम मित्र (डी०एस० पी०) के पौत्र आनंद मोहन ने 1773 में बनारस के बंगाल ड्यौड़ी में किया। प्रारम्भ में यह पूजा पारिवारिक थी पर बाद मे इसने जन–समान्य में व्यापक स्थान पा लिया।

दशहरे के दिन भारत में कुछ क्षेत्रों में शमी वृक्ष की पूजा का भी प्रचलन है। ऐसी मान्यता है कि अर्जुन ने अज्ञातवास के दौरान राजा विराट की गायों को कौरवों से छुड़ाने हेतु शमी वृक्ष की कोटर में छिपाकर रखे अपने गाण्डीव–धनुष को फिर से धारण किया। इस अवसर पर पाण्डवों ने गाण्डीव–धनुष की रक्षा हेतु शमी वृक्ष की पूजा कर कृतज्ञता व्यक्त की। तभी से दशहरे के दिन शस्त्र पूजा के साथ ही शमी वृक्ष की भी पूजा होने लगी। पौराणिक कथाओं में भी शमी वृक्ष के महत्व का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार राजा रघु के पास जब एक साधु दान लेने आया तो राजा को अपना खजाना खाली मिला। इससे क्रोधित हो राजा रघु ने इन्द्र पर चढ़ाई की तैयारी कर दी। इन्द्र ने रघु के डर से अपने बचाव हेतु शमी वृक्ष के पत्तों को सोने का कर दिया। तभी से यह परम्परा आरम्भ हुयी कि क्षत्रिय इस दिन शमी वृक्ष पर तीर चलाते हैं एवं उससे गिरे पत्तों को अपनी पगड़ी में धारण करते हैं। आज भी विजयदशमी पर महाराष्ट्र और राजस्थान में शस्त्र पूजा बड़े उल्लास से की जाती है। इसे महाराष्ट्र में ‘सीलांगण’ अर्थात सीमा का उल्लघंन और राजस्थान में ’अहेरिया’ अर्थात शिकार करना कहा जाता है। राजा विक्रमादित्य ने दशहरे के दिन ही देवी हरसिद्धि की आराधना की थी तो छत्रपति शिवाजी को इसी दिन मराठों की कुलदेवी तुलजा भवानी ने औरगंजेब के शासन को खत्म करने हेतु रत्नजडि़त मूठ वाली तलवार ’भवानी’ दी थी, ऐसी मान्यता रही है। तभी से मराठा किसी भी आक्रमण की शुरूआत दशहरे से ही करते थे और इसी दिन एक विशेष दरबार लगाकर बहादुर मराठा योद्धाओं को जागीर एवं पदवी प्रदान की जाती थी। ‘सीलांगण’ प्रथा का पालन करते हुए मराठे सर्वप्रथम नगर के पास स्थित छावनी में शमी वृक्ष की पूजा करते व तत्पश्चात पूर्व निर्धारित खेत में जाकर पेशवा मक्का तोड़ते एवं उसके बाद सभी उपस्थित लोग मिलकर उस खेत को लूट लेते थे। राजस्थान के राजपूत भी ’अहेरिया’ की परम्परा में सर्वप्रथम शमी वृक्ष व शस्त्रों की पूजा करते व तत्पश्चात देवी दुर्गा की मूर्ति को पालकी में रख दूसरे राज्य की सीमा में प्रवेश कर प्रतीकात्मक युद्ध करते। इतिहास इस परंपरा में ’अहेरिया’ के चलते दो युद्धों का गवाह भी बना– प्रथमत: 1434 में बूंदी व चितौड़गढ़ के बीच इस परम्परा ने वास्तविक युद्ध का रूप धारण कर लिया व इसमें राणा कुम्भा की मौत हो गई। द्वितीयत:, महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने राजगद्दी पर आसीन होने के बाद पहली विजयदशमी पर उत्ताला दुर्ग में ठहरे मुगल फौजियों का असली अहेरिया (वास्तविक शिकार ) करने का संकल्प लिया। इस युद्ध में कई राजपूत सरदार हताहत हुए। आज भी सेना के जवानों द्वारा शस्त्र–पूजा की परम्परा कायम है।

दशहरे की परम्परा भगवान राम द्वारा त्रेतायुग में रावण के वध से भले ही आरम्भ हुई हो, पर द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध भी इसी दिन आरम्भ हुआ था। विजयदशमी सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी वरन् यह बुराई में भी अच्छाई ढूँढने का दिन होता है। स्वयं रावण–वध के बाद भगवान राम ने अनुज लक्ष्मण को रावण के पास शिक्षा लेने के लिए भेजा था। रावण भगवान शिव का भक्त होने के साथ–साथ महापराक्रमी भी था। इसी तथ्य के मद्देनजर आज भी कानपुर के शिवाला स्थित कैलाश मंदिर में विजयदशमी के दिन दशानन रावण की महाआरती की जाती है। सन् 1865 में श्रृंगेरी के शंकराचार्य की मौजूदगी में महाराज गुरू प्रसाद द्वारा स्थापित इस मंदिर में शिव के साथ उनके प्रमुख भक्तों की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। कालांतर में सन् 1900 में महाराज शिवशंकर लाल ने कैलाश मंदिर परिसर में शिव भक्त रावण का मंदिर बनवाया और देवी के तेइस रूपों की मूर्ति भी स्थापित की। तभी से रावण की महाआरती की परम्परा यहाँ पर कायम है। कानपुर से सटे उन्नाव जिले के मौरावां कस्बे में भी राजा चन्दन लाल द्वारा सन् 1804 में स्थापित रावण की मूर्ति की पूजा की जाती है। यहाँ दशहरे के दिन रामलीला मैदान में 7–8 फुट ऊँचे सिंहासन पर बैठे रावण की विशालकाय पत्थर की मूर्ति की लोग पूजा करते हैं, जबकि एक अन्य पुतला बनाकर रावण दहन करते हैं। इसी प्रकार मध्य प्रदेश के मंदसौर में नामदेव वैश्य समाज के लोगों के अनुसार रावण की पत्नी मंदोदरी मंदसौर की थी। अत: रावण को जमाई मानकर उसकी खतिरदारी यहाँ पर भव्य रूप में की जाती है। यहाँ पर रावण के समक्ष मनौती मानने और पूरी होने के बाद रावण की वंदना करने व भोग लगाने की परंपरा रही है। हाल ही में यहाँ रावण की पैतीस फुट ऊँची बैठी हुई अवस्था में कंक्रीट मूर्ति स्थापित की गई है। इसी प्रकार जोधपुर के लोगों के अनुसार रावण की पत्नी मंदोदरी यहाँ की पूर्व राजधानी मंडोर की रहने वाली थीं व रावण व मंदोदरी के विवाह स्थल पर आज भी रावण की चवरी नामक एक छतरी मौजूद है। हाल ही में अक्षय ज्योतिश अनुसंधान केन्द्र ने जोधपुर के चांदपोल क्षेत्र में स्थित महादेव अमरनाथ एवं नवग्रह मंदिर परिसर में रावण का मंदिर बनाने की घोषणा की है। इसमें रावण की मूर्ति शिवलिंग पर जल चढ़ाते हुए बनायी जा रही है, जिससे रावण की शिवभक्ति प्रकट होगी और उसका सम्मानीय स्वरूप सामने आयेगा। मध्य प्रदेश के विदिषा जिले में स्थित रावणगाँव में रावण को महात्मा या बाबा के रूप में पूजा जाता है। यहाँ रावण बाबा की करीब आठ फीट लंबी पाषाण प्रतिमा लेटी हुयी मुद्रा में है और प्रतिवर्ष दशहरे पर इसका विधिवत श्रृंगार करके अक्षत, रोली, हल्दी व फूलों से पूजा करने की परंपरा है। चूंकि रावण की जान उसकी नाभि में बसती थी, अत: यहाँ पर रावण की नाभि पर तेल लगाने की परंपरा है अन्यथा पूजा अधूरी मानी जाती है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ग्रेटर नोएडा के मध्य स्थित बिसरख गाँव को रावण का पैतृक गाँव माना जाता है। बताते हैं कि रावण के पिता विश्रवामुनि इस गाँव के जंगल में शिव भक्ति करते थे एवं रावण सहित उनके तीनों बेटे यहीं पर पैदा हुए। विजय दशमी के दिन जब चारो तरफ रावण का पुतला फूँका जाता है, तो बिसरख गाँव के लोग उस दिन शोक मनाते हैं। इस गाँव में दशहरा का त्यौहार नहीं मनाया जाता है। गाँववासियों को मलाल है कि रावण को पापी रूप में प्रचारित किया जाता है जबकि वह बहुत तेजस्वी, बुद्विमान, शिवभक्त, प्रकाण्ड पण्डित एवं क्षत्रिय गुणों से युक्त था।

भारत त्यौहारों का देश है और हर त्यौहार कुछ न कुछ संदेश देता है– बन्धुत्व भावना, सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक तारतम्य, सभ्यताओं की खोज एवं अपने अतीत से जुडे़ रहने का सुखद अहसास। त्यौहार का मतलब ही होता है सारे गिले–शिकवे भूलकर एक नए सिरे से दिन का आगाज। त्यौहारों को मनाने के तरीके अलग हो सकते हैं पर उद्देश्य अंतत: मेल–जोल एवं बंधुत्व की भावना को बढ़ाना ही है। त्यौहार सामाजिक सदाशयता के परिचायक हैं न कि हैसियत दर्शाने के। त्यौहार हमें जीवन के राग–द्वेष से ऊपर उठाकर एक आदर्श समाज की स्थापना में मदद करते हैं। समाज के हर वर्ग के लोगों को एक साथ मेल–जोल और भाईचारे के साथ बिठाने हेतु ही त्यौहारों का आरम्भ हुआ। यह एक अलग तथ्य है कि हर त्यौहार के पीछे कुछ न कुछ धार्मिक मान्यताएं, मिथक, परम्पराएं और ऐतिहासिक घटनाएं होती हैं पर अंतत: इनका उद्देश्य मानव–कल्याण ही होता है।

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18 टिप्पणियाँ

  1. उम्दा विस्तृत आलेख...विजयादशमी की शुभकामनाएँ.

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  2. विजयादशमी पर विस्तृत और बेहतरीन आलेख

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  3. प्रसंशनीय आलेख। दशहरा मंगलमय हो।

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  4. विजयादशमी की शुभकामनाएँ.

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  5. प्रसंशनीय आलेख...

    विजयादशमी की शुभकामनाएँ...

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  6. सभी को विजयादशमी की मंगल कामनाएं |


    अवनीश तिवारी

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  7. ऐसी मान्यता है कि माँ दुर्गा व राक्षस महिषासुर के मध्य हुए युद्ध में माँ ने डांडिया की डंडियों के जरिए महिषासुर का सामना किया था। डांडिया-रास के माध्यम से इस युद्ध को प्रतीकात्मक रूप मे दर्शाया जाता है।...........फ़िलहाल मेरे लिए नई जानकारी पर दिलचस्प.

    दशहरा पर विस्तृत व सारगर्भित आलेख. विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  8. विजयदशमी की शुभकामनायें. जीवन के हर मोड़ पर आप विजयी हों और अन्याय की पराजय हो. आज के दिन उत्तम प्रस्तुति.

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  9. विजयदशमी की शुभकामनायें. जीवन के हर मोड़ पर आप विजयी हों और अन्याय की पराजय हो. आज के दिन उत्तम प्रस्तुति.

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  10. ...एक बार पुन: साहित्याशिल्पी पर के.के. जी का शोधपूर्ण आलेख. रावण की पूजा वाला पैराग्राफ नया व दिलचस्प लगा. दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  11. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  12. दशहरा पर बेहतरीन प्रस्तुति.शारदीय नवरात्र....फिर दशहरा...फिर दीपावली...एक लम्बी परंपरा...यही हमारी समृद्ध संस्कृति है...आइये इसका भरपूर लुत्फ़ उठायें....उत्सवी परंपरा की ढेरों शुभकामनायें !!

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  13. दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन ’दश’ व ’हरा’ से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है।.......अब खुला दशहरा शब्द का राज. कृष्ण कुमार जी ने दशहरा के विविध आयामों को समेटकर युवा पीढी का भी ज्ञानवर्धन किया है....बधाइयाँ !!

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  14. विजयादशमी की शुभकामनाएँ.

    बहुत अच्छा आलेख, बधाई।

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  15. विजय दशमी के पर्व पर यादव जी के इस शोधपूर्ण लेख के लिये आभार

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  16. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 11/10/2016 को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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