
भीतर का असुर जग जाता है,
कामना से पोषित, लोभ में प्रेरित,
सतत बलिष्ठ होते जाता है।
होता आरम्भ तब,
चरित्र - हीनता का तांडव,
जीतते क्रोध के कौरव,
हारते संस्कार के पांडव।
मन पर अनियंत्रण,
कामेच्छा का प्रवाह,
विवेक का पतन,
वही, दुर्विचार - दुर्भाव |
राग - द्वेष का प्रहार,
चरित्र का क्षणिक हार,
कामनायों के मेघ सघन,
होते मर्यादाओं के उल्लंघन।
जब मद में वह हुंकारता,
अहम अहम अहम,
भीतर योगी - मुनि विलापता,
शिवोहम शिवोहम शिवोहम।
11 टिप्पणियाँ
बहुत सुन्दर रचना है अवनीश जी\ पुरातन से सशक्त बिम्ब ले कर आप आये हैं।
जवाब देंहटाएंजब मद में वह हुंकारता,
जवाब देंहटाएंअहम अहम अहम,
भीतर योगी - मुनि विलापता,
शिवोहम शिवोहम शिवोहम।
दर्शन और आध्यात्म भी यही है।
बहुत अच्छी रचना, बधाई।
जवाब देंहटाएंमन की स्थिति और संघर्ष को कविता खूबी से प्रस्तुत करती है।
जवाब देंहटाएंजब मद में वह हुंकारता,
जवाब देंहटाएंअहम अहम अहम,
भीतर योगी - मुनि विलापता,
शिवोहम शिवोहम शिवोहम।
वाह ! वाह ! वाह ! क्या बात कही आपने........
मोह और विवेक के चिरंतन संघर्ष में आत्मा के विषाद की आपकी यह व्याख्या मन मुग्ध कर गयी......
बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर रचना....
शब्द शब्द परिपक्व है।
जवाब देंहटाएंachhi rachna hai
जवाब देंहटाएंअच्छे शब्द व भाव प्रवाह मेँ लिखी गयी कविता है।
जवाब देंहटाएंआत्म विश्लेषक विचार
जवाब देंहटाएंनियमित संतुलित आहार
मन की नाव सधि हो पतवार
मनाओ दशहरा त्योंहार्
शिव है तो विष है, शिव है तो तांडव है, शिव है तो क्रोध है, शिव है तो शांत है, दूसरों का दु:ख हरने वाले शिव की महिमा को आपने बखूबी उभारा है, बधाई ।
जवाब देंहटाएंडा.रमा द्विवेदी
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण एवं अर्थपूर्ण कविता के लिए बधाई एवं शुभकामनाएँ....
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.