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प्रेमचंद का मर्मस्पर्शी कृषक-चिंतन [आज पुण्यतिथि पर विशेष प्रस्तुति] - पुनीता ठाकुर

जन चेतना के जागरणकर्ता तथा मानवीय मूल्यों के वाहक के रूप में महान् साहित्यसर्जक प्रेमचंद भारतीय समाज के सबसे सफल चितेरे रहे हैं। उनका जीवन और साहित्य जनवादी रहा है। उन्होंने अपनी कलम सामाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं को ध्यान में रखकर चलायी। वे कालजयी रचनाकार हैं एवं उनकी कृतियाँ तथा उनका चिंतन भारतीय धरती की उपज है। उन्होंने अपनी अधिकतर रचनाओं में गाँवों और किसानों की पीड़ा एवं उसके संघर्षों का सजीव मर्मांतक चित्रण किया है। भारत आज भी कृषि प्रधान देश है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति कृषि प्रधान रही है। हमारे यहाँ किसानों को अन्नदाता के रूप में स्वीकार किया गया है। यह हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है लेकिन हजार वर्षों की गुलामी में अत्याचारी शासकों ने अपनी शोषक नीतियों से इसे जर्जर बना दिया। अंग्रेजों ने तो किसानों की स्थिति को और दयनीय, बदतर और अकर्मण्यता की दशा में भी पहुंचा दिया। जिसका परिणाम हुआ कि भारतीय किसान कर्ज में जन्म लेते, कर्ज में जीते और कर्ज में ही मर जाते।

चूंकि रचनाकार राष्ट्र चेतना और जनचेतना से जुड़ा होता है। अत: राष्ट्र की समस्या उसकी अपनी समस्या बन जाती है। मुंशी प्रेमचंद ने भी इसी कारण परतंत्र भारत के किसानों की पीड़ा और विवशता को बड़ी शिद्दत से महसूस किया। उन्होंने अपनी सशक्त कथाओं एवं उसके दृढ़ चरित्र रूपी नायकों के द्वारा सामाजिक क्रांति को पोषित कर समाज को नवस्वरूप प्रदान करने की प्रेरणा दी और इसी प्रेरणा के माध्यम से राष्ट्र-निर्माण की आधार शिला को बल मिला। मुंशी प्रेमचंद युगीन किसानों की स्थिति को परिपूर्णता में जानने के लिए उनकी कहानी ‘पूस की रात’ ही पर्याप्त है। इस कहानी में कथाकार ने भारतीय ग्रामीण जीवन की अर्थ-व्यवस्था और मजदूर-किसानों की पीड़ाजनक दीनता का सवाक् चित्रण किया है। कथा-पात्र ‘हल्कू’ भारतीय किसानों के डूबती-उतराती आशा-आकांक्षाओं का प्रतीक बन जाता है। कथासम्राट ने इस कहानी में एक नारी पात्र ‘मुन्नी’ के माध्यम से किसान परिवार के क्षोभ और परवशता का जो चित्रण किया है वह द्रष्टव्य है :-

‘न जाने कितना बाकी है, जो किसी तरह चुकने ही नहीं आती। मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर कर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जन्म हुआ है’’।

इस तरह से प्रेमचंद के साहित्य में अनेकत्र तत्कालीन अर्थव्यवस्था से क्रमश: क्षीण होते हुए भारतीय किसान के अनिश्चित भविष्य का संकेत मिलता है।

प्रेमचंद जी की अन्य रचनाओं में भी जैसे ‘प्रेमाश्रम’ जहाँ में भारतीय किसान की निर्धनता और विवशता का दर्दनाक चित्रण हुआ है वहीं ‘गोदान’ किसान के मजदूर बन जाने की विवशता की कथा है। ‘कर्मभूमि’ में भी जमींदार -किसान संबंध पर बड़ी प्रमुखता से प्रकाश डाला गया है। प्रकारांतर से कथासम्राट ने इन सभी कथा-प्रसंगों के माध्यम से यह दिखाना चाहा है कि किस तरह जमींदारों का शोषण किसानों को पनपने ही नहीं देता। होरी-धनिया की कथा उन समस्त किसान परिवारों की कथा है जो शोषकों के अत्याचार को सहन करते हुए विविध सामाजिक व्यवस्थाओं का पालन करने के लिए विवश होते हैं। साथ ही उनके पारिवारिक सीमाओं से उलझते हुए राजनैतिक परिस्थितियों से उत्पन्न यंत्रणाओं को भोगते हैं।

‘होरी’ का जीवन भारतीय किसान का संपूर्ण चित्र उपस्थित करता है। ‘होरी’ के जीवन की विडंबना यह जाहिर करती है कि किसान जीवन की प्रत्येेक कठोरता को स्वीकार करते हैं और एक प्रकार की निर्वशता की स्थिति में वह सब कुछ सहन करते हैं, जो उन्हें दुर्भाग्य के रूप में मिलता है।

इस तरह प्रेमचंद कालीन भारतीय किसानों की स्थिति पतनोन्मुख थी। नगरों की पूंजीवादी और शोषणपरक व्यवस्था ने गाँवों की शान्ति और संतोषमय व्यवस्था को अपने मिथ्याडंबर और प्रलोभन से उन्मूलित कर दिया। सामंतवाद ने कृषकों के उत्साह को उसके मन के गुफा में ही दफन कर दिया। मुंशी जी ने एक और सच उद्घाटित किया है कि जमींदार चूंकि स्वयं पूंजीवादी और शासकीय शोषण के शिकार थे अत: वे इसकी कसर अपनी जमींदारी में रहने वाले कृषक वर्ग से पूरी करते थे। जमींदारी व्यवस्था के पतन की जो यह गति थी, उसको देखकर ही प्रेमचंद ने उसके उन्मूलन की भविष्यवाणी कर दी थी। अत: जमींदारों, साहूकारों एवं सरकारों के शोषण तले दबे किसानों की दशा का चित्रण प्रेमचंद की कलमों से ‘युग की आवाज‘ बनकर उभरी है।

कथासम्राट प्रेमचंद ने किसानों की शोचनीय स्थिति के साथ-साथ उन्हें लोक-संस्कृति एवं रीति-रिवाज के पोषक और वाहक के रूप में भी उपस्थित किया है। उनका पशु प्रेम एवं प्रकृति के प्रति अनुराग समाज की स्वस्थ संपूर्णता को द्योतित करती है।

समग्रत: प्रेमचंद का कृषक-चिंतन हमें यह संकेत देता है कि एक किसान समूची प्रकृति से अभिन्न भाव से जुड़ता है। वह पृथ्वी की उर्वरता को जगाने का कारण बनता है। अत: ऐसे कर्मशील साधु के प्रति बरती जानेवाली उपेक्षा के भाव का शमन होना ही चाहिए।
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लेखिका परिचय:

नाम : पुनीता ठाकुर

जन्म तिथि : 01.01.1984

जन्म स्थान : मुजफ्फरपुर ;बिहार

शैक्षकि योग्यता: एम.ए. - हिंदी, हिंदी के काव्यशास्त्रीय पक्ष पर
पीएच.डी. उपाधि हेतु शोधरत।

संप्रति : “इग्नू” की स्नातक स्तरीय कक्षाओं में हिंदी विषय
का अध्यापन।

प्रकाशन: 2003 से विभिन्न राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं
में शोध-आलेख एवं पुस्तक समीक्षाए प्रकाशित।

“अनासक्ति दर्शन” (गांधी स्मृति एवम् दर्शन समिति, राजघाट, नई दिल्ली से प्रकाशित) नामक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय जर्नल में नियमित लेखन।
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10 टिप्पणियाँ

  1. शीर्षक ही कह देता है कि प्रेमचंद का कृषक चिंतन मर्मस्पर्शी था। आज के लेखक कभी उस उँचाई को छू सकेंगे संदेह ही है।

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  2. प्रेमचंद का कृषक-चिंतन हमें यह संकेत देता है कि एक किसान समूची प्रकृति से अभिन्न भाव से जुड़ता है। वह पृथ्वी की उर्वरता को जगाने का कारण बनता है। अत: ऐसे कर्मशील साधु के प्रति बरती जानेवाली उपेक्षा के भाव का शमन होना ही चाहिए। विश्लेषण सार्थक है।

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  3. ये हिन्दी का दुर्भाग्य है कि प्रेमचंद को हम दिल से याद भी नहीं करते। आज वो सारे माध्यम चुप हैं जिन्हे हम लोकतंत्र का स्तंभ कहते हैं। अभी किसी सिने सितारे का मरण दिन होता तो उसके लटके झटके अखबारों में छपे भी होते और टीवी पर दिन भर ब्रेकिंग न्यूज भी बने होते। प्रेमचंद आम आदमी के लेखक थे यह उनकी गलती थी शायद।

    धन्यवाद पुनीता जी आपने उन्हे आज याद कर के उम्मीद जगायी कि कहीं न कहीं हमारे महान लेखक याद को किये जाते हैं।

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  4. उम्दा आलेख .... प्रेम चंद कालजयी लेखक हैं ... उन की रचनायें आज भी उतना ही महत्व रखती हैं ... गोदान का होरी आज भी गाँव में बेगारी कर रहा है और गोबर्धन आज भी शहर की गलियों में मारा मारा फिरता है ...

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  5. punita ji

    namaskar

    aapne premchand par ye lekh likhkar bahut hi acchi sewa ki hai hindi ki .. premchand jaise kathakaar , ab kabhi is duniya me paida nahi honge.. do din pahle hi main unki ek kahani " bade bhaisaheb" apne baccho ko suna raha tha ..

    itne acche aalekh ke liye meri badhai sweekar karen..

    regards

    vijay
    www.poemsofvijay.blogspot.com

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  6. Puneeta ji
    Munshi prem chand ji ke baare me jo bhi aapne hamare beech share kiya uske liye bahut bahut shukriya...mujhe unka likha bahut pasand hai...aur unke upanyaso se hi jaan payi hu ki azadi se pehle hamare desh me kisano ki kya halat thi.
    thanks again to share it.

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  7. ऐसे कर्मशील साधु के प्रति बरती जानेवाली उपेक्षा के भाव ही उनकी अंतिम यात्रा का घोडा था जिस पेट की पीडा का सजीव चित्रण वे अपनी लेखनी से करते रहे थे वही पेटदर्द दवा के अभाव में मृत्यु दूत बना आज के कवि बन्धु दर्द को सुन कर कापी करते है ओर वो दर्द को खुद जीते थे उनकी आह मे भी आज की चिता जितनी आग होती थी आज के साहित्य को केवल टिप्पणी की भूख है अच्छी है अच्छी है से जीवित है शायद प्रेमचंद की आत्मा और अधिक दुखी होती हो?

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