
दीपावली आज केवल हिन्दुओं का ही त्योहार ही नहीं है बल्कि सभी वर्गों और सम्प्रदायों के द्वारा मनाया जाने वाला एक राष्ट्रीय त्योहार है। राष्ट्रीय एकता के प्रतीक यह त्योहार लोगों में आपसी सौहार्द बनाये रखने में सहयोग करता है। पाँच दिनों तक मनाए जाने वाले इस त्योहार के पीछे अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। दीपों का यह पर्व खुशियों का प्रतीक है। भगवान श्रीरामचंद्र जी 14 वर्ष के बनवास के दौरान अनेक राक्षसों और रावण जैसे शूरवीरों को मारकर जब अयोध्या लौटे तो न केवल अयोध्या में बल्कि पूरे ब्रह्मांड में दीप जलाकर खुशियां मनायी गयी थी और उनका स्वागत किया गया था। तब से दीप जलाकर इस पर्व को मनाने की परंपरा प्रचलित हुई।
रचनाकार परिचय:-भारतेन्दु कालीन साहित्यकार श्री गोविंद साव के छठवी पीढी के वंशज के रूप में १८ अगस्त, १९५८ को सांस्कृतिक तीर्थ शिवरीनारायण में जन्मे अश्विनी केशरवानी वर्तमान में शासकीय महाविद्यालय, चांपा (छत्तीसगढ़) में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं।
वे देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में तीन दशक से निबंध, रिपोर्ताज, संस्मरण एवं समीक्षा आदि लिख रहे हैं एवं आकाशवाणी के रायपुर एवं लासपुर केन्द्रों से उनकी अन्यान्य वार्ताओं का प्रसारण भी हुआ है। वे कई पत्रिकाओं के संपादन से भी सम्बद्ध हैं।
अब तक उनकी "पीथमपुर के कालेश्वरनाथ" तथा "शिवरीनारायण: देवालय एवं परम्पराएं" नामक पुस्तकें प्रकाशित हैं और कुछ अन्य शीघ्र प्रकाश्य हैं।
बुंदेलखंडी लोकगीतों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि रामायण काल में दीवाली जेठ मास में मनायी जाती थी जिसे द्वापर युग में श्रीकृष्ण जी के जन्म के बाद कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष में मनायी जाने लगी :-
दीपावली की तैयारी एक महीने पूर्व से शुरू हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे इसका ही हमें इंतजार था। दीपों के इस पर्व के साथ घरों और दुकानों की साफ सफाई और रंग रोगन भी हो जाता है। साफ सफाई से जहाँ साल भर से जमते आ रहे कचरा और गंदगी की सफाई हो जाती है और ख्याल से उतरे कुछ जरूरी सामान और कागजात की छंटाई सफाई हो जाती है। व्यापारी वर्ग के लिए तो यह नये वर्ष की शुरूआत होती है। पुराने हिसाब किताब बराबर करना और नये खाता बही की शुरूआत जैसे लक्ष्मी आगमन का प्रतीक है। रंग रोगन से जहां मकानों और दुकानों की शोभा बढ़ जाती है, वहीं टूटे फूटे मकानों, दीवारों और सामानों की मरम्मत आदि हो जाती है। मान्यता भी यही है कि साफ सुथरे जगहों में लक्ष्मी जी का वास होता है और संभवत: लोगों का यह प्रयास लक्ष्मी जी को बहलाने फुसलाने का माध्यम भी होता है। इससे एक ओर तो धन्ना सेठों के घर चमकने लगते हैं वहीं दाने दाने को मोहताज लोग एक दीप भी नहीं जला पाते....तभी तो कवि श्री सरयूप्रसाद त्रिपाठी ‘मधुकर‘ कहते हैं :-
वे देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में तीन दशक से निबंध, रिपोर्ताज, संस्मरण एवं समीक्षा आदि लिख रहे हैं एवं आकाशवाणी के रायपुर एवं लासपुर केन्द्रों से उनकी अन्यान्य वार्ताओं का प्रसारण भी हुआ है। वे कई पत्रिकाओं के संपादन से भी सम्बद्ध हैं।
अब तक उनकी "पीथमपुर के कालेश्वरनाथ" तथा "शिवरीनारायण: देवालय एवं परम्पराएं" नामक पुस्तकें प्रकाशित हैं और कुछ अन्य शीघ्र प्रकाश्य हैं।
बुंदेलखंडी लोकगीतों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि रामायण काल में दीवाली जेठ मास में मनायी जाती थी जिसे द्वापर युग में श्रीकृष्ण जी के जन्म के बाद कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष में मनायी जाने लगी :-
जेठ दिवारी होत तो, जेठ पुजत तो गाय
उपजे कन्हैया नंद के, सो ले गये कातिक मास।
दीपावली की तैयारी एक महीने पूर्व से शुरू हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे इसका ही हमें इंतजार था। दीपों के इस पर्व के साथ घरों और दुकानों की साफ सफाई और रंग रोगन भी हो जाता है। साफ सफाई से जहाँ साल भर से जमते आ रहे कचरा और गंदगी की सफाई हो जाती है और ख्याल से उतरे कुछ जरूरी सामान और कागजात की छंटाई सफाई हो जाती है। व्यापारी वर्ग के लिए तो यह नये वर्ष की शुरूआत होती है। पुराने हिसाब किताब बराबर करना और नये खाता बही की शुरूआत जैसे लक्ष्मी आगमन का प्रतीक है। रंग रोगन से जहां मकानों और दुकानों की शोभा बढ़ जाती है, वहीं टूटे फूटे मकानों, दीवारों और सामानों की मरम्मत आदि हो जाती है। मान्यता भी यही है कि साफ सुथरे जगहों में लक्ष्मी जी का वास होता है और संभवत: लोगों का यह प्रयास लक्ष्मी जी को बहलाने फुसलाने का माध्यम भी होता है। इससे एक ओर तो धन्ना सेठों के घर चमकने लगते हैं वहीं दाने दाने को मोहताज लोग एक दीप भी नहीं जला पाते....तभी तो कवि श्री सरयूप्रसाद त्रिपाठी ‘मधुकर‘ कहते हैं :-
धनिकों के गृह सज स्वच्छ हुये,
दीनों ने आँसू से पोंछा।
माता का आंचल पकड़ बाल
मिष्ठान हेतु रह रह रोता।
लक्ष्मी पूजा की बारी है
पर पास न पान सुपारी है।
कार्तिक अमावस्या को मनाये जाने वाले इस त्योहार के प्रति पुराने जमाने में जो खुशी और उत्साह होता था उसका आज पूर्णत: अभाव देखा जा सकता है। आज दीवाली के प्रति लोगों की खुशियां कृत्रिम और क्षणिक होती है। जबकि पुराने समय में दीवाली के आगमन की तैयारी एक माह पहले से शुरू हो जाती थी। इस दिन सबके चेहरे पर रौनक होती थी। सभी आपसी भेद भाव को भूलकर एकता के सूत्र में बँध जाया करते थे। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छूत-अछूत जैसा भेद नहीं होता था बल्कि आपसी समझ-बूझ से लोग यह त्योहार मनाया करते थे। पर्व और त्योहारों का संबंध आजकल मन से कम और धन से ज्यादा होता है। सम्पन्नता विशेष आयोजनों और त्योहारों को विभाजित कर देती है, विपन्नता तो महज जीवन को जिंदा रखती है और मरने भी नहीं देती। देखिये कवि मधुकर जी की एक बानगी :-
छत्तीसगढ़ में कार्तिक मास को धरम महिना कहा जाता है और इस मास में तुलसी चौरा में दीया जलाना बड़ा शुभ माना जाता है। कवि भी यही कहते हैं :-
छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध कवि स्व. श्री हरि ठाकुर दीवाली को विशुद्ध कृषि संस्कृति पर आधारित त्योहार मानते हैं। इस समय खेतों में धान की बाली लहलहाने लगती है और बाली के धान पकने लगते हैं। किसान इसे देखकर झूम झूमकर गाने लगता है :-
दीपों का यह त्योहार खुशी, आनंद और भाईचारे का प्रतीक माना जाता था पर बदलते परिवेश में इसका स्थान फिजूलखर्ची और दिखावे ने ले लिया है। इससे मध्यम वर्गीय परिवारों का आर्थिक ढाँचा बहुत हद तक चरमरा जाता है। हमारे समाज में उच्च-मध्यम और निम्न वर्गीय लोग रहते हैं। उच्च वर्ग की फिज़ूलखर्ची और भोंडा प्रदर्शन मध्यम और निम्न वर्गीय लोगों को बरगलाने के लिये काफी होता है। कुछ लोग तो इन्हें हेय समझने लगे हैं। निम्न वर्ग तो हमेशा यही समझता है कि अमीरों के लिये ही सभी त्योहार होते हैं। सबसे ज्यादा आर्थिक और सामाजिक बोझ मध्यम वर्गीय परिवारों के ऊपर ही पड़ता है। उनकी स्थिति साँप और छछूंदर जैसी होती है। वे त्योहारों को न तो छोड़ सकते हैं न ही उनसे जुड़ सकते हैं। मेरा अपना अनुभव है कि कुछ लोग इस कोशिश में रहते हैं कि अपनी दीवाली सबसे ज्यादा रंगीन और आकर्षक हो। इसके लिये वे अधिक खर्च करना अपनी शान समझते हैं। अपनी शान और अभिमान को बनाये रखने तथा पड़ोसियों के ऊपर अपना रोब जमाने का यह प्रयास मात्र होता है। इससे न उसके शान और मान में बढ़ोतरी होती है, न ही लोग उनसे जुड़ पाते हैं। सामाजिक जुड़ाव के लिये आर्थिक सम्पन्नता का भोंडा प्रदर्शन करने के बजाय व्यावहारिक होकर सादगी से इस पर्व को मनाना उचित होगा।
चिंता विस्मृत हो गयी दुखद
उत्साह अमित उर में छाया।
धन दल विहीन नव नील गगन
विस्मृत अतिशय मन को भाया।
विहंसी निशि में तारावलियां
जब जुगनूं की जमात चमकी।
कुछ सहमे अचानक आ गयी
यह अलस अमा रजनी काली।
छत्तीसगढ़ में कार्तिक मास को धरम महिना कहा जाता है और इस मास में तुलसी चौरा में दीया जलाना बड़ा शुभ माना जाता है। कवि भी यही कहते हैं :-
कातिक महिना धरम के रे माय।
तुलसी में दियना जलाए हो माय।।
छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध कवि स्व. श्री हरि ठाकुर दीवाली को विशुद्ध कृषि संस्कृति पर आधारित त्योहार मानते हैं। इस समय खेतों में धान की बाली लहलहाने लगती है और बाली के धान पकने लगते हैं। किसान इसे देखकर झूम झूमकर गाने लगता है :-
दिया बाती के तिहार,
होगे घर उजियार
गोइ अचरा के जोत ल
जगाए रहिबे
दूध भरे धान,
होगे अब तो जवान
परौं लक्ष्मीं के पांव,
निक बादर के छांव,
सुवा रंग खेत खार, बन दूबी मेढ़ पार,
गोई फरिका पलक के लगाए रहिबे।
दीपों का यह त्योहार खुशी, आनंद और भाईचारे का प्रतीक माना जाता था पर बदलते परिवेश में इसका स्थान फिजूलखर्ची और दिखावे ने ले लिया है। इससे मध्यम वर्गीय परिवारों का आर्थिक ढाँचा बहुत हद तक चरमरा जाता है। हमारे समाज में उच्च-मध्यम और निम्न वर्गीय लोग रहते हैं। उच्च वर्ग की फिज़ूलखर्ची और भोंडा प्रदर्शन मध्यम और निम्न वर्गीय लोगों को बरगलाने के लिये काफी होता है। कुछ लोग तो इन्हें हेय समझने लगे हैं। निम्न वर्ग तो हमेशा यही समझता है कि अमीरों के लिये ही सभी त्योहार होते हैं। सबसे ज्यादा आर्थिक और सामाजिक बोझ मध्यम वर्गीय परिवारों के ऊपर ही पड़ता है। उनकी स्थिति साँप और छछूंदर जैसी होती है। वे त्योहारों को न तो छोड़ सकते हैं न ही उनसे जुड़ सकते हैं। मेरा अपना अनुभव है कि कुछ लोग इस कोशिश में रहते हैं कि अपनी दीवाली सबसे ज्यादा रंगीन और आकर्षक हो। इसके लिये वे अधिक खर्च करना अपनी शान समझते हैं। अपनी शान और अभिमान को बनाये रखने तथा पड़ोसियों के ऊपर अपना रोब जमाने का यह प्रयास मात्र होता है। इससे न उसके शान और मान में बढ़ोतरी होती है, न ही लोग उनसे जुड़ पाते हैं। सामाजिक जुड़ाव के लिये आर्थिक सम्पन्नता का भोंडा प्रदर्शन करने के बजाय व्यावहारिक होकर सादगी से इस पर्व को मनाना उचित होगा।
12 टिप्पणियाँ
दीपावली पर परंपरा और सामाजिक असमानता दोनो पहलिओ को प्रस्तुत करते हु केशरवानी जी नें अनमोल उद्धरण भी दिये हैं।
जवाब देंहटाएंदीपावली, गोवर्धन-पूजा और भइया-दूज पर आपको ढेरों शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंNice article. Happy Diwali.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
परंपराओं की गहरी समझ रहते हैं अश्विनी जी।
जवाब देंहटाएंधन्न हुए महराज। तृप्त कर दिए। माखन चोर दीपावली को भी इधर उधर कर दिए, ये तो नई बात का पता चला।
जवाब देंहटाएंबुंदेलखंडी लोकगीतों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि रामायण काल में दीवाली जेठ मास में मनायी जाती थी जिसे द्वापर युग में श्रीकृष्ण जी के जन्म के बाद कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष में मनायी जाने लगी :-
जवाब देंहटाएंजेठ दिवारी होत तो, जेठ पुजत तो गाय
उपजे कन्हैया नंद के, सो ले गये कातिक मास।
यह उद्धरण रोचक है। क्या यह केवल लोकोक्ति है अथवा इसका कोई एतिहासिक महत्व भी है?
दिवाली पर प्रो. अश्विनी केशरवानी जी का सम्यक लेख पढ़वाने के लिए धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
आपसभी को दीपावली की शुभकामनायें !!
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दीपावली के शुभ् अवसर पर सामयिक और ग्यानवर्द्धक आलेkख । सब को दीपावली की शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंन केवल ज्ञानवर्धक बल्कि विचारोत्तेजक भी।
जवाब देंहटाएंलोग परंपराओं से निकाल कर लिखा गया आलेख अच्छा है।
जवाब देंहटाएंआदरणीय अश्विनी जी,
जवाब देंहटाएंआपके आलेख पढ कर हमेशा नत-मस्तक हुआ हूँ; इसका कारण है लोक, लोकश्रुतियों और लोकपरंपराओं पर आपकी गहरी पकड़। मैंने बडे रचनाकारों के उद्धरण, पुराण-उपनिषदों के उद्धरण, इतिहास की पुस्तकों के उद्धरण आलेखों में प्राय: पढे हैं लेकिन वास्तविक इतिहास तो लोग गीतों और किंवदंतियों में समाहित बिम्बों में छुपा हुआ है जिसकी समझ के लिये आप जैसे विद्वानों की आवश्यकता है।
आभार कि आप साहित्य शिल्पी को अपनी रचनात्मकता से समृद्ध कर रहे हैं।
सार्थक सृजन कर रहे हैं. अनजाने तथ्यों को प्रकाश में लाते रहिये. साधुवाद...
जवाब देंहटाएंआत्म-दीप बालें 'सलिल', बन जाएँ विश्वात्म.
मानव बनने के लिए, आये खुद परमात्म..
सकल जगत से तिमिर हर, प्रसरित करें प्रकाश.
शब्द ब्रम्ह के उपासक, जीतें मन-आकाश..
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.