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मछली-घर [कविता] - सुशील कुमार

घूम रही हैं दिन-रात
ये नन्हीं सतरंगी मछलियाँ
काँच के छोटे से घेरे में
नकली जलीय फव्वारों और
रंग-बिरंगे सेवार घासों के बीच
बिजली की भुकभुकी में।
रचनाकार परिचय:-
सुशील कुमार का जन्म 13 सितम्बर, 1964, को पटना सिटी में हुआ, किंतु पिछले तेईस वर्षों से आपका दुमका (झारखण्ड) में निवास है।

आपनें बी०ए०, बी०एड० (पटना विश्वविद्यालय) से करने के पश्चात पहले प्राइवेट ट्यूशन, फिर बैंक की नौकरी की| 1996 में आप लोकसेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर राज्य शिक्षा सेवा में आ गये तथा वर्तमान में संप्रति +२ जिला स्कूल चाईबासा में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

आपकी अनेक कविताएँ-आलेख इत्यादि कई प्रमुख पत्रिकाओं, स्तरीय वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।

सारा शहर शांत पड़ गया है
और झपकियाँ अब
शहर की आँखों में गहरी उतर रही हैं
फिर भी मैं अपने कमरे में
कुर्सी पर टिमटिमा रहा हूँ,
रोब गाँठ रहा हूँ तो कभी
खिसिया रहा हूँ , दाँतें पिच रहा हूँ
अपने मातहतों में रह-रह कर और
फाईलों की टिप्पणियों
से जूझ रहा हूँ ।

कलम की नींब पर
कागज के मैल जम गहरे गये हैं

उधर सारी रात मछली-घर में
ये छोटी-छोटी मछलियाँ
चहलकदमी कर रही हैं
बिना बोले बिना रुके।
जरूर इन्हें लाया गया होगा
किसी बड़े जलाशय या ऐसी बड़ी जगह से
जहाँ इनका जीवन ज्यादा स्वतन्त्र और सुखी होगा
या फिर इन्हीं गरगच्च छोटी सी
शीशमहल में जन्मी होगी

कितनी विडम्बना है कि
फाईलों में सुबकते हुए अक्षर
कुछ कह नहीं पाते
उन्हें नियमों की परिधि से बाहर
किसी सादे कागज पर
उतरने की इजाजत नहीं
जहाँ कोई कविता या गीत बन सके
न इन कांच की घेराबन्दियों को तोड़
कोई मछली ही
स्वतन्त्र जलसमूह में अब विचरण कर सकती।

सोचता हूँ,
मछलियों और अक्षरों का
इस शहर के समीकरण से
अलग होने का
कोई आसार नहीं।

फिर सोचता हूँ शहर की उन
तमाम ज़िन्दगियों के बारे में
जो नींद में निढ़ाल है अभी कुछ देर के लिये
क्या यह शहर भी कोई बड़ा -सा मछलीघर ही है
जहाँ हम सब झूठी नियामतों की
चक्करघिन्नी में घूम रहे हैं लगातार
बिना सोचे बिना समझे
रोज़ की दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बनकर ?

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11 टिप्पणियाँ

  1. फिर सोचता हूँ शहर की उन
    तमाम ज़िन्दगियों के बारे में
    जो नींद में निढ़ाल है अभी कुछ देर के लिये
    क्या यह शहर भी कोई बड़ा -सा मछलीघर ही है
    जहाँ हम सब झूठी नियामतों की
    चक्करघिन्नी में घूम रहे हैं लगातार
    बिना सोचे बिना समझे
    रोज़ की दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बनकर ?

    सीधे जुड़ती है यह कविता।

    जवाब देंहटाएं
  2. कितनी विडम्बना है कि
    फाईलों में सुबकते हुए अक्षर
    कुछ कह नहीं पाते
    उन्हें नियमों की परिधि से बाहर
    किसी सादे कागज पर
    उतरने की इजाजत नहीं
    जहाँ कोई कविता या गीत बन सके
    न इन कांच की घेराबन्दियों को तोड़
    कोई मछली ही
    स्वतन्त्र जलसमूह में अब विचरण कर सकती।

    जवाब देंहटाएं
  3. फिर सोचता हूँ शहर की उन
    तमाम ज़िन्दगियों के बारे में
    जो नींद में निढ़ाल है अभी कुछ देर के लिये
    क्या यह शहर भी कोई बड़ा -सा मछलीघर ही है
    जहाँ हम सब झूठी नियामतों की
    चक्करघिन्नी में घूम रहे हैं लगातार
    बिना सोचे बिना समझे
    रोज़ की दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बनकर ?


    Behatreen vicharon ko darshati sundar kavita....hamare rahan sahan ke badalate star par prkash dalati ..bahut badhiya kavita..badhayi..

    जवाब देंहटाएं
  4. गहन कविता। सुशील जी के लेखन के अनुरूप।

    जवाब देंहटाएं
  5. MERE PRIY KAVI SHRI SUSHIL KUMAR
    KEE EK AUR SASHAKT KAVITA-"MACHHLEE
    GHAR".KAVITA MEIN NIHIT KAVI KEE
    GAHAN DRISHTI KE LIYE UNHEN BADHAAEE.

    जवाब देंहटाएं
  6. कविता आत्ममंथन के लिये भी स्थान बनाती है। सुशील जी की लेखनी से निकली यह एक और सशक्त कविता है।

    क्या यह शहर भी कोई बड़ा -सा मछलीघर ही है
    जहाँ हम सब झूठी नियामतों की
    चक्करघिन्नी में घूम रहे हैं लगातार
    बिना सोचे बिना समझे
    रोज़ की दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बनकर ?

    जवाब देंहटाएं
  7. सोचता हूँ,
    मछलियों और अक्षरों का
    इस शहर के समीकरण से
    अलग होने का
    कोई आसार नहीं।

    गहरी सम्वेदना को समेटे और खुद के वजूद को तलाश करती एक बेहतरीन रचना है सुशील भाई।

    प्रश्न अनूठा सामने अपनी क्या पहचान।
    छुपा हुआ संघर्ष में सारे प्रश्न-निदान।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    www.manoramsuman.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  8. कई बार जिंदगी भी मूक प्राणियों की तरह ,
    जीने की कशमकश लिए ,
    दुरूह सी लगती है
    - सुशील कुमार जी की कवितायें
    नये बिम्ब लिए हमेशा कुछ नया सोचने
    के लिए दे जातीं हैं
    - लावण्या

    जवाब देंहटाएं
  9. सार्थक बिम्ब द्वारा जीवन की कृत्रिमता का प्रभावशाली चित्रण प्रस्तुत किया है आपने...प्रकृति के विरुद्ध रह सुखी रह पाने की चाहना सचमुच ऐसी ही है जैसे मछलीघर में रंग बिरंगी मछलियों का संतरण...

    सुन्दर सार्थक रचना हेतु आभार..

    जवाब देंहटाएं
  10. सुशील जी,
    आपने सही आकंलन किया है.. यह संसार मछलीघर ही है. एक साथ चलते चलते कौन कब कहां मुड जाये.. कौन किस को कब निगल जाये.. और न जाने कब किसी खोह या निर्जन को अपना आशयाना बनाना पड जाये.. कोई कह नहीं सकता.

    जीवन की परिधियों को आपने मछली के माध्यम से खूब ऊकेरा है

    जवाब देंहटाएं

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