उर्वशी खंड काव्य का कथा मर्म:
रामधारी सिंह ’दिनकर’ का खंडकाव्य “उर्वशी” पुराणों में वर्णित उर्वशी-पुरुरुवा की कथा पर आधारित है। इस कथा के अनुसार मनु के पुत्र सुद्युम्न एक बार किसी अभिशप्त वन में जाने के कारण स्त्री में परिवर्तित हो गये। तब उनका नाम इला हुआ। इस इला के चन्द्रमा के पुत्र बुध से एक पुत्र का जन्म हुआ। यही इस कथा के नायक पुरुरुवा थे। एक बार पुरुरुवा कहीं से अपनी राजधानी प्रतिष्ठानपुर लौट रहे थे, जब मार्ग में एक राक्षस से उन्होंने देवलोक की अप्सरा उर्वशी की रक्षा की थी। इस घटना के बाद उर्वशी और पुरुरुवा अपने-अपने स्थान को लौट तो गये परंतु एक-दूसरे के प्रति उत्कट प्रेम लिये हुये।
पुरुरुवा के विरह में व्याकुल उर्वशी एक दिन भरत मुनि का यथोचित सम्मान न कर पाई। इस पर कुपित हो कर मुनि ने उसे श्राप दिया कि वह जिसके ध्यान में है, उसे प्राप्त तो करेगी परंतु उसे अपने प्रेमी और उससे प्राप्त पुत्र में से किसी एक का ही सुख मिलेगा। जिस दिन पिता-पुत्र का सामना होगा, उर्वशी भूलोक पर नहीं रह पाएगी।
आखिरकार उर्वशी देवलोक को छोड़कर पुरुरुवा के पास भूलोक में आ गई। पुरुरुवा भी अपनी पहली पत्नी औशीनरी को भूल उसके प्रेम-पाश में बँध गए। दोनों काफी समय तक गन्धमादन नामक पर्वत पर विहार करते रहे। इस बीच उर्वशी गर्भवती हो गई परंतु शाप के डर से उसने यह बात राजा से छुपाए रखी और चुपचाप च्यवन ऋषि के आश्रम में जाकर अपने पुत्र को जन्म दिया और उसे वहीं च्यवन-पत्नी सुकन्या को सौंप वापस पुरुरुवा के पास आ गई।
उर्वशी-पुत्र आयु के युवा होने पर एक दिन च्यवन ऋषि की आज्ञानुसार सुकन्या उसे लेकर पुरुरुवा के दरबार में पहुँच गई। अपनी संतानहीनता से दुखी राजा अभी इस अकस्मात प्राप्त खुशी को आत्मसात करने का प्रयास कर ही रहे थे कि उर्वशी श्राप के वशीभूत हो पिता-पुत्र को छोड़ देवलोक को चली गई। तब सुकन्या ने राजा को सारी बात बताई। इस सब से दुखी राजा तत्क्षण आयु को राज्य सौंप सन्यास हेतु वन को चले गये।
’दिनकर’ ने इस कथा के भाव-पक्ष पर ही मुख्यत: अपना ध्यान केन्द्रित किया है। उर्वशी-पुरुरुवा के माध्यम से नर-नारी प्रेम की व्याख्या के साथ-साथ मानव की महत्ता और औशीनरी, सुकन्या आदि के द्वारा पुरुष प्रधान समाज में नारी की स्थिति पर भी उन्होंने कलम चलाई है।
मंजीत सिंह जी ने इस खंडकाव्य में वर्णित विविध प्रसंगों पर आधारित पेंटिंग्स बना कर इसे रंगों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। कैनवस पर अक्राइलिक और तैल रंगों में चित्रित इन दृश्यों ने मानो संबंधित प्रसंगों को जीवंत कर दिया है।
प्रस्तुत है "उर्वशी" पर आधारित ई-प्रदर्शनी:
(चित्र को बड़े आकार में देखने के लिये उस पर चटका लगायें)

कलकल करती हुई सलिल सी गाती, धूम मचाती
अम्बर से ये कौन कनक-प्रतिमाएं उतर रही हैं?
उड़ी आ रहीं छूट कुसुम-वल्लियाँ कल्प-कानन से?
या देवों की वीणा की रागिनियाँ भटक गईं हैं?

फूलों की नाव बहाओ री, यह रात रुपहली आई।
फूटी सुधा-सलिल की धारा,
डूबा नभ का कूल-किनारा,
सजल चाँदनी की सुमन्द लहरों में तैर नहाओ री!
यह रात रुपहली आई।

आज शाम से ही हम तो भीतर से हरी-हरी हैं,
लगता है आकण्ठ गीत के जल से भरी-भरी हैं।
जी करता है फूलों को प्राणों का गीत सुनायें।
जी करता है, यहीं रहें, हम फूलों में बस जायें॥

आज साँझ को ही उसको फूलों से खूब सजाकर
सुरपुर के बाहर ले आई सबकी आँख बचाकर
उतर गई धीरे-धीरे, चुपके फिर मर्त्य भुवन में,
और छोड़ आई हूँ उसको राजा के उपवन में।

एक मूर्ति में सिमट गई किस भांति सिद्धियाँ सारी?
कब था ज्ञात मुझे इतनी सुंदर होती है नारी।

इस प्रचण्डता का जग में कोई उपचार नहीं है?
पति के सिवा योषिता का कोई आधार नहीं है।
जब तक है यह दशा, नारियाँ व्यथा कहाँ खोएँगी?
आँसू छिपा हँसेंगी, फिर हँसते-हँसते रोएँगी॥

कितनी गौरवमयी घड़ी वह भी नारी-जीवन की,
जब अजेय केसरी भूल सुध-बुध समस्त तन-मन की
पद पर रहता पड़ा, देखता अनिमिष नारी-मुख को,
क्षण-क्षण रोमाकुलित, भोगता गूढ़ अनिर्वच सुख को!

मेरे अश्रु ओस बन कर कल्पद्रुम पर छाएंगे;
पारिजात-वन के प्रसून आहों से कुम्हलाएंगे।
मेरी मर्म-पुकार मोहिनी! वृथा नहीं जाएगी,
आज न तो कल तुझे इन्द्रपुर में वह तड़पाएगी॥

कामद्रुम-तल पड़ी तड़पती, रही तप्त फूलों पर;
पर, तुम आए नहीं कभी छिप कर भी सुधि लेने को।

“रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं तो और क्या है?
स्नेह का सौन्दर्य को उपहार रस-चुम्बन नहीं तो और क्या है??”

इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है।
सिंह से बाहें मिला कर खेल सकता है।
विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से;
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुसकान से॥

मैं तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग,
वक्ष पर धर सीस मरना चाहता हूँ।
मैं तुम्हारे हाथ का लीला-कमल हूँ,
प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ॥

करते नहीं स्पर्श क्यों पगतल मृत्ति और प्रस्तर का?
सघन, उष्ण वह वायु कहाँ है? हम इस समय कहाँ हैं?
छूट गई धरती नीचे, आभा की झंकारों पर
चढ़े हुए हम, देह छोड़कर मन में पहुँच रहे हैं।

और वक्ष के कुसुम-कुंज सुरभित विश्राम-स्थल ये
जहाँ मृत्यु के पथिक ठहरकर श्रांति दूर करते हैं

पाषाणों के अनगढ़ अंगों को काट-छाँट
मैं ही निविडस्तननता, मुष्टिमध्यमा,
मदिरलोचना, कामलुलिता नारी
प्रस्तरावरण कर भंग,
तोड़ तम को उन्मत्त उभरती हूँ।

कबरी के फूलों का सुवास, आकुंचित अधरों का कम्पन,
परिरम्भ-वेदना से विभोर, कंटकित अंग, मधुमत्त-नयन;
दो प्राणों से उठने वाली वे झंकृतियाँ गोपन, मधुमय,
जो अगरु-धूम सी हो जाती ऊपर उठ एक अपर में लय।
कितनी पावन वह रस-समाधि, जब सेज स्वर्ग बन जाती है,
गोचर शरीर में विभा अगोचर सुख की झलक दिखाती है॥

कितनी मृदुल ऊर्मि प्राणों में अकथ अपार सुखों की!
दुग्ध-धवल यह दृष्टि मनोरम कितनी अमृत-सरस है।
और स्पर्श में यह तरंग सी क्या है सोम-सुधा की,
अंक लगाते ही आँखों की पलकें झुक जाती हैं॥
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उर्वशी खंडकाव्य से संदर्भित मंजीत सिंह की अन्य कृतियाँ: -






41 टिप्पणियाँ
prkhyat premakhyan urvshipr aadharit chitr apni sjeevta men mnohari hain hohk hain
जवाब देंहटाएंchitrkar ne in chitron men apna dridy udela
deh dhrni pr prem hridy ke rng ko is men ghola
nr nari ka prem poornta srjn vrit hota hai
saunp sbhi bhavi pidhi ko krm sufl hota hai
sundrtm chitron ke liye hardik bdhai
dr.ved vyathit fridabad
दिनकर की शैली व काव्यात्मकता अपने आप में पूर्णता लिये हुए होते है साथ ही चित्रोत्पादक भी परन्तु मंजीत जी के चित्र सटीकता लिये हुए व प्रभावी हैं। चित्रों की भाव-भंगिमा व नारी का स्वरूप गरिमा लिये हु्ए है। कौन श्रेष्ठ है ? इसके बारे में तो निर्णय लेना भी असम्भव सा है हां यह जरूर कहा जा सकता है कि इस प्रस्तुती में दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं। अदभुत प्रयास ,सराहनीय चित्र मंजीत जी को बहुत-बहुत बधाईं। साहित्य -शिल्पी को धन्यवाद देना चाहूंगी जिनके नित नये प्रयास पढने को लालायित करते हैं।
जवाब देंहटाएंअद्वितीय प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंदिनकर जी की "उर्वशी" पर मंजीत सिंह ही द्वारा बनाये गये चित्र स्वयं में एक गाथा कह रहे हैं. विभिन्न भाव समेटे यह चित्र मन भावन हैं. मंजीत सिहं जी के रूप में एक कुशल कलाकार को पाकर साहित्यशिल्पी रोमांचित है... आभार
जवाब देंहटाएंRAMDHAREE SINGH DINKAR KEE URVASHEE
जवाब देंहटाएंAUR US PAR MANJEET KE CHITR SONE
PAR SUHAAGAA WAALEE BAAT HAI.
Never seen such type of ultimate paintings on specific subject.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
atyant manoram evam prashansniy, best presentation.
जवाब देंहटाएंsalute to painter
जवाब देंहटाएंदिनकर जी की रचना पर मंजीत जी के बनाये चित्र बेमिशाल हैं. इनकी तूलिका से निकले ये कुछ रंग-प्रस्तर नवीनता के साथ नहीं हैं बल्कि उसी खासियत के साथ हैं जिसे वर्षों से देखता आ रहा हूँ, जिन्हें बरबस ही पहचान जाता हूँ कि ये लकीरें मंजीत के हाथों से बनी हैं. पहचान-भ्रम नहीं होता न ही माडर्न आर्ट के नाम पर बेमतलब की चीज़ मिलती.
जवाब देंहटाएंराजीव जी को धन्यवाद कि मंजीत जी के इस प्रयास से मुझे अवगत कराया.
कितने खूबसूरत रंग एसा लगता है उर्वशी सम्मुख आ खडी हो। मंजीत जी की पेंटिंग्स अविस्मरणीय है और विषय बहुत बडा है। इस सोच के विषय में कहूंगी - न भूतो न भविष्यति
जवाब देंहटाएंकविराज दिनकर जी की "उर्वशी" पर मंजीत सिंह ही द्वारा बनाये गये चित्र अपने आप में जीती जागती कहानी हैं .......... उसके पात्रों को कूची से जिया है उन्होंने ............यह चित्र इतने मन भावन हैंकी देखते ही रहने को दिल करता है ........साहित्यशिल्पी का बहुत बहुत धन्यवाद इस पोस्ट के लिए ................
जवाब देंहटाएंअद्भुत चित्रावली!! लाजबाब!
जवाब देंहटाएंकविता पढती हूँ और चित्रों को देखती हूँ तो लगता है एक दूसरे के लिये हैं जुडवा बहनें। मन मोहक प्रस्तुतियाँ। कविता की पंक्तियाँ भी प्रस्तुति होने से इससे जुडने में आसानी हुई
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रदर्शनी है, मंजीत जी कमाल के चित्रकार हैं।
जवाब देंहटाएंउर्वशी कई बार पढी है और अब इन चित्रों के साथ फिर से पढूंगा। मंजीत जी को मील का पत्थर रचने के लिये बधाई हो।
जवाब देंहटाएंमेरी भी सहमती है --
जवाब देंहटाएं- इस मनोरम चित्र - माला को ,
आप लोग , कुछ दिवस तक , रहने दें
ताकि अधिक से अधिक पाठक वर्ग
इस का आनंद ले सकें ---
स्व. आदरणीय दिनकर जी की,
एक एक पंक्ति को , समझ कर
चित्रकार मंजीत भाई ने ,
अति मनोहारी चित्रों को , प्रस्तुत किया है
उन्हें मेरी हार्दीक बधाई !
काश , प्रसाद जी की "कामायनी " ,
पन्त जी की "ग्राम्या " तथा
पंडित नरेंद्र शर्मा
( मेरे पापा ) की
" प्रवासी के गीत " व
" द्रौपदी खंड काव्य"
जैसी कविता पुस्तकों पर भी
इसी तरह की सीरीज़ तैयार हो -
- तब ये हिन्दी साहित्य के लिए ,
अभूतपूर्व योगदान रहेगा --
पश्चिम की परीकथाएँ
जैसे " सीन्ड्रेला " या
" थम्बलीना " से कहीं ज्यादा सुन्दर ,
हमारे हिन्दी काव्य हैं !!
सांस्कृतिक विरासत , हमी को जुटानी है ,
तैयार करना है इसे
ताके , अगली कई पीढीयों तक ,
हमारा आधुनिक साहित्य शाश्वत रहे -
-
आ. महादेवी जी तथा कवीन्द्र श्री रवीन्द्र ने स्वयं कविता के अनुरूप
चित्रों से कई पुस्तकों को
सु सज्जित किया था
-- हर कवि चित्रकारी नहीं करता --
परन्तु हमारे पास भी ,
मंजीत भाई जैसे कई , गुणी कलाकार हैं
-- काफी कुछ संभव है --
बेहद प्रसन्नता हुई है
आज के प्रयास को देखकर -
स - स्नेह, सादर,
- लावण्या
शब्द-चित्र करता रहा, अंकित दिनकर काव्य.
जवाब देंहटाएंचित्र-शब्द मंचित कभी, हों यह था संभाव्य..
लाये हैं मनजीत सिंह, यह अद्भुत उपहार.
चित्र-काव्य की नव विधा, काव्य-चित्र साकार..
इस में वह आ बसा या, उसमें यह आसीन?
दर्शक-पाठक हो रहे, देख-श्रवण कर लीन..
साधुवाद देता 'सलिल', सच अद्भुत है काम.
मिलकर रूप अरूप से, है गुमनाम अनाम..
अद्भुत परिकल्पना..एक एक चित्र को कितनी बारीकी से सँवारा गया है ..बहुत सुंदर....बधाई मंजीत जी बेहतरीन पेंटिंग्स और साथ ही राजीव जी का भी आभार जिन्होने ऐसे सुंदर परिकल्पना को जनसामान्य तक पहुँचाया..बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर। इन्हें यहां लाने के लिए शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंमन जीत लिया है
जवाब देंहटाएंमंजीत के बनाए चित्रों ने
दिनकर काव्य पंक्तियों को किया साकार
बेहतर कविता पर चित्र रूपी उपहार
।
शब्दों से सपने देखना दिखाना सुना था मगर चित्र बनाना पहली बार देख रहा हूँ कमाल की अदायगी ही... इन्हें मेरा सलाम ,,
जवाब देंहटाएंअर्श
शब्दों को तूलिका से साकार करना बेहद श्रमसाध्य कर्म है। मंजीत सिंह को बधाई कि उन्होंने एक उच्च-स्तरीय काव्य को इस श्रम के लिये चुना और सफलतापूर्वक पूरा किया। बहुत-बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंkavita chitr ka adbhud sangam bahut khoob .itne pyare rang itne sunder chitr ki mano bol rahe hain aap ki tulika ko pranam
जवाब देंहटाएंsaader
rachana
मंजीतजी,
जवाब देंहटाएंअप्रतिम चित्र। अनके जरिये दिनकरजी की अमर रचना उर्वशी आंखों के सामने सजीव हो उठी। बहुत बहुत बधाई।
साहित्यशिल्पी टीम का आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये।
कल्पना से परे की प्रस्तुति है। साहित्य शिल्पी की से दिल से जुडे रहने का यही कारण है कि यहाँ एसी अनुपम प्रस्तुतियाँ देखने पढने को मिलती हैं जो नेट जगत पर अन्यत्र नहीं होती।
जवाब देंहटाएंमंजीत सिंह जी हिन्दी साहित्य सागर है चित बनाते रहिये जब आप उतरे ही हैं तो गहरा उतरिये। लावण्या जी की इस बात पर ध्यान दीजियेगा कि - संभव हो तो प्रसाद जी की "कामायनी " , पन्त जी की "ग्राम्या " तथा पंडित नरेंद्र शर्मा की "प्रवासी के गीत" व " द्रौपदी खंड काव्य" जैसी कविता पुस्तकों पर भी इसी तरह की सीरीज़ तैयार हो ।
दिव्य-भव्य
जवाब देंहटाएंहिन्दी की कविताओं पर पेंटिंग तैयार करने के मंजीत सिंह जी के प्रयास सराहनीय हैं। यह यादगार प्रस्तुति है।
जवाब देंहटाएंbahut parisram ke baad aisi rachna taiyaar hogi manjeet ji ne khub achh kam kiya hai
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी एक अद्भुत और अनूठी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमंजीत भाई की चित्रकारी ने साबित कर दिया है कि दिनकर जी की कविताओं में शब्दों के माध्यम से सजीव चित्र बन उठते थे। उन शब्दों को नक़्श और रंग प्रदान कर मंजीत जी ने उन्हें जीवंत बना दिया है।
किसी न किसी प्रकाशक को चाहिये कि दिनकर जी की उर्वशी अब दोबारा मंजीत भाई के चित्रों के साथ प्रकाशित करे। यह एक बहुमूल्य प्रयास होगा।
जो मंजीत जी ने किया है इससे पहले गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर, महादेवी वर्मा एवं इमरोज़ कर चुके हैं। (यह सूचना मुझे प्राण शर्मा जी से मिली)। यानि कि मंजीत ने एक महान् परंपरा के साथ अपने आपको जोड़ा है।
मंजीत की पेंटिंग्ज़ में नायिका के नाक नक़्श, पहरावा और रंगों का चयन हमें उस युग में पहुंचा देते हैं जिसक वर्णन दिनकर जी अपनी कविता में कर रहे हैं।
मेरे आग्रह पर साहित्य शिल्पी ने इस ई-प्रदर्शनी को दो दिनों के लिये साइट पर रखने का निर्णय लेकर मुझ जैसे बहुत से कला-प्रेमियों को कृतार्थ किया है। धन्यवाद।
तेजेन्द्र शर्मा
महासचिव - कथा यू.के.
लंदन
खंडकाव्य देखा और साकार पाया, मंजीत बधाई के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंरंग संयोजन सुन्दर है बधाई मंजीत जी।
जवाब देंहटाएंमंजीत जी,
जवाब देंहटाएंआपके अन्तर्निहित चित्रकार को शत - शत नमन. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आपकी कूची को ब्रह्मा का आर्शीवाद प्राप्त है. आपके रंगों ने महाकवि के शब्दों में प्राण
फूँक दिए हैं. प्रत्येक चित्र अपने अभिप्राय के साथ सजीव हो उठा है. इतनी सुन्दर मनोहारी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद. ईश्वर आपकी प्रतिभा को विश्व के कोने - कोने तक पहुँचाये!
------किरण सिन्धु.
लेखनी तथा तूलिका एवं कल्पना और रंगों का अद्भभुत सम्मिश्रण ! आभार । जयशंकर प्रसाद जी की " कामायनी " का विचार जाने क्यों बार - बार आ रह है । शायद मंजीत जी की चित्रकला की प्रतीक्षा कामायानी को भी रहेगी ।
जवाब देंहटाएंशशि पाधा
कितनी बार इस ई प्रदर्शनी को देखा है, और हर बार एक अद्भुत और नया सुख मिला है. ऐसा लगा कि उर्वशी इन चित्रों के माध्यम से फिर से पढ़ ली. तेजेन्द्र जी की बात मान कर आप ने मेरे जैसे कई कला प्रेमियों को कृतार्थ किया है...
जवाब देंहटाएंबहुत आभारी हूँ और आगे भी मंजीत जी की कृतियों का इंतज़ार रहेगा.
सभी पेंटिंग्स अतीत की ओर ले जाती हैं। उर्वशी को सजीव करने का प्रयास सफल हुआ है। कामायनी को भी प्रस्तुत करने की कोशिश होनी चाहिये।
जवाब देंहटाएंpaintings ke dvara kaavy abhivyakti apney men anuthee aur prashansneey hai .
जवाब देंहटाएंsudhakalp
राजीव भाई,
जवाब देंहटाएंइस तरह से इतनी सुंदर पेंटिंग का नजारा पहली बार अपने कंप्यूटर पर देख रहा हूँ, विश्वास नहीं होता कि ऐसा भी हो सकता है। वाकई बहुत ही सराहनीय प्रयास। पूरी टीम को बहुत बहुत बधाई।
* यह टिप्पणी ई-मेल द्वारा प्राप्त
डॉ महेश परिमल
कहने को कुछ नहीं बचा है।
जवाब देंहटाएंवैसे मैने परसो हीं सरसरी निगाह से एक बार इस पोस्ट को देख लिया था, लेकिन सोचा कि जब तक पूरी तरह इसका पान न कर लिया जाए, टिप्पणी करना न्यायोचित(अपने हृदय से) नहीं होगा। अभी जाकर समय मिला और मैने एक-एक चित्र को पंक्तियों के साथ जोड़कर देखा। मंजीत जी ने कमाल की कारीगरी की है। हृदय प्रफ़ुल्लित हो गया। मंजीत सिंह जी जैसे लोग साहित्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।
इस अद्वितीय खोज के लिए मैं साहित्य-शिल्पी का आभार व्यक्त करता हूँ।
-विश्व दीपक
Urvarshi ki E-Pardarshani sunder Premabhiyakti ka Aaina hai
जवाब देंहटाएंDahnyawaad
बहुत खूब, काफी सुंदर प्रयास, साहित्य और विविध कलाओं के बीच यह संवाद और आवा-जाही दोनों ही विधाओं को समृद्ध करती है. कभी कला साहित्य की प्रेरक बनती है तो कभी साहित्य कला को प्रेरणा देता है. चित्रकार मंजीत जी को ढेर सारी बधाई, भविष्य में भी वे ऐसे ही अनूठे, अछूते और मनभाते कला प्रयोग करते रहे. शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंअदभुत प्रयास !
जवाब देंहटाएंमंजीत जी को धन्यबाद और बधाइयाँ...
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.