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"तू क्या है" [आलेख] – डॉ. कुमार विश्वास

चचा ग़ालिब किसी से बिदक गए होंगे, लोग भी कहाँ मानते हैं. अजी लगे रहते है. जब तक की भले से भला बैल भी झुंझला कर सांड न हो जाये. सो उन को भी कोई ज्यादा ही बत्ती दे रहा होगा. उस वक़्त तक उर्दू की नवाबी सहिष्णुता ज़िन्दा थी सो ज्यादा तों न कह सके, बस इतना कह गए की -

"हर एक बात पे कहते हो तुम की तू क्या है,
तुम्ही कहो की ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है".

उस दौर में लोग भी कमिनेस्ट नहीं थे, सो समझ भी गए होंगे. पर बेचारे अशोक चक्रधर क्या करें? एक महिला ने उन्हें बिना बरते ही विदूषक कह दिया. यूँ तों स्त्रियों में ये आदत सामान्यतः पाई जाती है की वे किसी इच्छा की अधिक समय तक लंबित रहने पर उस दोहद के रास्ते में आने वाले हर हरसिंगार को नागफनी समझने लगतीं हैं. पर यहाँ मामला दूसरा है . संत लोग "सिकरी" के फटे जूतों के अलोटमेंट पर पैजार कर रहे हैं . दिल्ली हिंदी आका-डमी में जब तक एक कांग्रेसी विराजे रहे, हमारे ये सारे चन्दगीराम सभी सतपालों की प्राथमिकता सूचियाँ अपने अपने मुहँ में ठांस कर मौन धरे रहे , पर जब "जय हो " के चुनावी कांग्रेसी वर्सन के रचयिता डॉ अशोक चक्रधर का जीत के बाद वजीफा तय हुआ तों इन के अन्दर का कुम्भन दास फूट पड़ा. एक बोलीं की "विदूषक" है, दूसरे बोले की "इन से अच्छे अनेक पड़े थे " जैसे ये कोई गिरे-पड़े हों. रही सही कसर एक मरणासन्न दैनिक के समाचार ने पूरी कर दी. फिर क्या था. बकौल भाई लोगों के 'देश भर में विरोध और समर्थन' होने लगा. अब चार-पॉँच हज़ार लोगों का तो देश है बेचारों का . शहर, गाँव, कस्बों के, मानवीय-कबाड़ में गिने जाने वाले कुछ शापित मुनष्य नुमा लोग है ,जो अकारण कुपित रहने के कारण खुद को हिंदी का भगत सिंह समझने लगे है, और बिना किसी बाहरी प्रयास एवं मदद के वक़्त से लेकर खुद तक को नष्ट करने में अहर्निश जुटे हैं और कोई आश्चर्य नहीं की उन की मेहनत से खुश को कर ईश्वर भी उन्हें इच्छित परिणाम दे ही रहा है .

रचनाकार परिचय:-

डॉ॰ कुमार विश्वास का नाम किसी भी हिन्दी काव्य-रसिक के लिये अपरिचित नहीं है। देश के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में गिने जाने वाले डॉ॰ कुमार विश्वास के अब तक दो काव्य-संग्रह प्रकाशित हुये हैं जिन्हें पाठकों का अपार स्नेह मिला है। ये अपने काव्य-वाचन के अंदाज़ के लिये सभी के चहेते हैं।

ये तो था कथा बीज. लेकिन मुद्दा कुछ और ही है. दरअस्ल आज़ादी के बाद के बड़े नुकसानों में वे प्रयास भी समिलित हैं जिन में राज्य के जनहितकारी सांस्कृतिक उपक्रमों का पालित बुद्धिजीविता के माध्यम से, छिछोरी राजनीती द्वारा नपुंसक उपयोग हुआ है. वो वक़्त हवा हुआ जब सदन में दिनकर जी पार्टी के सदस्य हो कर भी उस की लीक से सिंह जैसा विचलन उबल देते थे, जब बाबा नागार्जुन झूम कर "राजीव रायिम" सुनते थे और लाला किले के कविसम्मेलनों से पुचकार नहीं हुँकार सुनाई देती थी . अब तो दोनों ही खेमो में लिजलिजी महत्वाकांक्षा की कीचड़ में लिसड़े, हडियाँ गवाए कुछ लोथ हैं जो 'यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ मत पूछो कहाँ कहाँ है संतोषी माँ' की धुन में अपने अपने जुगाड़ के खोमचे उठाये बगटुट फेरा लगा रहे हैं. उन में जिस का दांव बड़ा लग जाता है उसे ही शेष दूसरे साहित्य का स्वांइन- फ्लू घोषित कर देते हैं. यहाँ फजीता भीड़ वाले फजीतियों और भाड़ वाले जुगाडियो का है. एक खोमचा उन भीड़ धर्मी मलंगों का है जो रात में मजमे को अजगर दिखा कर तालियाँ बजवा लेता है और मौका ए वारदात पर मौजूद राजा साब उन्हें सिद्ध मान कर मनसबदारी न्योछावर कर देते हैं. डॉ चक्रधर उस जमात के बड़े वाले औलिया हैं. दूसरा उन खालिस खलीफाओं का है जो भाड़ झोकते झोकते भड़भूजे की आखँ फोड़ने की कला में शास्त्री हो चके हैं, आज़ादी के बाद से इन दूसरे वालों की ही ज्यादा चलती रही . क्यूँ की तब सब ही इसी मोहल्ले में थे. बाद में आँगन बँट गया. ये मजमे वाले, [अजी या मेरे वाले] रोज रात की अपनी ही उर्स पर इतने फिदायीन तरीके से फ़िदा हुए की अक्ल की हर हरकत को अमेरिकी हस्तक्षेप समझने लगे. लिहाज़ा पढाई लिखाई से इनके रिश्ते बदतर होते चले गए. अलबत्ता उधर वालों ने अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा हासिल न देख कर गालियों के गरारे करते हुए कागद कारे करने में ही इति, गति, नियती समझी.

अशोक जी बेहद प्रतिभाशाली और खास कर अद्भुत लगन के धनी है, मेरा उन से मंचीय परिचय और साहचर्य पुराना है. वे कठिन बचपन और भ्रमित यौवन की आग से निखरे प्रौढ़ हैं, उन की कविताई पर ज्यादा क्या बोलूं पर हाँ, उन की हर और पटा घुमाने की सतत् संघर्षशील इच्छाशक्ति मुझे प्रारंभ से ही लुभाती रही है. वे पन्त जी की ' चींटी को देखा ' कविता के सटीक उदहारण हैं. कोई मौका हो कोई बात हो हिंदी की हर हलचल पर वे चल पड़ते हैं. यही कारण है जिस वक़्त हिंदी ये चिल्ला चोट वाले साहित्यकार कॉलम में अपना अस्तित्व नाप रहे थे वे माइक्रोसॉफ्ट की विण्डो को हिंदी की विश्व बेब विस्तार वाली खिड़की बनाने में जुटे थे. उन्हें बिल गेट्स की इस बड़ी दुकान से इस बात का बाकायदा तमगा भी मिला.हिंदी के कवि सम्मेलनों से जिन कुछ लोगों ने [कवियों नहीं कहूँगा नहीं तो सारे दीवेदी , त्रिवेदी और चतुर्वेदी मिल कर मेरा "मिश्रा" बना देंगे] इस संस्था को हर प्रकार का वभैव दिलाया, [साहित्यिक उत्कर्ष के अलावा ] उन में डॉ चक्रधर सर्वाधिक बहुमुखी प्रतिभा के धनी है . दूरदर्शन के अधिकारियों से ले कर सब टी वि के अधिकारी भाइयों तक उन्होंने अपने विस्तार के हर राडार का पूरी मेहनत से प्रयोग किया . समय-समय पर जनता से लेकर शीला दीक्षित तक सभी उन की इस चक्रवर्ती चकाचौध की चपेट में आये . पूरी एक भारतीय पीढी उन की चमत्कारिक ,चुटीली तुकांत संवाद शैली को कविता मानते मानते बड़ी हुई है . उस दौर में उन्होंने अपने प्रारंभिक साम्यवादी विचलन की फीस बड़ी मेहनत से चुकाई . जब उन की गद्दी इस थकाऊ उठा पटक के बाद जम गयी तो वे भी उस प्रसाद के आनंद में झपकी लेने लगे . शहर-शहर, देश-देश भागवत जमने लगी.चढावा आने लगा , चेले और भगतिन जुटने लगीं , और मुक्तिबोध पर शोध से शुरू हुआ जनवाद मुक्ति के बोध से पूर्णकाम हो गया . अलबत्ता ताम झाम जमा रहे इस पर मेहनत बदस्तूर जारी रही. यहाँ मंच के सभी कलंदरों को इस हो हल्ले से ये सबक लेना होगा की भाई आखिर क्या कारण है की चालीस साल तक इस चौक में झक मारने के बाद भी साहित्य के होम गार्ड तुम से आज तक तहबाजारी की पर्ची मांग रहे हैं. डॉ चक्रधर के आने से आकादमी में क्या होगा ये तो इस मुक़दमे के पक्षी-विपक्षी जाने, लेकिन इस बहस ने दो प्रवचन-प्रसंग उपलब्ध करा दिए . एक तो इस प्रकार के पदों पर अभिषिक्त होने की पात्रता और उस का चयन-क्रम तथा दूसरा कविता के इन दोनों तटों का निरंतर आत्ममुग्ध और असहिष्णु होता भावः पक्ष.
बात पहली, की इस पीढी की सीढ़ी क्या है. सिद्ध और गिद्ध तो दोनों आज कल दुर्लभ हैं . बीच का ज़माना है . बुद्ध यही चाहते थे "मज्जिम निकाय ". इस निकाय के उपाय भी कुछ ऐसे ही हैं . बालस्वरूप राही जी ने कहा है " यही सत्य है जगती प्रतिभा से डरती है , सत्ता केवल सरल मनुज का ही चुनाव करती है ."ये सरलता बड़ी असहजता से प्राप्त होती है . इसे बनाये रखने के लिए कुछ सामयिक अनुलोम-विलोम तो करने ही पड़ते हैं , हर ज़रूरी बात पर तटस्थ रहने का दुष्कर प्राणायाम भी साधना पड़ता है. श्रीमती इंदिरा गाँधी के आपातकालीन अंकुश ने उस वक़्त तो बहुतेरा कोहराम मचवाया पर कालांतर में विषपायी टोली सब्सिडी की सरकारी वोदका सेवन को ही नीलकंठी चेतना का अंतिम प्रयास मानने लगी .जे एन यू के परिसर से बड़े सवालों में उलझाने वाला एक ऐसा बोद्धिक सर्कस शुरू हुआ ,जिस में सब शेर जंगली से पालतू हो गए. एक आध कोई धूमिल कभी कभी आ कर कान के पास इस संगीत का खालीपन इंगित कर जाता है बस.राम का मंदिर निर्माण हो या "अनहद" का मूर्ख-नाद , पार्षद का चुनावी भाषण हो या इटली वाली बड़ी अम्मा का हिंदी ट्यूशन, इंडिया हबिटेत सेंटर का परम प्रलाप हो या विश्व हिंदी सम्मलेन के लिए अपनी मनरन्जनि मेनकाओं का आरक्षण, पाठ्यक्रमों में अपनी उगल्बंदी की प्रविष्टी हो या संसदीय हिंदी समितियों में घुसपेंठ ,हिंदी के ये महाराणा प्रताप अपने चेतक दोडाये हर संभावित दरबार में कोर्निश मारते मिल ही जाते हैं. और यह हल्दीघाटी पूरे फलक पर फैली है .इस पर तुर्रा यह की हम सरोकार से जुड़े हैं .इस सरोकार में से हिंदी के निरालावादी ओघड्पन का ओ निकल लें तो वो सच में सरकार से ही जुड़े हैं. भाजपा के समय में कविसम्मेलनों के ऐसे अनेक खोखले , गोखले बन गए थे.एक दिवंगत काबिना मंत्री जो की दिल्ली के मुख्यमंत्री भी रहे इस काम में बहुत जी जान से जुटे थे .उन के चारो और ऐसे कई लाल बुझक्कड़ अपनी लालटेन में तेल भरवाने पहुँचते थे .इधर एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ है जो राजनितिक दलों का प्रावदा बनने में कोई नैतिक दिक्कत नहीं समझता ,बल्कि इसे अपनी प्रतिबद्धता कह कर सुविधा का लाभ उठाता रहता है . जिन लोगों को डॉ चक्रधर की नियुक्ति पर आपति है उन्हें इस खेल के मैदान को पूरा समझना पड़ेगा .डॉ चक्रधर स्वधर्मी हैं . उन्होंने अपना हर काम पूरी निष्ठां और त्वदीयता से किया है. मंच से ले कर मंडी हाउस तक वे अपनी प्रस्तुति और प्रक्रति के विपरीत नही गए . जिस का परिणाम है की वो जनता को भी प्रिय हैं और जनार्दन लोग भी उन से प्रसन्न हैं. अब उन का मंचीय पराक्रम आप के लिए होगा हेय .उन्होंने तो उसे साधा है ,इस लिए उस तरह की कविताई पर उन्हें कोई दूसरी सोच परेशान नहीं करती ,पर आप तो आज तक अपनी दुकान का बोर्ड तक भी फाइनल नहीं कर पाए. दलित चिंतन और स्त्री विमर्श ....इन्हें खंगालते रहे और स्त्रैन विमर्श के दलित चिंतन में मिले . अपने कंसीय सम्पादकीय में भाजपा और उस के कुनबे को पी-पी कर कोसने वाले जब उन की ही सरकारों के बडे-बडे विज्ञापन छाप कर अपनी मृत आत्मा का सिगार धुन्धियाये तो उस धुंए में उन की कालिख स्पष्ट उभर आती है . यदि आप तय कर चुके हैं की आप का जीवन मूल्य ऐसा है और आप स्वयं से सहमत है तो यह कमिटमेंट है ,लिकिन यदि आप को अपनी खुराक की बजाय दूसरे की थाली के घी से आपत्ति है तो आप से बड़ा कोई दुर्भाग्यशाली नहीं .डॉ चक्रधर के नियुक्ति प्रसंग में अज-विलाप करने वाली मंडली उन्ही पोंगाओं से भरी है. मैं जनता हूं की कविसम्मेलनिय बिरादरी से होने के कारण अनेक इस लेख में मेरी रणनीति के अजन्मे पेच दूंडगे , लेकिन मुझे फर्क नहीं पड़ता ,क्यूँ की इस व्यवस्था में भी मुझे कभी व्यवस्था स्वीकार करेगी , ऐसा संभव नहीं . हम तो सदा से ही इस गन-परिषद् से बाहर थे और बाहर ही रहेंगे. जिस लालकिले के कविसम्मेलन में सरकारी बुलावे का ख़त इन इन ताकीद्नो से भरा हो की कोई भी चेतना-धर्मी टिप्पणी या कविता मुख से निकलना दूर साथ भी न लाना , वहाँ कभी हमारी जाजम बिछेगी ,इतना भी लोकतंत्र नहीं आया पार्टनर ! अशोक जी और उन की वजह से पैदा हुए सद्यजात "शोक जी " दोनों को मज़ा लेना चाहिए .जो होगा किसी न किसी लिए ठीक ही होगा . जब ठीक न हो तब हल्ला करना अभी से किस अग्यात की प्रस्व पीडा में चिल्ला रहे हो . कोई कहता ही भाई लोगो ने पूरी दुनिया के अपने चिर्कुल गुरुकुल के लिए दो ढाई करोड़ का "बहुभात" जुटाया था , दर है की अशोक जी हडिया गिरा देंगे , इस लिए हल्ला है , कुछ कोई और कारण बता रहे हैं . राम जाने या इन का मार्क्स जाने . हमें तो दोनों ही आज तक नहीं मिले , सो किस से पूछे.

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9 टिप्पणियाँ

  1. साहित्यिक खेमेबाजी बंद होनी चाहिये। चक्रधर हों या डबराल इन पदों पर काम करने वालों की आवश्यकता है किसी खास विचारधारा का ढोलक बजाने वालों की नहीं। हाँ डॉ. विश्वास को व्यंग्य लिखते देख सुखद आश्चर्य हुआ।

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  2. विचारणीय है, चर्चा होनी चाहिये।

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  3. aavshykta nirala ki hai charn bhaton ki nhi vh din kb aayega jb sahity khemebaji se mukt hoga aachary ram chndr shukl ke rhte kisi rajnetako sbhapti bnane ka sahitykaron ne bhrpoor virodh kiya tha or aaj hm un ke aahe bichh jate hainkitan dukhd hai kya vh sthiti kbhi smapt ho payegi
    dr.ved vyathit

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  4. राजनीतिक समझ साहित्य पर हावी है यह सच्चाई भी नजरंदाज नहीं की जानी चाहिये लेकिन साहित्यकार अपनी टांगखींच स्पर्धा से बाज आयें। चाहे मंच के कवि हो चाये "तथाकथित महान समकालीन" गाँठ बाँध लें कि वे इतना "कचरा" हो चुके हैं कि न तो उन्हे कोई पढना चाहता है न सुनना।

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  5. एकतरफा आलेख तो है लेकिन आंशिक सत्य भी है।

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  6. chakradhar ji aaye the hamare yahan.. khed hai kahte huye ki kuch khaas janche nahi...

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  7. सुना है कि कलमकार पहले सोच के सागर में डुबकी लगता है, चिंतनशील और निश्छलता उसके व्यक्तित्व्य के प्रमुख अंग होते है कम से कम इनलोगो से तो यही उम्मीद की जाती है कि ये लोग विचारों के सवतंत्रता को सिर्फ अपनी रचनाओ में ही न दिखाए बल्कि अपने कार्यो में भी परिलक्षित करें. साहित्यकारों के व्यक्तित्व में दोगलापन शोभा नहीं देता. देखने में तो ऐसा भी आया है कि देश के साहित्यिक पुरूस्कार भी राजनीतिज्ञों की चापलूसी करने वाले साहित्यकारों को दे दिए जाते. साहित्य पर राजनीतिक दबाव कोई नई बात नहीं है पर इस समझौते से बेहतर तो त्याग है.....भारत देश में मूल्यों के लिए त्याग करना कोई नई बात नहीं, पर शायद पद लोलुपता या लोकप्रियता प्राप्ति के लिए आज का रचनाकार मूल्यों को भूल चूका है ...

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  8. Bana hai shah ka musahib fire hai itrata, Vagarna is shahar me Ghalib ki Aabaru kya hai.

    Shakti

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