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तुल्ययोगिता में क्रिया, या गुण मिले समान [काव्य का रचना शास्त्र: ३६] - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

जब उपमेयुपमान में, क्रिया साम्य हो मित्र.
तुल्ययोगिता का वहाँ, अंकित हो तब चित्र.

तुल्ययोगिता में क्रिया, या गुण मिले समान.
एक धर्म के हों 'सलिल', उपमेय औ' उपमान..

जिन अलंकारों में क्रिया की समानता का चमत्कारपूर्ण वर्णन होता है, वे क्रिया साम्यमूलक अलंकार कहे जाते हैं. इन्हें पदार्थगत या गम्यौपम्याश्रित अलंकार भी कहा जाता है. इस वर्ग का प्रमुख अलंकार तुल्ययोगिता अलंकार है.

जहाँ प्रस्तुतों और अप्रस्तुतों या उप्मेयों और उपमानों में गुण या क्रिया के आधार पर एक धर्मत्व की स्थापना की जाती है वहाँ पर तुल्ययोगिता अलंकार होता है. यह कई रूपों में देखा जाता है. इस आधार पर इसके चार प्रमुख प्रकार हैं.

१. प्रस्तुतों या उपमेयों की एकधर्मता:

मुख-शशि निरखि चकोर अरु, तनु पानिप लखु मीन.
पद-पंकज देखत भ्रमर, होत नयन रस-लीन..

***

रस पी कै सरोजन ऊपर बैठि दुरेफ़ रचैं बहु सौंरन कों.
निज काम की सिद्धि बिचारि बटोही चलै उठि कै चहुं ओरन को..
सब होत सुखी रघुनाथ कहै जग बीच जहाँ तक जोरन को.
यक सूर उदै के भए दुःख होत चोरन और चकोरन को..

२. अप्रस्तुतों या उपमानों में एकधर्मता:

जी के चंचल चोर सुनि, पीके मीठे बैन.
फीके शुक-पिक वचन ये, जी के लागत हैं न..


***

बलि गई लाल चलि हूजिये निहाल आई हौं लेवाइ कै यतन बहुबंक सों.
बनि आवत देखत ही बानक विशाल बाल जाइ न सराही नेक मेरी मति रंक सों.
अपने करन करतार गुणभरी कहैं रघुनाथ करी ऐसी दूषण के संक सों.
जाकी मुख सुषमा की उपमा से न्यारे भए जड़ता सो कमल कलानिध कलंक सों.


३. जहाँ गुणों की उत्कृष्टा में प्रस्तुत की एकधर्मिता स्थापित हो:

शिवि दधीचि के सम सुयस इसी भूर्ज तरु ने लिया.
जड़ भी हो कर के अहो त्वचा दान इसने दिया..

यहाँ भूर्ज तरु को शिवि तथा दधीचि जैसे महँ व्यक्तियों के समान उत्कृष्ट गुणोंवाला बताया गया है.

४. जहाँ हितू और अहितू दोनों के साथ व्यवहार में एकधर्मता का वर्णन हो:

राम भाव अभिषेक समै जैसा रहा,
वन जाते भी समय सौम्य वैसा रहा.
वर्षा हो या ग्रीष्म सिन्धु रहता वही.
मर्यादा की सदा साक्षिणी है मही..


***

कोऊ काटो क्रोध करि, कै सींचो करि नेह.
बढ़त वृक्ष बबूल को, तऊ दुहुन की देह..

तुल्ययोगिता अलंकार का नाम कम ही सुना जाता है. यह विडम्बना ही है कविता के तत्वों को समझे-जाने बिना ही रचनाकार कविता करने लगते हैं. कुशल कवि-कर्म के लिए भाषा के व्याकरण और पिंगल को जानना अपरिहार्य होता है.

साहित्य शिल्पी पर यह लेखमाला हिंदी काव्य शास्त्र के अछूते पहलुओं को सरलता के साथ प्रस्तुत करने का यह प्रयास संचालकों तथा आप पाठकों के सक्रिय सहयोग बिना संभव नहीं है.

*****
रचनाकार परिचय:-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। वर्तमान में आप अनुविभागीय अधिकारी, मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के रूप में कार्यरत हैं।

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14 टिप्पणियाँ

  1. सलिल जी आपके द्वारा इस बीच बताये गये अनेक अलंकार नये हैं। हम नव लेखक इसे जान सके इसके लिये बहुत बहुत धन्यवाद। आप अपने विद्यार्थियों से नाराज लगते हैं जब कि हम सक्रिय हैं और आपके लेख निरंतर पढ रहे हैं।

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  2. आचार्य जी उदाहरणों का विश्लेषण आवश्यक है अन्यथा इससे हमारे द्वारा अर्थ के अनर्थ समझे जाने की संभावना बढ जाती है।

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  3. अद्भुत जानकारी. आचार्य जी का आभार.

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  4. निस्संदेह दुर्लभ जानकारी। धन्यवाद संजीव जी।

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  5. पुन: यह मेरे लिये एक नया अलंकार है. जिस स्तर का ज्ञान आचार्य संजीव 'सलिल' जी से मिला वह दुर्लभ है। मैं अच्छी विद्यार्थी न सही लेकिन आपकी नीयमित विद्यार्थी हूँ।

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  6. जब उपमेयुपमान में, क्रिया साम्य हो मित्र.
    तुल्ययोगिता का वहाँ, अंकित हो तब चित्र.

    तुल्ययोगिता में क्रिया, या गुण मिले समान.
    एक धर्म के हों 'सलिल', उपमेय औ' उपमान..

    धन्यवाद संजीव जी।

    जवाब देंहटाएं
  7. आचार्य सलिल जी आपकी बात सही है कि हमें उदाहरणों की स्वयं व्याख्या कर के निहित अलंकारों तक पहुँचना चाहिये लेकिन यही काम मुश्किल है।

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  8. आत्मीय मित्रों!

    वन्दे मातरम.

    आप और मैं अर्थात हम इस सारस्वत अनुष्ठान में सहभागी हैं. मुझ विद्यार्थी का उत्साहवर्धन आप सब अपना बहुमूल्य समय देकर कर रहे हैं. आपकी प्रेरणा से मुझे बहुत कुछ सीखने-समझने का अवसर मिल रहा है. मैं आपका आभारी हूँ, नाराज होने का तो प्रश्न ही नहीं है.

    यह सामग्री उपयोगी हो तो आपकी अधिक सहभागिता मुझे सीखने का अधिक अवसर उपलब्ध करा सकेगी. अधिक विस्तार में जाया जा सकता है, अगर अधिक लोगों की अधिक रूचि परिलक्षित हो. मैं आपमें से कुछ के साथ इस अनुष्ठान की जिम्मेदारी बांटना चाहता हूँ, इसलिए नहीं की भागना है, इसलिए कि जो मैं समयाभाव अथवा स्वयं न जानने के कारण नहीं बता पाता वह आप में से कोई अन्यों को बता दे.

    हम सब आभारी हों साहित्य शिल्पी के जिसने हमें यह मंच और यह अवसर उपलब्ध कराया.

    अलंकार चर्चा के समापन के पश्चात् आप किस प्रकरण पर चर्चा करना चाहेंगे? आपके सुझाव मिलने पर अपना मानस बना सकूँगा.

    मैं इस सामग्री को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करना चाहता हूँ. किसी प्रकाशक की रूचि हो तो संपर्क करे.

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  9. स्पष्ट समझा रहे हैं आप. आपके पिछले पोस्टों को इत्मीनान से पढना होगा.

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  10. Salil ji ki...
    Anubhuti ko padte padte kahin kahlipan mein kho jane ka ahsaas hua

    Devi Nangrani

    जवाब देंहटाएं
  11. आचार्यजी और साहित्य शिल्पी को धन्यवाद इस प्रयास के लिए |

    काव्य तत्त्वों - लक्षणा , व्यंजना आदि को भी बताना होगा गुरूजी | सूचि बहुत बड़ी है - काव्य के ऐतिहासिक प्रगति को भी बताया जा सकता है |

    अन्य विधा जैसे - लघु कथा, नाटक आदि पर शुरुवात करें तो कैसा होगा ?

    प्रतीक्षा में,,,

    अवनीश तिवारी

    जवाब देंहटाएं
  12. अवनीश जी!

    आपके सुझावों पर विचार करूँगा. कुछ और अलंकारों की चर्चा के बाद प्रसंग परिवर्तन होगा.

    सुलभ जी!

    सभी पाठक पिछली प्रस्तुतियों पर दृष्टिपात करते रहें तो समझने में सुविधा होगी.

    जवाब देंहटाएं

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