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आओ धूप [वशिता की पहली कहानी "तपते दिन"] संपादन - सूरजप्रकाश

आओ धूप - जब बच्चा अपने जीवन का पहला कदम उठाता है तो हम उसकी डगमगाती और अनसधी चाल को देख उस पर कोई टीका टिप्पणी नहीं करते, न ही किसी मानक चाल से उसकी तुलना करते हैं। हम बच्चे के पहले कदमों के उठने-गिरने के पलों को संजो कर कैमरे में कैद कर लेते हैं और बाद में भी देख-देख कर खुश होते रहते हैं।

आओ धूप में आपको हमारे नये कहानीकारों की पहली कहानी का ऐसा ही आस्वाद मिलेगा। आप जब ये कहानियां पढ़ें तो कहानीकार की पहली कहानी के रूप में ही उसका आनंद लें। जो थोड़ी-बहुत कमियां होंगी, आने वाला वक्त लेखक को उनके बारे में खुद बता देगा। हम आने वाली धूप का स्वा गत करेंगे और रचनाकार की भविष्य में आने वाली बेहतर कहानियों का इंतज़ार करेंगे। मुझे अपनी पहली कहानी लिखने में ही पन्द्रह बरस का लम्बा वक्ते लग गया था। आओ धूप की शुरूआत हम कर रहे हैं अलीगढ़ की वशिता की पहली कहानी तपती धूप से। किसी भी कहानीकार द्वारा मुंबई में पिछले कुछ अरसे से चल रही उत्तार भारतीय विरोधी मुहिम को आधार बनाया गया है। कहानी के बैक ग्राउंड में प्रेम है जिसका निर्वाह लेखिका ने अपनी तरह से करने की कोशिश की है। विषय का चयन ही हमें इस बात से आश्वस्त करता है कि लेखिका आगे चल कर अपनी कहानियों के विषय, ट्रीटमेंट और कहने की शैली में और विविधता ले कर आयेगी।

तो स्वागत है आओ धूप में आप की भी पहली कहानी का।

- सूरज प्रकाश

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तपते दिन [कहानी] - वशिता

पंद्रह दिन बीत गए पर मान्या का कुछ पता नहीं। न तो फोन, न ही मेल का रेस्पान्स। कालेज भी नहीं आ रही। स्टाफ में सुगबुगाहट थी तो बात उसकी समझ से परे थी। आखिर माजरा है क्या! सोचने-बूझने में ही पंद्रह दिन सरक गए। आज इसी बुझी-अनबुझी पहेली की सीढ़ी पर प्रबुद्ध तेज़ी से चढ़ गया और तुरंत उतर भी आया। उसने निश्चय कर लिया, आज कुछ भी हो जाए वह उसके घर जाकर ही पता करेगा, बात है क्या। ऐसे थोड़े ही होता है कि आप अपनी खबर न दें, भले किसी की खबर न लें। ये तो नागवार बात हुई ना।


रचनाकार परिचय:-

सूरज प्रकाश का जन्म १४ मार्च १९५२ को देहरादून में हुआ। आपने विधिवत लेखन १९८७ से आरंभ किया। आपकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं: - अधूरी तस्वीर (कहानी संग्रह) 1992, हादसों के बीच - उपन्यास 1998, देस बिराना - उपन्यास 2002, छूटे हुए घर - कहानी संग्रह 2002, ज़रा संभल के चलो -व्यंग्य संग्रह – 2002। इसके अलावा आपने अंग्रेजी से कई पुस्तकों के अनुवाद भी किये हैं जिनमें ऐन फैंक की डायरी का अनुवाद, चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद, चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद आदि प्रमुख हैं। आपने अनेकों कहानी संग्रहों का संपादन भी किया है। आपको प्राप्त सम्मानों में गुजरात साहित्य अकादमी का सम्मान, महाराष्ट्र अकादमी का सम्मान प्रमुख हैं। आप अंतर्जाल को भी अपनी रचनात्मकता से समृद्ध कर रहे हैं।



उसने कालेज के आवश्यक काम फटाफट निपटाए और फिर सीधे उससे मिलने चल दिया। सड़क पर पहुँच कर टैक्सी ली और ड्राइवर को चर्चगेट चलने के लिए कहा। उसने देखा, ट्रैफिक व्यवस्था और दिनों की तरह ही चाक-चौबंद थी। गाड़ियाँ सर्र से गुज़र जातीं। वह सोचने लगा, कुल मिलाकर लाल-हरी बत्तियों का सारा खेल था जो वे बेहद सफाई से खेलतीं और गाड़ियाँ उनके इर्द-गिर्द, दिन-रात और अविराम नाचती थीं।

प्रबुद्ध ख्यालों की दुनिया में उतर गया। जरूरी नहीं बेहद ज़रूरी था इस व्यवस्था को बनाये रखना, आखिर ये महानगर की दुनिया जो ठहरी; जो दिन-ब-दिन भीड़ का सैलाब लेकर आती है। इसी सैलाब की बदौलत जमीन से सटे मकान अब पच्चीस मंज़िलों की इमारतों में तब्दील होते जा रहे हैं। यहाँ ऐसी आपाधापी मची है कि किसी को किसी से मतलब नहीं है। यदि मतलब है तो औपचारिकता का निर्वाह मात्र।

प्रबुद्ध जल्दी से जल्दी मान्या के फ्लैट पर पहुँच जाना चाहता है और जानना चाहता है वे कारण जो इस बीच दूरी के सबब बन गए थे। उसके और मान्या के बीच कभी ऐसा मौका नहीं आया, जब उनके बीच वार्तालाप या अचानक मिलना बंद हो गया। ऐसा तो कम से कम कतई नहीं कि फोन कॉल्स का भी रेस्पान्स ना मिला हो। यकायक क्या कारण बन गए। वे तो हमेशा ही ऐसे खड़े रहे जैसे एक-दूसरे का साया हों। उन दोनों की खासियत ये थी कि वे चुनौतियों को स्वीकार करने और उनके समक्ष डटने की दृढ़ शक्ति रखते। इसीलिए एक-दूसरे की ओर खींचे चले आए। पर अब मान्या कहाँ मुम हो गई। क्या कोई गम्भीर बात या...। चर्चगेट से विरार की ट्रेन में मुश्किल से बैठने की सीट मिल पायी लेकिन उसके विचारों की लड़ी न टूटी। मुंबई शहर सपनों-आकांक्षाओं और उन्हें पूरा करने का शहर है। छोटा-सा सपना यहाँ पाल-पोसकर विराट बन जाता है। बस इन्हीं सपनों को सजाने सँवारने और पूरा करने लोग यहाँ चले आते है। भीड़-भाड़, कोलाहल, गति ही इसकी पहचान है। आपको यहाँ सब मिलेगा पर सूकून भरा वातावरण नहीं मिलेगा। "ढूंढते रह जाओगे।" यहीं बात चरितार्थ होती है।

इसी शहर से निकलकर, उत्तर दिशा में मीलों दूर, शोर-शराबे से परे जा कर बसी है मान्या्। न कोई आ सके न जा सके।

इसी कालौनी के टू बेड रूम फ्लैट को मान्या ने अपने लिए चुना था। फ्लैट सूबसूरत था। इसमें पीछे की ओर बेहद सुदर लॉन था। फ्लैट सूकून था जो दिल तक उतर जाता था। यानि एक छोटा सा सपना जो हकीकत बनकर जमीं पर उतर गया हो।

फिर भी इसलिए इतनी दूर फ्लैट चुनाना, यहीं सोचकर सारे मित्र अचम्भित थे। दरअसल उसका कालेज भी यहाँ से अच्छा खासा दूर था तो वहीं जान-पहचान वालों से मेल-मुलाकात भी मुश्किल है। इन्हीं विचारों में उलझा प्रबुद्ध उसके फ्लैट पर पहुँच गया।

अक्टूबर की संध्या थी। झुटपुटा हो चला था। सूरज ढलान पर था। आकाश धुंधला और भद्दा हो चला था, शाम और धुएं से। पंछी उन्मुक्त गगन में समूहों में नए-नए करतब दिखाकर लौट रहे थे। सारा वातावरण प्रबुद्ध के दिल सा, बैठा-बैठा हो गया था।

प्रबुद्ध ने कॉलबेल पर उँगली धर दी, तो मिनट भर तक कॉल बेल बजती रही, साथ ही उसकी घबराहट भी बढ़ती गई। तभी मान्या के नौकर ने दरवाजा खोला और उसके प्रश्न दागने से पहले ही लॉन की ओर इशारा कर दिया। वो जानता था प्रबुद्ध का आने का मतंव्य।

ड्राइंग रूम तेज़ी से पार कर प्रबुद्ध लॉन में पहुँचा तो वहाँ का नज़ारा देख कर पल भर को ठिठक गया। उसके पैर जहाँ के तहाँ जमे रह गए। वह और इस हालत में... उसकी बड़ी आँखें उदास, भारी और थकी लग रही थीं। गम्भीरता के बादल उसे चारों ओर से घेरे हुए थे। उसके काले घने केश ज़रा उलझे थे और उनमें नीचे की ओर दो-तीन गांठें पड़ी हुई थीं। किसी ध्यान में मग वह यूं लग रही थी मानों पहाड़ों का ढलता सूरज हो। वह चुपचान बिना आहट उसके समीप वाली कुर्सी पर जा टिका। फिर उसे उसकी जैसी ही तल्लीनता से निहारने लगा।

मान्या अब भी ध्यानमग्न थी। उसे पता ही नहीं चला प्रबुद्ध कब आया। उसकी तंद्रा तब टूटी जब नौकर पानी लेकर आया। उसे अपने नज़दीक पाकर वह विस्मित भाव से पल भर उसे देखती रही और कहा, "तुम कब आ गए प्रबुद्ध! पता ही नहीं चला।"

दिन भर की थकावट को दूर फेंककर मुस्कराते हुए प्रबुद्ध ने कहा, "तुम्हें तो आजकल किसी की आहट भी सुनाई नहीं देती क्यों भाई! किस दुनिया में गुम हो गई हो।" और बड़ी चतुराई से पंद्रह दिन की गुमशुदगी को सवाल में ढाल दिया।

मान्या भीगी सी हँसी हँस दी जो प्रबुद्ध के दिल में कसक पैदा कर गई। उसी हँसी से "तुम कब से किसी से मिल कर जुड़ कर ही आये हो" बालों को सँवारते हुए उसने बुझी आवाज़ में कहा।

प्रबुद्ध संतुष्ट हुआ, चलो सब ठीक है। चुप्पी की बर्फ ऐसे पिघली तो सही। पर यहाँ भी क्षण भर की चुप्पी भी नए शब्द बिम्ब के आयाम स्थापित कर रही थी। इन्हीं बिम्बों से धीरे से उसने एक प्रश्न चुन लिया और मान्या की ओर उछाल दिया। प्रश्न में गूढ़ता थी।

तब मान्या ने नाराज़गी भरे भाव से कहा "तुम ऐसा अज़ीब सवाल कैसे कर सकते हो?" ये कहते समय उसके माथे पर शिकन उभर आई थी। दो पल ठहर कर और गहरी साँस खींच कर, "प्रबुद्ध! क्या जो मैंने सुना, वहीं प्रश्न है; जरा दोहराओगे"

प्रबुद्ध ने मद्धिम मुस्कान बिखेरी, "क्यों नहीं, क्या तुममें संवेदना बाकी रह गई है?" अब मान्या शांत थी। प्रबुद्ध की निगाह मान्या के बुझे हुए चेहरे पर ही टिकी थी। फिर मान्या ने चुप्पी में से निकलकर सवाल साध लिया और कहा, "बाकी से क्या मतलब होता है? मुझमें संवेदना वैसे ही रची-बसी है। जिस तरह शरीर और आत्मा का का सम्बंध होता है। मुझे जान कर भी ऐसा अनजाना-अनमना सवाल करते हो।"

प्रबुद्ध बेहद दृढ़ता से बोला, "जानता हूँ और अच्छी तरह से पर तुमने तो खुद को इन दिनों ऐसे एकांत में बाँध लिया कि मैं क्या सोचता। तुम्हीं बताओ! मेरा ऐसा कहना भी, तुम्हें शायद अच्छा नहीं लग रहा है।" प्रबुद्ध ने सहजता से बात पूरी की।

इस बार मान्या ने हाथ के इशारे से कहा, "नहीं, नहीं, नाराज़गी या बुरा मानने वाली कोई बात नहीं है। मैं तुम्हारी जगह होती तो शायद ऐसा-वैसा ही कुछ सोचती। फिर भी तुमसे या अन्य किसी से ना मिलना या बात न करना संवेदनहीनता कैसे हो गई।" नाराज़गी के भाव से कोसों दूर, बेहद विनम्रता से उसने कहा।

*****

इन्हीं बातों में उलझे प्रबुद्ध से मान्या ने अंदर चलने को कहा तो वह वहाँ से टस से मस नहीं हुआ। शायद वहीं बैठकर बात करना चाह रहा था। फिर मान्या ने ढलते सूरज की ओर इशारा कर दिया। तब वह मुस्करा कर खड़ा हो गया और मान्या से पहले ही ड्राइंगरूम में जाकर सोफे में धंस गया। मान्या उसे वहीं छोड़कर सीधे किचन में घुस गई। प्रबुद्ध हमेशा ही मान्या के हाथ की बनी चाय पीता।

इस समय बातों की गरमी ने विराम की ओर मुँह मोड़ लिया था। दोनों के शब्द खामोश हो चले थे। इस वातावरण में और भी कहे-अनकहे प्रश्न तैर उठे थे जो नया आकाश और विस्तार ढूँढ रहे थे। कमरे में खामोशी थी पर कुछ था जो अनकहा हो कर भी कहे जाने के लिए बेचैन था।

*****

मान्या के पिता प्रभुदयाल घर में सबसे बड़े थे, उनसे छोटे दो भाई और थे। सारा कारोबार वही संभालते थे। पिता के बाद उन्हें सारे कारोबार को बखूबी संभाला और दिन-दूनी रात-चौगुनी उन्नति की। कारोबार के सिलसिले में अक्सर एक शहर से दूसरे में आना-जाना लगा रहा। मुंबई में उनका व्यापार खूब फलता-फूलता गया अन्य शहरों की अपेक्षा। यहाँ पर सब सहज सुलभ भी था। इसी निरंतरता-नियमितता में उन्होंने उत्तर भारत के अपने छोटे शहर को छोड़कर मुंबई में बसने का फैसला कर लिया था। अपने भाइयों को भी यहीं ले आये थे।

जब सब लोग यहाँ आये थे तब मान्या उर्फ मनु चार साल की, बड़ी बेटी आठ साल की और बेटा गोद में था। शिवाजी पार्क के पास एक बड़ा सा फ्लैट उन्हें आसानी से मिल गया था। सभी भाई उसमें रहने लगे। प्रभु दयाल बेहद अनुशासित और जिद्दी किस्म के थे जबकि उनके भाई खुशमिज़ाज और लापरवाह किस्म के थे। प्रभु दयाल जी ने एक बार जो कह दिया सो कह दिया। सभी इनकी छाया में फलते-फूलते गए। बच्चे भी जैसे-जैसे बड़े होते गए उन्हीं के विचार और नीति को अपनाते चले गये। पर जब इसी माहौल में मान्या बड़ी होने लगी तो उसके विचार बदले और चीज़ों के प्रति नज़रिया सबसे अलग होता चला गया। उसे भी पता नहीं चला कि कब उसके जीवन के प्रतिमान बदल गये।

मान्या ही क्या हम में से किसी को भी पता नहीं चल पाता कि हमारे प्रतिमान कब अलग हो गये। क्यों हम कुछ चीज़ों और बातों के प्रति इतने पेजैसिव होते जाते हैं कि वहीं से एग्रेसिव भी बन जाते हैं। शायद कोई देखा-अनदेखा दबाव होता हो जो किसी भी आदेश को मानने से इंकार कर देता है। पर यही होते हैं नये विचारों को नयी दिशा में लेकर जानेवाले कारण।

इस प्रकार बदले प्रतिमानों के वशीभूत और पिता के विरोध के बावजूद मान्या ने विज्ञान से पढ़ाई की और लेक्चरर बन गई। धीरे धीरे उसमें अन्य बातें भी पुख्ता होती गईं और उसे विश्वास से भरपूर बनाती गईं। अपने हिसाब से उसमें समाज और महिलाओं के प्रति अलग दृष्टिकोण बन गया। वह महिलाओं के पक्ष को मुखर ध्वनि देती और हर उस बात के विपक्ष में खड़ी रहती जो महिलाओं को पुरुष से कमतर आँकती हो। अब वह बात चाहें चार-दिवारी के भीतर हो या बाहर, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।

सब ऐसे ही चलता रहा जिस तरह मन का फेर चलता है। इधर मान्या की प्रवृत्ति से मेल खाती कोई ना कोई बात उसके जीवन से जुड़ ही जाती, जो सब परिवालों के लिए विस्फोट के समान होती। ऐसी ही एक बात घर में हो गई जब उसके किसी साथी लेक्चरर से उसके प्रेम संबंधों का पता घर में चला। सारे घर में चुप्पी भय बनकर फैल गई। मान्या, इन सबसे निरपेक्ष बनी रही जितनी अब तक रही। उसके पिता ने ना कुछ कहा ना सुना, बस एक आदेश दिया कि यदि उसे घर में रहना है, तो वह उनकी बातों और तौर तरीकों का अनुसरण करे अन्यथा...।

मेघ अपना रास्ता बदल दें, पहाड़ दरक कर-टूटकर ढह जायें, दिशायें गुनगुनाना छोड़ दें पर मान्या भी अपनी जिद से डिगे, हो ही नहीं सकता। आखिर जिद में अपने पिता की प्रतिमूर्ति जो ठहरी। मान्या ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, बस घर छोड़ दिया ये कहकर कि जब तक पिता तैयार न होंगे वह प्रबुद्ध से शादी नहीं करेगी। यह बात उसने निभाई भी। वे दोनों जिद के ऐसे छोर थे जिनका एक होना नामुमकिन था। दोनों ने किसी की नहीं सुनी और सभी की भावनायें दबकर रह गईं। रिश्तेदार अपनी दुहाई न दें इसलिये उसने रिश्तेदारों से भी तौबा कर ली। एक-दो बार घर गई परन्तु पिता की फब्तियों ने उसके कदम वहाँ जाने से सख्ती से रोक दिये।

अब वह अपनी दुनिया काम, मित्रों और प्रबुद्ध के केंद्र बिन्दु में मग्न थी। उसका और प्रबुद्ध का प्रेम प्रगाढ़ होता चला गया। पर उसने कभी अपनी तय सीमा को नहीं लांघा, भले ही कितना अकेलापन झेला।

विरार में फ्लैट लेने के विचार से जब उसने प्रबुद्ध को अवगत कराया तो उसे कोई ऐतराज नहीं हुआ। मित्र ज़रूर अचम्भित हुए थे। पर इधर पंद्रह दिनों से उसकी कोई खबर नहीं थी इसलिये वह परेशान हो उठा।

फ्लैट बेहद खूबसूरत और व्यवस्थित था। इतर यह था कि इसमें खिड़कियाँ दरवाजों से ज्यादा थीं। खिड़कियाँ दरवाज़ों से ज्यादा, क्या कोई जादू-टोना या टोटका या कुछ और था...। जो भी हो पर मान्या तो इन्हीं खिड़कियों पर बार-बार रुक जाती और वहीं टिका देती अपनी बड़ी शफ्फाक आँखें, जो उस पार से ढूंढ कर कोई भी दृश्य चुन लेतीं जो उसे दिल की तह तक अपूर्व सुकून देता जिसमें वह अपने मन के रंग भर लेती। जब उसने फ्लैट लिया तब सारे मित्र वहाँ आये थे। फिर तो मित्रों का आना-जाना लगा ही रहा। एक दिन उसके फ्लैट पर एक मित्र पहुँचा तो बातों ही बातों में उससे पूछा "आखिर तुमने इस जगह को ही क्यों चुना जो कि कॉलेज से इतनी दूर है कि मिलना-जुलना मुश्किल हो जाता है। फिर ऐसा फ्लैट तो तुम्हें कहीं भी मिल जाता।" वो मित्र की बात को सुनकर मुस्करा कर रह गई। फिर उसने अपनी बात को बेहतर सा जामा पहनाकर कहा "तुम्हें शायद मालूम नहीं मुझे भीड़-भाड़ और शोर शराबा कतई पसंद नहीं है। सब जगह यही सब तो है। वैसे भी हमारे जीवन में एक सुकूनदायक जगह तो होनी ही चाहिये। जहाँ सिर्फ चहकती-फुदकती चिड़ियों का शोर हो जो अन्तर्मन को सुख से भर दें। बाहरी शोर शराबे से इतर"

"...और खिड़कियाँ?"

"खिड़कियाँ" यह कहकर फिर उसने विस्तार से अपनी भावनाओं के विचारों को निरूपित किया। उसने स्पष्टड किया "वास्तव में ये जो खिड़कियाँ होती हैं, हमारे जीवन का हिस्सा ही तो होती हैं। तुम शायद नहीं समझ पाओगे पर मैंने तो खुद को इन्हीं से जाना है।" थोड़ा ठहरकर, "मैं या तुम कोई भी हो सभी को घर में उजाला पसंद है। अब सोचो ये उजाला आयेगा कहाँ से? खिड़कियों से ना। अब तुम सोचोगे इसके अलावा इनमें क्या धरा है। बस यही समझ का फेर है।" विशेष आनंद सा ग्रहण करते हुए और शब्दों को चबाकर "सिर्फ इन्हीं में प्रकाश को आमंत्रण देने की शक्ति है और ये निरंतर प्रकाश को आकृष्ट करती रहती हैं। अब वो रोशनी चाहे सूरज की हो या अन्य किसी माध्यम की...। माध्यम की मध्यस्थता करती है ये खिड़कियाँ।"

उसका मित्र बेहद ध्यान से देख रहा था कि वो बातों को कितने विशिष्ट अंदाज़ में कह रही है। उन बातों में किसी भी तरह का झोल ना था। लोच थी, जय थी और थिरकन जैसे लट्टू तेज़ी से घुमता है। और देखने वाला देखता रह जाए। लट्टू की मनमोहन चाल सी बातें थीं। बातों का सिरा मान्या ने अभी कहाँ छोड़ा था वरन् उसमें जोड़ा था कि, "अल्ल सुबह, जब सूरज की किरणें पेड़ों के झुरमुट को पारकर अठखेलियाँ करती हुई प्रकाश-छाया का खेल खेलती हुई कमरे में प्रवेश करेंगी तब वातावरण की मोहकता का तुम्हें अंदाजा नहीं होगा। सारा कमरा...घर...सब कुछ उल्लाोस पूर्ण हो जाएगा। क्यों ठीक कह रही हूँ ना!" फिर बात के बीच में ही एक सधी नज़र मित्र के मन को टोहते हुये उस पर डाल दी, पर उधर कोई इशारा ना था। फिर भी वो बताती चली गई, "तुम्हें मालूम है? ये प्रकाश कितना ढीठ है? जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तब भी ये खिड़कियों की झिर्रियों से घर में घुस आता है और लगता है मानो कह रहा हो, "मैं आ गया।" सबसे बड़ा करामाती-जादूगर देखो तो! किसी ना किसी रूप में हँसता-मुस्कुराता-गुनगुनाता मिलेगा। नये-नये करतब खाकर इठलाता भी तो है।" स्वयं राय जोड़ते हुए, "वैसे भी प्रत्येक इंसान में कोई ना कोई सनकीपन तो होना ही चाहिये। भले वो इस तरह हो। बताइये। कितना कुछ मिल रहा है आपको रोशनी, ऊर्जा आशा और गति। मैं इसलिये यहाँ आकर खुश हूँ। उसका संवेदनाओं और संतोष से भरा चेहरा चमक उभरा था।

इतनी बात वो भी इतना घुमा फिरा कर की। उसका मित्र जो शायद उकता गया था या संक्षिप्त का प्रमाण दिया, बात समझ से परे थी। बस उसने इतना भर कहा, "ये कहो ना, तुम्हें प्रकृति का सामीप्य पसंद है।"

"हाँ, बिल्कुल! शायद तुम उकता गये हो क्यों?" इतना कहकर वो उन्मुक्त भाव से हँस दी, जैसे प्रकृति उन्मुक्त है।
मित्र थोड़ा सा झेंपा, फिर मुस्कराकर रह गया था।

******

समय आज फिर उसी जगह आकर ठहर गया था। लेकिन प्रश्न ज़रा अलग था कि वह एकांत में क्या ढूंढ़ रही है? पर आज कोई मित्र नहीं स्वयं प्रबुद्ध था जो किसी प्रकृति के कैनवास पर नहीं, इस लुका-छिपी के दिनों पर सार्थक बात करना चाहता है। ऐसे क्या कारण बन गये। क्यों, वह प्रबुद्ध से भी कट गई जैसे नदी अपने तट से कट जाती है। या तो उसका इरादा कहीं और रुख करने का था या वह हौले-हौले सूख जाना चाहती थी। ऐसी गम्भीरता, ऐसा परिवर्तन, ऐसा क्या रीत-बीत गया। वो तो ऐसी नहीं थी।

तभी चाय लेकर मान्या आयी। प्रबुद्ध ने वही पुरानी खुशबू महसूस की। प्रबुद्ध ने चाय की ट्रे मान्या से लेकर मेज़ पर रख दी और अपने नजदीक बैठाकर पूछा, "मुझे मेरे प्रश्न का जवाब क्यों नहीं मिला?"

मान्या हल्का सा मुस्करा गई और प्रश्न को थाम लिया। इसलिये चीनी की मात्रा को जानते हुए भी जानबूझकर पूछा था। फिर उसने कहा था, "प्रबुद्ध तुम मानो या ना मानो पर एकांत के भी कई पर्याय होते हैं। वे होते भी व्यामख्याद से परे हैं। हम उन्हें अपने भीतर ही महसूस करते हैं, वे पल हमें नितांत नैसर्गिक आनंद से भर देते हैं। मेरे मन की तलहटी को छूकर निर्विकार हो जाते हैं।" फिर वह चुप हो गई।

प्रबुद्ध ने उसकी चुप्पी पर हल्का सा वार किया।

"अच्छा यह बात है।" चाय की चुस्की लेकर प्रबुद्ध ने हल्के अंदाज में कहा। फिर उसने कप को हथेली पर यूँ थाम लिया मानो कप के बहाने अपनी बात नाप रहा हो और कहा, "तुम एकांत के कितने भी अर्थ दो, पर यह भी सत्य है कि ये बैड...फ्रिज...सोफा...कालीन...रोशनी...खिड़कियाँ, बस यहीं सुकून होता है तो बिल्कुल गलत। सुकून तो तब होता है जब दो प्राणी संग हों भले वे किसी भी रिश्ते में बँधे हों।" गहरी साँस खींचकर, "मैं मानता हूँ, ये एकांत तभी सार्थक होता है, जब दो लोग परस्पर साथ होते हैं, हर तरह से...।" प्रबुद्ध ने इतना कहकर तेज़ी से सोच का टुकड़ा कमरे में उछाल दिया था।

इस तरह कमरे में सवाल-जवाब के तिलिस्म बन गये। जो रोशनी-अँधेरे में लिपटे पड़े थे। कोशिश जारी थी पर जवाब नहीं मिलता, प्रश्न तैयार हो जाता। प्रबुद्ध मान्या से बात कर रहा था, तब उसे महसूस हुआ कि वह कहीं उलझ गई है; जो किसी गहरी संवेदना का छोर है। और वहीं उसके दिल में भीतर तक कुछ चुभ गया है। उसे वहाँ से खींचकर लाना बेहद जरूरी है। कैसे भी और किसी भी तरह...। संवेदनापूर्ण होना अच्छी बात है पर अतिरेक तो हर बात का बुरा है। उसने एक सवाल और दाग दिया, "आखिर तुम मुझे क्यूँ नहीं बताती कि बात क्या है? और तुम इतना थकी और परेशान क्यों लग रही हो? चेहरे की रंगत उड़ी हुई है, आँखें क्या खोज रही हैं; सूकून के बाद भी।"

इस प्रश्न ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था वो लगभग उसी जगह पहुँच गया जहाँ मान्या ठहर गई थी।

अब मान्या उठकर खिड़की पर जा खड़ी हुई, जिन्हें उसने बेहद शिद्दत से चुना था। वहीं पर खड़े रहकर उसने सोच को बिन्दु चुन लिया और कहा, "प्रबुद्ध ! तुम जानते हो ना, ना मैं कोई चित्रकार, ना रचनाकार, और तो और गवंई सी कुम्हारिन भी नहीं जो अनगढ़ को गढ़ दे। बस जो भी जो व्याख्या से परे है, मेरी संवेदनाओं पर निरंतर प्रहार कर रहा है। मैं उन कही-अनकही परिस्थितियों के प्रश्नों के जंजाल से परेशान हूँ। जो बार-बार मेरी और बढ़ जाते हैं जिनमें मैं खुद को दबा महसूस करती हूँ। और जब-तब ये प्रश्न नित नये स्वांग भरकर मेरे चारों तरफ नाचने लगते हैं। फिर मैं कुछ भी नहीं कर पाती हूँ।" उसने नि:श्वास छोड़कर ये बात कही जिसमें दर्द भी छलक उठा था।

प्रबुद्ध के सवाल और उसका अपनापन था कि मान्या ने उसे बेरहम दिनों के बारे में विस्तार से बताया जिसने उसका बहुत कुछ छीन लिया और उसे ताउम्र का दर्द दे दिया। जो उसने बताया वो सिर्फ उसका नहीं इस महानगर में बसने वाले एक तिहाई लोगों का सत्य है। उनका सत्य जिन्होंने इस शहर को सजाया-संवारा है।

इस शहर में जब-तब उत्तर भारतीयों का मुद्दा उछल जाता है। क्या उत्तर भारतीय मुंबई के प्रति मराठियों से ज्यादा संवेदनशील और वफादार हैं? यदि हाँ तब भी, यदि नहीं तब भी इसका फैसला शहर के चन्द ठेकेदार ही करेंगे। और वही सर्वमान्य होगा बरना तो बस, वरना है...। फिर ये ठेकेदार आहवान करते हैं और सारे के सारे एक ओर इकट्ठा होकर चलने लगते हैं फिर धीरे-धीरे फैलकर सारे शहर को अपनी चपेट में ले लेते हैं। बददिमागी का प्रकोप फैलता चला जाता है, और मारपीट, तोड़-फोड़ में तब्दील होता जाता है। माहौल बिगड़ता चला गया और कितने लोग इसकी चपेट में आ गये।

इसी माहौल में एक रोज मेरे पिता और भाई भी काम पर चले तो गजब हो गया। उनकी कार को बीच में ही घेर लिया गया और वहीं राते में उन दोनों से मारपीट की गयी। पिटाई ऐसी थी कि उसके पिता झेल ही नहीं पाये और अस्पताल में दो-तीन बाद ही हम तोड़ दिया। इतना भर होता तो खैर थी उन्होंने तो परिवार वालों को भी निशाना बनाया। हमारा जीना हराम कर दिया गया।

यही हालात जो पंद्रह दिन के भीतर बन गये और उसे भावनात्मक चोट पहुँचा रहे थे। ये हालात प्रश्न बनकर दंश के समान मेरे दिल में चुभन पैदा कर रहे थे। इन्हीं दंशों की चुभन मुझे किसी से मिलने की अनुमति नहीं दे रही थी। अपने ही शहर में मैं खुद को और अपने परिवार को ठगा महसूस कर रही थी।

प्रबुद्ध को जब यह पता चला तो उसे लगा सारे कमरे में धुंध भर गई है, जो उसकी और मान्या की आँखों में चुभ रही है, इसलिये उन दोनों की आँखों की कोर भीग गई हैं। पल भर को उसे लगा उसके सिर से आकाश और पैरों के नीचे से ज़मीन सरक गई है।

"अब...।" यह वाक्य प्रबुद्ध के मुँह से अनायास निकल पड़ा।

"अब...। अब क्या प्रबुद्ध! अब तो इस छिड़ी लड़ाई को अंजाम देना है।"

फिर कमरे में खामोशी छा गई। जिसमें पहली खामोशी से ज्यादा अंतर था। क्योंकि यहाँ चिंता ने पैर-पसार लिये थे। मान्या ने बुझे स्वर में बात शुरू की जो उसकी व्यथित मन की परत को खोल रहे थे। जिससे विचारों का अंतर्द्वन्द धीरे-धीरे खुलने लगा था। मान्या ने कहा - "प्रबुद्ध! ये मुंबई शहर कितना बड़ा और विशाल है, पर यहाँ के लोगों का मन कितना छोटा है। कैसे मतलबपरस्त और भावना रहित इंसान हैं। यहाँ इतना कुछ होता है पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते हैं। दूसरे शहर के लोग सब जानते-समझते हैं फिर भी अपनी जगह से पलायन कर यहाँ चले आते हैं। क्यों? जबकि जीवन भर उन्हें उसी जगह का ताना दिया जाता है। वे जानते नहीं हैं कि इस शहर में पक्षियों को तो बैठने को जगह मयस्सर नहीं, उड़ने को स्वच्छ, उन्मुक्त आकाश नहीं है। यदि कुछ है तो आदमी की इच्छओं सी फैली ऊँची अट्टालिकायें हैं, जिन से पंछी टकराकर लहूलुहान हो जाते हैं। क्या आदमी क्या आदमी की बिसात है।" सच ही कह रही थी मान्या। और फिर पहले तो यह शहर लालच दे दे कर लोगों को अपने भीतर समा लेता है। बाद में उन्हें चिन्हित करता है मानो वे कोई गुंडे हों। ये भी हमारे जीवन का संसार है, जो सिर्फ भटकता-भटकाता है।

और जो हम देखना-सुनना नहीं चाहते, मान्या ने आज उन्हीं अचीन्हें चिन्हों को चिन्हित किया था। जहाँ पर उसका परिवार दु:ख में डूब गया था। जो उसने बताया अक्षरश: नहीं पर सत्य था। जब वह प्रबुद्ध से बात कर रही थी तो लग रहा था मानों उलझी सी उसकी आवाज़ कहीं दूर से आ रही हो। खिड़की से बाहर की ओर इशारा करके जहाँ कोई इमारत गर्वीली मुस्कान से खड़ी थी उसने कहा "देखो! इन इमारतों के सपने इन्हीं पर स्वांग बनकर नाच रहे हैं। हमारा हिस्सा, हमारा किस्सा' बस चारों और यहीं चिल्लपों मची हुई है। जबकि हम उत्तर भारतीय इस शहर को सजाने-सँवारने में कितना योगदान देते हैं, इसे अपनाकर इसमें समाहित हो जाते हैं। फिर सब भूल जाते हैं। आज जिस तरक्की को सेज, शापिंग मॉल और सॉफ्टवेयर बेचने व खरीदने से जोड़ा जा रहा है, वह हमारी भी मेहनत और लगन का परिणाम है। चन्द लोग इसी तरक्की पर खड़े होकर नंगा-नाच, नाच रहे हैं। इन्हीं लोगों ने यहाँ प्रकाश का कोई पुंज और सांमजस्य की गुंजाइश नहीं छोड़ रखी है। अब तो यहाँ गूँजती है सिर्फ जुलूस... नारों की आवाज़ें... जो हृदय के दरवाजे पर थाप कर अनुगूँज बन जाती हैं फिर हमें कचोटती-खसोटती हैं। ये आवाज़ रात में फैली अपरिचित निशब्दंता को चीरकर रख देती है। मैं तो ये आवाज अब भी सुन सकती हूँ।" ये कहते हुए उसने कानों पर हाथ रख लिये थे।

फिर, यहां विरार में फ्लैट ले लिया था कि यहाँ शांति-सूकून मिलेगा पर नहीं, इन लोगों ने तो सारे शहर को क्या उसके आस-पास भी कब्जा कर लेना चाहती है। यहीं लोग मिलकर क्षेत्रवाद की तुच्छ मानसिकता फैला रहे हैं और जो बची-खुची भावनायें हैं, उन्हें खंड़हर में तब्दील कर देना चाहते हैं।" अब उसकी धीमी बुझी आवाज़ में आक्रोश परिलक्षित होने लगा था।

प्रबुद्ध पूरे मनोयोग से उसकी बातें सुन रहा था। उसके चेहरे पर भी मान्या जैसे उतरते-चढ़ते भाव उपज रहे थे। ऐसा भी लग रहा था मानो वह किसी विश्लेषण में लगा हो। पर मान्या की बात जारी थी उसने पुकारने जैसे भाव से कहा, "प्रबुद्ध! क्या तुमने टी.वी. पर नहीं देखा, कैसे वो ड्राइवरों को लात घूसों से मार रहे थे। रेल गाड़ियों में तो ऐसे कहर बरपा रहे थे जिस तरह जालिम जमींदार अपनी रियाया को पीट रहा हो। कानून नहीं है क्या? मुंबई को सांमतवादी युग में धकेल रहे हैं, कैसी घृणा होती है? ऐसा माहौल बना दिया कि उसकी भट्टी में सब तप और झुलस रहे हैं।"

मेज़ पर चाय के खाली प्याले दोनों का मुँह ताक रहे थे। कमरे का रंग उड़ गया था। दीवारें शर्मशार थीं। तभी कमरे में निराशा भरा अँधेरा भर गया था। पर प्रबुद्ध बात के शुरू में जिस असंमजस में था उससे निकल आया था। वह उठकर मान्या के पास गया और उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। फिर उसने कहा "ऐसी जगह आकर बेहद मुश्किल हो जाती है। पर करें क्या। हमारे देश का तो लोकतंत्र ही ऐसा है। सब अपनी बात कह सकते हैं पर उस बात के गलत अंदेशे से अनज़ान होते हैं या तो उन्हें अंदाज़ा नहीं होता या वह जानबूझकर, राजनीति खेल-खेलकर ऐसा करते हैं। जो भी हो वे खाइयाँ तो ऐसी बना देते हैं कि जो बमुश्किल भर पाती हैं। यदि भर भी जायें तब कहीं ना कहीं सुराख रह जाते हैं जो मौका पाकर फिर खाई बन जाते हैं। ये दु:खद है, साथ ही असहनीय भी, और इससे दुनिया भर में शहर की छवि भी खराब होती है।"

मुझे तनिक भी अंदाजा नहीं था तुम्हारे परिवार के साथ यह सब घटित होगा। आखिरकार उन्होंने इस शहर को बहुत कुछ दिया। शहर ने भी उन्हें खूब शोहरत, मान-सम्मान दिया। अफसोस! सब इस तरह छीन भी लिया।" इस बार मान्या के हाथ को ज़रा थपथपाकर, "मैं और तुमसे जाने कितने जानते-मानते है कि ये लोग कितना गलत और घृणास्पद काम कर रहे हैं। हम देश के किसी भी कोने में नहीं रह सकते हैं। क्या ये हमारा मौलिक अधिकार नहीं है। इन ठेकेदारों ने तो सारी सीमायें ही पार कर दी हैं।" प्रबुद्ध ने गहरी साँस खींचकर कहा।

मान्या अब सोफे पर आकर बैठ गई और प्रबुद्ध से बात कर खुद को हल्का भी महसूस कर रही थी। अब उसे एक और प्रतिक्रिया का इन्तज़ार था कि क्या मराठी होकर भी प्रबुद्ध उसका हर फैसले में साथ देगा। वह यह बात कहने के लिये शब्द ढूँढ रही थी। तभी - "मान्या क्या इरादे हैं? मेरे लिये नहीं भई! इस घटना के विरोध में खड़े होने के लिये।" प्रबुद्ध गम्भीर भाव से।

मान्या ज़रा सकपकाकर और चेहरा शिथिल करते हुए, मानो उसकी चोरी पकड़ी गई हो। फिर - "इरादे बहुत हैं, पर क्या तुम साथ दोगे?"

मान्या के और कुछ भी कहने से पहले ही प्रबुद्ध, "तो तुमने भी मुझे इतना ही समझा है।"

विश्वास से भरपूर मुस्कराहट दोनों और फैल गई थी।

"प्रबुद्ध! मैं सोचती हूँ कोर्ट केस कर दें। पहली और कुछ हद तक यहीं लगाम लग जाएगी।"

"दूसरी लगाम?"

"तुम बताओ ना!" मान्या

"दूसरी लगाम में हम माहौल को सामाजिक और न्यायिक तौर पर उनके प्रतिकूल बना देंगे। इतना कि वे सारी परिस्थितियों को सह नहीं पायेंगे। बल्कि इससे कतरायेंगे। इनकी गंदी और ओच्छी मानसिकता को इस तरह कुचल कर रखना है कि ये फन बार-बार ना उठायें।" इस बार प्रबुद्ध था।

"ठीक कह रहे हो, प्रबुद्ध। कैसे अजीब लोग हैं। देश की प्राथमिकताओं की बात नहीं करते हैं। क्षेत्रवाद का झूठा-ढ़ोल पीट रहे हैं। ये लोग देश को तरक्की नहीं करने देंगे।" मान्या सहजता से।

राहत से भरी साँस फैल-सिकुड़ रही थी। आक्रोश दब रहा था, और सहजता बन रही थी। एक भाव उपज रहा था जिससे एक-एक बिन्दु जुड़कर आकृति बन रही थी, जो इस देश की कानून व्यवस्था को जगाने को थी। लेकिन अब बेचैनी और टूटन कहीं नहीं थी।

रात गहराने लगी तो प्रबुद्ध ने कल मिलने का वादा किया और फिर मान्या को बाहों में लेकर कहा, "मान्या! मुझे तुमसे यहीं उम्मीद थी कि तुम परेशान हो जाओगी पर हार नहीं मानोगी।"

चलते हुए प्रबुद्ध का हाथ मान्या ने पकड़ लिया और कहा, "पापा, शादी की अनुमति दे गये हैं।" ये कहते समय ऐसा लगा जैसे मान्या ने कोई दर्द का टुकड़ा पी लिया हो।

प्रबुद्ध ने उसे और तेज़ी से बाँहों में कसा और अपना पूरा विश्वास मान्या तक पहुंच जाने दिया

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12 टिप्पणियाँ

  1. आओ धूप स्वाग्सत योग्य प्रयास है। अपनी पहली कहानी भी भेजूंगा।

    वशिता जी की पहली ही कहानी सशक्त है, उनसे भविष्य में अत्यधिक अपेक्षायें की जा सकती है।

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  2. Nice approach and a good story.

    Alok Kataria

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  3. हम जिसे समाज कहते है आज वही विकास में रोड़ा बना बैठा है मनुष्य के द्वारा बनाया गया यह संगठन आज उसे ही एक अलग दृष्टिकोण से जीने को बाध्य करता है..

    बढ़िया कहानी मान्या और प्रबुद्ध दोनों पात्रों काफ़ी सशक्त किरदार...शुभकामनाएँ!!!

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  4. कहानी संवादों के माध्यम से अपनी बात कहने में सफल है यद्यपि और रोचक बनाये जाने की संभावना कहानी में अंतर्निहित है। पहली कहानी होने के कारण इसे अत्यंत प्रसंशनीय की श्रेणी में रखना होगा। कथापार अपार क्षमतावान है।

    इस श्रंखला का आभार।

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  5. कहानी संवादों के माध्यम से अपनी बात कहने में सफल है यद्यपि और रोचक बनाये जाने की संभावना कहानी में अंतर्निहित है। पहली कहानी होने के कारण इसे अत्यंत प्रसंशनीय की श्रेणी में रखना होगा। कथापार अपार क्षमतावान है।

    इस श्रंखला का आभार।

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  6. गंभीर विषय पर गहरी अंतर्दृष्टि, कौन कहेगा यह पहली कहानी है?

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  7. पहली कहानी कच्ची मिट्टी सी होती है उसकी खुशबू ही मन में उतर जाती है। वशिता जी बधाई।

    यह सतंभ साहित्य शिल्पी में एक और मील का पत्थर सिद्ध होगा।

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  8. आओ धूप में सभी नये कथाकारों का स्‍वागत है। आपकी पहली कहानी साहित्‍यशिल्‍पी के पाठकों तक पहुंचे और उनकी सार्थक टिप्‍प्‍पणी आगे के आपके लेखन में राह बेहतर बनाने में भुमिका निभाए, इससे बढ़ कर खुशी हमारे लिए क्‍या होगी। कहानी इस पते पर भेजें kathaakar@gmail.com सूरज प्रकाश

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  9. धूप के इस सिलसिले के लिए हार्दिक बधाई. सूरज प्रकश की कहनियन मन के मंथन के बाद अपनी एक छवि की छाप मानव तट पर छोड़ जाती है और आगे बदने का प्रयास भी प्रदान करती है. बहुत ही सुंदर शब्दों की परिभाषा में!!!

    अक्टूबर की संध्या थी। झुटपुटा हो चला था। सूरज ढलान पर था। आकाश धुंधला और भद्दा हो चला था, शाम और धुएं से। पंछी उन्मुक्त गगन में समूहों में नए-नए करतब दिखाकर लौट रहे थे। सारा वातावरण प्रबुद्ध के दिल सा, बैठा-बैठा हो गया था।


    अक्टूबर की संध्या थी। झुटपुटा हो चला था। सूरज ढलान पर था। आकाश धुंधला और भद्दा हो चला था, शाम और धुएं से। पंछी उन्मुक्त गगन में समूहों में नए-नए करतब दिखाकर लौट रहे थे। सारा वातावरण प्रबुद्ध के दिल सा, बैठा-बैठा हो गया था।
    देवी नागरानी

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  10. गंभीर विषय पर सशक्त कहानी है। सूरज जी आओ धूप स्तंभ के सम्पादन के लिये आभार; हमें और भी अच्छी कहानियों के प्रस्तुतिकरण की प्रतीक्षा है।

    जवाब देंहटाएं
  11. बशिता, आप की पहली कहानी ही बहुत सशक्त है, बधाई.

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