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अख़बारवाला मूर्ति [लघुकथा] - देवी नागरानी

हाँ यह वही तो है जो 35 साल पहले मेरे नये घर का दरवाजा खटखटाकर, सवाली आँखों से, शिष्टाचार के साथ खड़ा था। दरवाजा खोलते हुए पूछा था मैंने भी सवाली आँखों से बिना कुछ कहे।

"मैं अख़बार लाता हूँ, पूरी कॉलोनी के लिये। आप को भी चाहिए तो बता दीजिए?"

"अरे बहुत अच्छा किया कल इतवार है और हर इतवार को हमारा सिंधी अख़बार 'हिंदवासी' आता है जो ज़रूर मुझे दीजिएगा"
रचनाकार परिचय:-
11 मई 1949 को कराची (पाकिस्तान) में जन्मीं देवी नागरानी हिन्दी साहित्य जगत में एक सुपरिचित नाम हैं। आप की अब तक प्रकाशित पुस्तकों में "ग़म में भीगी खुशी" (सिंधी गज़ल संग्रह 2004), "उड़ जा पँछी" (सिंधी भजन संग्रह 2007) और "चराग़े-दिल" (हिंदी गज़ल संग्रह 2007) शामिल हैं। इसके अतिरिक्त कई कहानियाँ, गज़लें, गीत आदि राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आप वर्तमान में न्यू जर्सी (यू.एस.ए.) में एक शिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं।.....

"अच्छा" कहकर वह यह कहते हुए सीढियाँ उतरने लगा "पाँच रुपए का है वो" और अपनी तेज़ रफ़्तार से वह दो मज़िल उतर गया। 1973 की बात आयी आई गई हो गयी, हर दिन, हर घर को,कई साल बीतने के बाद भी बिना नागे वह अख़बार पहुंचाता है, और मैं पढ़ती रही हूँ, दूर दूर तक की ख़बरें। शायद अख़बार न होता तो हम कितने अनजान रह जाते समाचारों से, शायद इस ज़माने की भागती जिंदगी से उतना बेहतर न जुड़ पाते। अपने आस पास के हाल चाल से बखूबी वाकिफ़ करता है यह अख़बार।

पिछले दो साल में लगातार अपनी रसोई घर की खिड़की से सुबह सात बजे चाय बनाते हए देखती हूँ 'मूर्ति' को, यही नाम है उसका। बेटी C.A करके बिदा हो गयी है, बेटा बैंक में नौकरी करता है, और मूर्ति साइकल पर अख़बार के बंडल लादे, उसे चलता है, एक घर से दूसरे घर में पहुंचाता है, जाने, दिन में कितनी सीडि़या चढ़ता उतरता है। एक बात है अब उसकी रफ़्तार पहले सी नहीं। एक टाँग भी थोड़ी लड़खड़ाने लगी है। 35 साल कोई छोटा अरसा तो नहीं, मशीन के पुर्ज़े भी ढीले पढ़ जाते है, बदले जाते है,पर इंसानी मशीन उफ़! एक अनचाही पीड़ा की ल़हर सिहरन बन कर सीने से उतरती है और पूरे वेग से शरीर में फैल जाती है। वही 'मूर्ति' अब अख़बार के साथ, खुद को ढोने का आदी हो गया है, थोड़ा देर से ही, पर अख़बार पहुंचाता है, दरवाजे की कुण्डी में टाँग जाता है। जिस दौर से वह अख़बार वाला गुज़रा है, वह दौर हम पढ़ने वाले भी जीकर आए है उन अख़बारों को पढ़ते पढ़ते। पर पिछले दो साल से उस इंसान को, उसके चेहरे की जर्जराती लकीरों को, उसकी सुस्त चाल को पढ़ती हूँ यह तो आप बीती है, आईने के सामने रूबरू होते है पर कहा खुद को भी देख पाते हैं, पहचान पाते हैं। बस वक़्त मुस्कुराता रहता है हमारी जवानी को जाते हुए और बुढ़ापे को आते हुए देखकर।

और मैं वहीं चाय का कप हाथ में लेकर सोचती हूँ, क्या यही जिंदगी है्? हाँ अजब है यह जिंदगी, खुद तो जीती है, पर वो हुनर उस अख़बरवाले मूर्ति को न सिखा पाई। उससे आज भी बोझ उठवाती है, उसकी कंपकपाते हड्डयों पर ज़्यादा बोझ डलवाती है, घरों की मंज़िलों तक का सफर तय करवाती है और धीरे धीरे वह दिखाई देता है मेरी खिड़की के सामने वाली सीड़ी से उतरता हुआ अख़बार वाला मूर्ति, जिसकी जिंदगी को हम शायद पल दो पल रुककर अख़बार के पन्नों की तरह कभी पढ़ न पाए। मैने पीछे पलटते हुए देखा है, इन अख़बारों को रद्दी में जाते हुए, आदमी पुराना फिर भी रोज़ नया अख़बार ले आता है।

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15 टिप्पणियाँ

  1. लघुकथा का सबसे संवेदनशील पहलू है - आदमी पुराना फिर भी नया अखबार ले कर आता है।

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  2. बदलते समय को और उससे जुडी मनोभावना को प्रस्तुत करती सषक्त कहानी।

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  3. "हाँ अजब है यह जिंदगी, खुद तो जीती है, पर वो हुनर उस अख़बरवाले मूर्ति को न सिखा पाई। उससे आज भी बोझ उठवाती है, उसकी कंपकपाते हड्डयों पर ज़्यादा बोझ डलवाती है, घरों की मंज़िलों तक का सफर तय करवाती है और धीरे धीरे वह दिखाई देता है मेरी खिड़की के सामने वाली सीड़ी से उतरता हुआ अख़बार वाला मूर्ति, जिसकी जिंदगी को हम शायद पल दो पल रुककर अख़बार के पन्नों की तरह कभी पढ़ न पाए। मैने पीछे पलटते हुए देखा है, इन अख़बारों को रद्दी में जाते हुए, आदमी पुराना फिर भी रोज़ नया अख़बार ले आता है।"

    प्रभावी प्रस्तुति।

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  4. आदरणीय देवी नागरानी जी वर्तमान का सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रस्तुत कहानी नये और पुराने के जिन बदलते प्रतिमानों को प्रस्तुत करती है वह गंभीर सवाल खडे करती है। कहानी संवेदनशील है और याद रह जाने वाली है।

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  5. क्या यही जिंदगी है्?


    बहुत भावपूर्ण कथा...हाँ, शायद!!! यही कह सकते हैं!!

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  6. नागरानी जी की कहानियाँ वैसी ही बहुत अच्छी होती है। समय के साथ बदलते हुए मनोभाव की इतनी सुन्दर लघुकथा पढ़ कर मन प्रसन्न हो गया।

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  7. jindgi ko dho rha hai aadmi
    jindgi khud aadmi ko dho rhi
    bojh ko sr se utara kya hua
    bolh jb utrega mn se to rhi

    kon dega shara us hath ko
    jo shara tha kbhi sb ke liye
    aao thame aaj hm us hath ko
    jo bdha tha pyaar se sb ke liye
    bdhai
    dr.ved vyathit

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  8. DEVI NANGRANI KEE EK AUR SASHAKT
    KAHANI.KAHANI APNA POORA PRABHAAV
    CHHODTEE HAI.BADHAEE.

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  9. देवी दीदी,
    सशक्त , भाव पूर्ण लघु कथा
    बधाई..

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  10. देवी नागरानी को अब तक पढ़ा नहीं था। आज पहली बार पढ़ा और उनका कहानी कहने का ढंग पसंद आया। इस मंच से उनकी और भी रचनायें पढ़ने की इच्छा है।

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  11. बहुत ही सही लिखा है, कहानी की जड़ से वाकिफ होकर वेद व्यथित जी
    kon dega shara us hath ko
    jo shara tha kbhi sb ke liye
    aao thame aaj hm us hath ko
    jo bdha tha pyaar se sb ke liye
    साहित्य एक सकारात्मक जोड़ने वाला पुल बन गया है..जहाँ अपने विचार अभिव्यक्त करने की आज़ादी मिलती है और साहित्य शिल्पी की मैं आभारी हूँ इस प्रस्तावन के लिए. सभी टिप्पणी प्रस्तुतकर ध्नायाव्वाद के पत्र हैं और रहेंगे.
    सादर
    देवी नागरानी

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  12. कहानी सोचने को बाध्य करती है; कहानी इशारा करती है कि जो वर्तमान को सुखद देखने के लिये जीवन समर्पित कर देते हैं सारा जीवन रिक्त ही बिता देते एह प्रवृति आम है। देवी नागरानी जी का साहित्य शिल्पी पर आर्दिक स्वागत।

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  13. प्रभावी हृदयस्पर्शी लघुकथा।

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