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अलंकार दृष्टान्त को जानें, लें आनंद [काव्य का रचना शास्त्र: ३९] - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'


अलंकार दृष्टान्त को, जानें-लें आनंद|
भाव बिम्ब-प्रतिबिम्ब का, पा सार्थक हो छंद||

जब पहले एक बात कहकर फिर उससे मिलती-जुलती दूसरी बात, पहली बात पहली बात के उदहारण के रूप में कही जाये अथवा दो वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो तब वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है|
उदाहरण:
१.
सिव औरंगहि जिति सकै, और न राजा-राव|
हत्थी-मत्थ पर सिंह बिनु, आन न घालै घाव||

रचनाकार परिचय:-

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि।

वर्तमान में आप अनुविभागीय अधिकारी मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के रूप में कार्यरत हैं।
यहाँ पहले एक बात कही गयी है कि शिवाजी ही औरंगजेब को जीत सकते हैं अन्य राजा- राव नहीं| फिर उदाहरण के रूप में पहली बात से मिलती-जुलती दूसरी बात कही गयी है कि सिंह के अतिरिक्त और कोई हाथी के माथे पर घाव नहीं कर सकता|
२.
सुख-दुःख के मधुर मिलन से,
यह जीवन हो परिपूरन|
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि में ओझल हो घन||

३.
पगीं प्रेम नन्द लाल के, हमें न भावत भोग|
मधुप राजपद पाइ कै, भीख न माँगत लोग||

४.
निरखि रूप नन्दलाल को,
दृगनि रुचे नहीं आन|
तज पीयूख कोऊ करत,
कटु औषधि को पान||

५.
भरतहिं होय न राजमद,
विधि-हरि-हर पद पाइ|
कबहुँ कि काँजी-सीकरनि,
छीर-सिन्धु बिलगाइ||

६.
कन-कन जोरे मन जुरै, खाबत निबरै रोग|
बूँद-बूँद तें घट भरे, टपकत रीतो होय||

७.
जपत एक हरि नाम के, पातक कोटि बिलाहिं|
लघु चिंगारी एक तें, घास-ढेर जरि जाहिं||

८.
सठ सुधरहिं सत संगति पाई|
पारस परसि कु-धातु सुहाई||

९.
धनी गेह में श्री जाती है, कभी न जाती निर्धन-घर में|
सागर में गंगा मिलती है, कभी न मिलती सूखे सर में||
टिप्पणी:
१.
दृष्टान्त में अर्थान्तरन्यास की तरह सामान्य बात का विशेष बात द्वारा या विशेष बात का सामान्य बात द्वारा समर्थन नहीं होता| इसमें एक बात सामान्य और दूसरी बात विशेष न होकर दोनों बातें विशेष होती हैं|

२.
दृष्टान्त में प्रतिवस्तूपमा की भाँति दोनों बातों का धर्म एक नहीं होता अपितु मिलता-जुलता होने पर भी भिन्न-भिन्न होता है|

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10 टिप्पणियाँ

  1. आचार्य जी आपके पिछले कुछ लेख कठिन जान पडे हैं, मुझे समझने में कठिनाई है। शायद मैं उदाहरणों को पूरी तरह नहीं समझ पा रहा हूँ।

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  2. संजीव जी इन दिनों आप जिन अलंकारों की चर्चा कर रहे हैं उनमे से अधिकतर हमारे लिये नये हैं यही कारण है कि समझने में कुछ समस्या आ रही है। मैं तो प्रिंट निकाल कर रख लेती हूँ और समय निकाल कर उसे गंभीरता से समझती हूँ इस लिये सार्थक टिप्पणी से कभी कभी चूक भी जाती हूँ। लेकिन आपका धन्यवाद करना नहीं भूलती चूंकि एसी सामग्री उपलब्ध कराना वास्तव में बडा काम है।

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  3. जब पहले एक बात कहकर फिर उससे मिलती-जुलती दूसरी बात, पहली बात पहली बात के उदहारण के रूप में कही जाये अथवा दो वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो तब वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है

    बडा ही रोचक और प्रयोग में सुन्दर अलंकार है।

    जवाब देंहटाएं
  4. अनन्या जी की बात से सहमत हूँ। अलंकारों की नवीनता और साहित्य में इनका कम प्रयोग इन्हें समझने में मुश्किल बना रहा है। या यूँ कहें कि इन्हें याद रखना अपेक्षाकृत मुश्किल हो रहा है।
    परंतु निस्संदेह यह एक ऐसा ज्ञानकोश बन रहा है जो पाठकों विशेषकर हिन्दी-काव्य के विद्यार्थियों के लिये अत्यंत उपयोगी होगा।
    इस सुंदर और श्रमसाध्य कार्य के लिये आचार्य सलिल जी को साधुवाद!

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  5. आप सभी को नमन.

    आभर की आप निरंतर रूचि ले रहे हैं. विश्वास जी! याद करें जब आपने पहला अक्षर सीखा तो कोताना कठिन लगा था? कितनी बार अभ्यास करना पड़ा था? आज आप जानते हैं कि वह कितना सरल था.

    इसी प्रकार हर अलंकार जिसे आप पहली बार पढ़ रहे हैं, कठिन लगे यह स्वाभाविक है. अनन्य जी कि तरह लेखों कि मुद्रित प्रति लेकर बार-बार पढ़ें तो अलंकार न केवल समझ सकेंगे...कोइ कविता पढ़ने या सुनने पर उसका अधिक रस ले सकेंगे और स्वयं के लेखन में बिना प्रयास ही कई अलंकारों को समाहित हुआ पाएँगे.

    इस लेखमाला का उद्देश्य पाठकों / श्रोताओं में साहित्य और भाषा की समझ का विकास करना ही है.

    जवाब देंहटाएं
  6. ये बात सही है बार बार अनुशीलन करना चाहिए।आप साहित्य शिल्पिको स्वागतम्।

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत ही सुंदर औऱ ज्ञानवर्धक आलेख।

    जवाब देंहटाएं
  8. Sirji aapne mera Pura confusion dur kar diya ISS लेख से

    जवाब देंहटाएं

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