
वे एक वरिष्ठ कवि हैं। शहर में उनका नाम है। कई फिल्मों और भजनों के एल्बमों के लिये गीत लिख चुके हैं। उनकी अल्मारी कई तरह के सम्मान प्रतीकों से भरी पड़ी है। यहां तक पहुंचने के लिये उन्हें लम्बा संघर्ष करना पड़ा है।
पिछले साल एक पारिवारिक किस्म की संस्था ने उन्हें साहित्य - सेवा के लिये पुरस्कार दिया। यह संस्था उस किस्म की थी जिसके लिये इस तरह के पुरस्कार देना एक शगल की तरह था और उनके लिये पुरस्कार पाने वाले की कोई अहमियत नहीं थी। अहमियत थी उनकी जो इन पुरस्कारों को देने के बहाने मंच पर सवार होते थे। लेखक तो बेचारे सामने श्रोताओं में से उठ कर पुरस्कार लेने आते थे।
सूरज प्रकाश का जन्म १४ मार्च १९५२ को देहरादून में हुआ। आपने विधिवत लेखन १९८७ से आरंभ किया। आपकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं:- अधूरी तस्वीर (कहानी संग्रह) 1992, हादसों के बीच (उपन्यास, 1998), देस बिराना (उपन्यास, 2002), छूटे हुए घर (कहानी संग्रह, 2002), ज़रा संभल के चलो (व्यंग्य संग्रह, 2002)। इसके अलावा आपने अंग्रेजी से कई पुस्तकों के अनुवाद भी किये हैं जिनमें ऐन फैंक की डायरी का अनुवाद, चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद, चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद आदि प्रमुख हैं। आपने अनेकों कहानी संग्रहों का संपादन भी किया है। आपको प्राप्त सम्मानों में गुजरात साहित्य अकादमी का सम्मान, महाराष्ट्र अकादमी का सम्मान प्रमुख हैं। आप अंतर्जाल को भी अपनी रचनात्मकता से समृद्ध कर रहे हैं।
कवि महोदय कसमसा रहे थे। यह साफ - साफ उनका और उनकी दीर्घ साहित्य - साधना का अपमान था। उन्हें अज्ञात शहर के अज्ञात लेखक से भी एक सीढ़ी नीचे मान लिया गया था।
पुरस्कार तो वे खैर ले आये लेकिन दुखी मन से। अपनी व्यथा मित्रों के बीच अलग - अलग तरीके से व्यक्त कर ही चुके थे लेकिन मन पर रखा बोझ किसी तरह कम नहीं हो रहा था। यह पहली बार हो रहा था कि वे पुरस्कृत भी हुए, दुखी भी।
तभी गुजरात में भयंकर भूकंप आ गया जिस में हजारों लोगों की जान गयी। पूरी की पूरी बस्तियां तबाह हो गयीं। पूरे देश ने खुले हाथों से पीडित व्यक्तियों की मदद करनी शुरु कर दी।
कवि जी ने आव देखा न ताव, पुरस्कार में मिले पांच हजार रूपए भूकंप सहायता कोष में जमा करा दिये और शहर के सभी समाचार पत्रों में प्रमुखता से छपवा दिया - कवि जी ने फलां संस्था से मिले दूसरे पुरस्कार की पांच हजार की राशि भूकंप सहायता कोष में दान कर दी।
सभी समाचार पत्रों में अपनी तस्वीर के साथ छपी आशय की खबर पढ क़र उनके सीने पर इतने दिनों से रखा पत्थर अब हट चुका था।
7 टिप्पणियाँ
लेखकों की मानसिकता और पुरस्कार लोलुपता पर कटाक्ष है।
जवाब देंहटाएंसूरज जी से हमेशा सीखने को मिला है जिस वर्ग के लेखकों पर यह व्यंग्य है वह आज "समकालीनता" के ठेकेदार हैं और गाहे बगाहे एक दूसरे को पुरस्कार बाँटते और पाते यहाँ वहाँ दिखाई पडते हैं।
जवाब देंहटाएंआभार।
KATHA KE BAHANE BADHIYA KATAKSH KIYA HAI AAPNE....
जवाब देंहटाएंअंदाज अपना अपना बढ़िया लघु कथा है ......
जवाब देंहटाएंइसी वजह से किसी को पुरस्कार मिलने की सूचना पर,ख़ुशी से ज्यादा शक होता है..जरूर अच्छी पहुँच रही होगी...यथार्थ से रूबरू कराती कहानी
जवाब देंहटाएंबहुत जानदार कहानी है। दान भी हुआ, सीने से पत्थर भी हटा।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
सुन्दर रचना... आजकल समय बदल गया है... खुद ही पुरस्कार की रचना कीजिये और खुद ही अपना नामाकंन भी कर दीजिये... आज के पुरस्कारों का यही भेद है.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.