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चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा [भाग-10] - अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

गतांक से आगे.. [पिछले भाग पढने के लिये यहाँ चटखा लगायें - चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (पूर्वकथन), चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा भाग - 1, चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा भाग - 2, चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा भाग - 3, चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा भाग - 4, चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा भाग - 5, चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा भाग - 6, चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा भाग - 7 चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा भाग - 8, चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा भाग - 9
Charles Darwin's Autobiography by Suraj Prakash and K.P.Tiwariरचनाकार परिचय:-
सूरज प्रकाश का जन्म १४ मार्च १९५२ को देहरादून में हुआ। आपने विधिवत लेखन १९८७ से आरंभ किया। आपकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं:- अधूरी तस्वीर (कहानी संग्रह) 1992, हादसों के बीच (उपन्यास, 1998), देस बिराना (उपन्यास, 2002), छूटे हुए घर (कहानी संग्रह, 2002), ज़रा संभल के चलो (व्यंग्य संग्रह, 2002)। इसके अलावा आपने अंग्रेजी से कई पुस्तकों के अनुवाद भी किये हैं जिनमें ऐन फैंक की डायरी का अनुवाद, चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद, चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद आदि प्रमुख हैं। आपने अनेकों कहानी संग्रहों का संपादन भी किया है। आपको प्राप्त सम्मानों में गुजरात साहित्य अकादमी का सम्मान, महाराष्ट्र अकादमी का सम्मान प्रमुख हैं। आप अंतर्जाल को भी अपनी रचनात्मकता से समृद्ध
कर रहे हैं।


Charles Darwin's Autobiography by Suraj Prakash and K.P.Tiwari
कृष्ण प्रसाद तिवारीने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में एम. ए. करने के बाद यहीं से अनुवाद प्रमाणपत्र का अध्यययन भी किया। अध्ययन के दौरान सर्वोच्चय न्यायालय और लॉ कमीशन से अनुवाद कार्य में जुड़े रहे। सम्प्रति भारतीय रिज़र्व बैंक में प्रबन्धपक के पद पर कार्यरत और राजभाषा विभाग में नियुक्ता भी हैं। आँगन बाड़ी की कार्यकर्ताओं के लिए जच्चा-बच्चा़ की देखभाल की सम्पूर्ण पुस्तिका का अनुवाद तथा सूरज प्रकाश जी के साथ मिलकर किया गया "चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा" का अनुवाद इनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं।
गर्मी की छुट्टियों का मेरा सारा वक्त गुबरैले पकड़ने, कुछ पढ़ाई करने और छोटी-मोटी यात्राओं में निकल जाता था। पतझड़ के दौरान मेरा सारा समय निशानेबाजी में जाता था। मैं इसमें से ज्यादातर समय वुडहाउस और मायेर में गुज़ारता था। कई बार मैं आयटन के रईस आयटन के साथ भी रहता था। कुल मिलाकर कैम्ब्रिज में बिताए गए तीनों बरस मेरे जीवन के सर्वाधिक खुशी भरे रहे। मेरी सेहत बहुत बढ़िया रही और कुल मिलाकर मैं कभी दुखी नहीं रहा।

मैं 1831 की शुरुआत में क्रिसमस पर कैम्ब्रिज आया था, इसलिए अंतिम परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी मुझे दो सत्रों तक रोका गया; तब हेन्सलो ने ही मुझे समझा-बुझा कर भूविज्ञान का अध्ययन शुरू करने के लिए कहा। इसलिए श्रापशायर लौटने के बाद मैं भूखण्डों की व्यवस्था का अध्ययन करने लगा और श्रूजबेरी के आसपास के इलाकों के रंगदार नक्शे भी तैयार किए। प्राचीन चट्टानों का भूवैज्ञानिक अन्वेषण करने के लिए अगस्त की शुरुआत में प्रोफेसर सेडविक नार्थवेल्स की यात्रा शुरू करने वाले थे; हेन्सलो ने उनसे कहा कि वे मुझे भी साथ चलने की इजाज़त दें। सब तैयारी करके वे मेरे पिता के घर आकर रुके।

शाम को उनके साथ थोड़ी बातचीत ने मेरे दिमाग पर गहरा असर डाला। श्रूजबेरी के समीप ही एक दलदली गड्ढे की जाँच करते समय एक मज़दूर ने मुझे बताया कि उसे गड्ढे में से एक बड़ा पुराना-सा उष्ण कटिबंधीय शंख मिला है। ऐसे शंख झोपड़ियों की चिमनियों में भी मिल जाते हैं, लेकिन उस मजदूर ने शंख बेचने से मना कर दिया। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत था कि उसे यह शंख वास्तव में गड्ढे में से ही मिला था। मैंने सेडविक को यह बात बताई तो (संदेह नहीं सच में) वे एकदम बोले कि किसी ने इसे गड्ढे में फेंक दिया होगा; लेकिन वे यह भी बोले कि यदि यह वहीं पड़ा रहता तो भूविज्ञान के लिए दुर्भाग्य की बात होती, क्योंकि यह हमें मिडलैन्ड काउन्टीज में धरातलीय मिट्टी के जमाव के बारे में काफी बातों की जानकारी देगा। दलदल की ये परतें वस्तुत: हिम नदीय युग से सम्बन्धित हैं, और बाद के वर्षों में ये मुझे आर्कटिक के टूटे हुए शंखों में भी मिले। लेकिन उस समय मैं एकदम हैरान रह गया कि सेडविक इस अद्भुत तथ्य पर खुश क्यों नहीं हुए कि उष्ण कटिबंधीय इलाके का शंख यहाँ इंग्लैन्ड के बीचों-बीच इलाके में ज़मीन के भीतर कहाँ से आया होगा। यद्यपि मैंने बहुत-सी वैज्ञानिक पुस्तकों का अध्ययन किया था, लेकिन इससे पहले मुझे इतनी गहराई से यह अहसास नहीं हुआ था कि तथ्यों का समूहीकरण करने में ही वैज्ञानिकता है, क्योंकि इसके बाद ही कोई सामान्य नियम या निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

अगले दिन हम लेंगोलेन, कॉनवे, बेंगोर और कैपल कूरिग के लिए निकल पड़े। इस यात्रा का एक लाभ तो मुझे यह मिल ही गया कि किसी देश के भूविज्ञान का अध्ययन किस प्रकार किया जाए। सेडविक मुझे कई बार अपने ही समानांतर चलने को कहते और कहते कि चट्टानों के नमूने लेते चलो तथा नक्शे पर उनका स्तर विन्यास भी चिह्नित करो। मुझे थोड़ा-सा संदेह है कि उन्होंने यह मेरी भलाई के लिए किया था, क्योंकि मैं उनकी सहायता करने में बहुत ही उदासीन रहता था। इस यात्रा के दौरान एक विशेष अनुभव भी हुआ कि जब तक ध्यान देकर न देखा जाए तो उत्कृष्टतम लक्षण को भी नज़र-अन्दाज़ कर देना कितना आसान होता है। क्वेम इड्वाल में हम दोनों ने कई-कई घन्टे लगाकर सभी चट्टानों को बड़े ही ध्यान से देखा, क्योंकि सेडविक उनमें जीवाश्म (फॉसिल) तलाश रहे थे, लेकिन हम दोनों ही ने अपने चारों ओर बिखरे पड़े हिम नदीय लक्षणों पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया; हमने समतल तराशी चट्टानों, इधर-उधर पड़े शिलाखंडों, आवसानिक और पार्श्वीय हिमोढ़ों पर नज़र ही नहीं डाली। हालांकि ये लक्षण इतने सुस्पष्ट हैं कि इसके कई वर्ष बाद फिलास्फिकल मैगजीन में प्रकाशित एक लेख में मैंने यह ज़िक्र किया कि वह घाटी अपनी कहानी ठीक उसी तरह से कह रही थी जिस तरह से जलकर खाक हुआ कोई मकान कहता है। यदि यह घाटी अभी भी हिमनद के पानी से भरी होती तो ये सभी लक्षण इतने मुखर न होते जितने इस समय हैं।

केपेल क्यूरिग में मैं सेडविक से अलग हो गया और दिक्सूचक तथा नक्शे के सहारे नाक की सीध में चलता गया तथा पर्वतों को पार करता हुआ बारमाउथ तक गया। रास्ते में मैंने कभी भी निर्धारित मार्ग का अनुसरण नहीं किया। संयोगवश मिल गया तो दूसरी बात थी। इस प्रकार मैं एक अपरिचित बियाबान में जा पहुँचा, और इस तरह की यात्रा का मैंने खूब आनन्द उठाया। मैं बारमाउथ में पढ़ रहे कैम्ब्रिज के पुराने साथियों से मिला और वहाँ से श्रूजबेरी लौटा और निशानेबाजी के लिए मायेर चला गया। उस समय मुझ पर भूविज्ञान या किसी अन्य विज्ञान की बनिस्बत चकोर के शिकार का भूत सवार था।


बीगेल से समुद्रयात्रा : 27 दिसम्बर 1831 से 2 अक्तूबर 1836

नार्थ वेल्स की इस छोटी भूवैज्ञानिक यात्रा से लौटने पर मुझे बताया गया था कि कैप्टन फिट्ज राय को एक सहायक चाहिए, जो उनके साथ बिना कुछ भी वेतन लिए बीगल की समुद्र यात्रा पर चल सके। उसे प्रकृतिवादी के रूप में काम करना होगा और बदले में उसे कैप्टन राय अपने केबिन की सभी कलाकृतियाँ देंगे। जहाँ तक मेरा विश्वास है मैंने अपने यात्रा-संस्मरण रोज नामचे में उन सभी घटनाओं का जिक्र किया है जो उस दौरान घटित हुईं। यहाँ मैं केवल इतना ही बताऊँगा कि मैं भी इस प्रस्ताव को मानने के लिए पूरी तरह से इच्छुक था। लेकिन मेरे पिता ने इसका पुरज़ोर विरोध किया, और मेरी भलाई के लिए यह भी कहा,`यदि तुम सामान्य बुद्धि का ऐसा कोई व्यक्ति बता सको जो तुम्हें वहाँ जाने की सलाह दे, तो मैं भी सहमति दे दूँगा।' इसलिए मैंने उसी शाम इन्कार करते हुए जवाब लिख दिया। अगली सुबह मैं पहली सितम्बर की तैयारी करने के लिए मायेर चला गया। मैं निशानेबाजी कर रहा था कि मुझे अंकल ने बुलवाया। उन्होंने मुझसे श्रूजबेरी चलने के लिए कहा और बोले कि वे मेरे पिता से चलकर बात करेंगे कि उस प्रस्ताव को मानना बुद्धिमानी का काम होगा। मेरे पिता हमेशा यह मानते थे कि (मेरे अंकल) विश्व के सर्वाधिक समझदार व्यक्ति हैं। उनकी बात सुनते ही पिताजी ने फौरन सहमति दे दी। मैं कैम्ब्रिज में बहुत फिजूलखर्ची करता था, इसके लिए मैंने पिताजी को भरोसा दिलाया कि बीगेल यात्रा के दौरान मैं अपने भत्ते से ज्यादा खर्च नहीं करूँगा। पिताजी ने मुस्कराते हुए कहा, `लेकिन उन्होंने मुझे बताया है कि तुम बहुत बुद्धिमान हो।'

अगले दिन मैं कैम्ब्रिज जाने को चल पड़ा। वहाँ हेन्सलो से मिला और फिर फिट्ज राय से मिलने लन्दन के लिए निकल गया। यह सारे काम आनन-फानन में हो गये। इसके बाद जब फिट्ज राय से कुछ घनिष्टता हो गयी तो उन्होंने मुझे बताया कि वे मेरी नाक की आकृति के कारण मुझे अपने साथ न लेने का मन बना चुके थे। वे लावेटर के प्रबल अनुयायी थे, और इस बात को पक्का मानते थे कि वे किसी भी इंसान के चेहरे से उसका चरित्र जान सकते थे। उन्हें संदेह था कि मेरे जैसी नाक वाले इंसान में इस समुद्र यात्रा के लिए पर्याप्त ताकत और इच्छाशक्ति भी होगी। लेकिन मैं समझता हूँ कि बाद में उन्हें यह तो संतोष हो गया होगा कि मेरी नाक ने गलत आभास दिया था।

फिट्ज राय का चरित्र विलक्षण था। उनमें बहुत से उत्तम लक्षण थे। वे अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित, किसी भी कमी के प्रति उदार, बहादुर, दृढ़ प्रतिज्ञ और ग़ज़ब के ऊर्जावान तो थे ही, अपने सभी मातहतों के लिए जोशीले दोस्त भी थे। वे जिसे सहायता पाने लायक समझते थे, उस व्यक्ति के लिए कुछ भी कर गुज़रते थे। वे एक सजीले, सुदर्शन व्यक्ति थे। उनका व्यवहार बहुत अधिक शिष्टता लिये हुए था। उनकी सभी आदतें उनके मामा प्रसिद्ध लार्ड केसलरीग से मिलती थीं, जैसा कि रियो के मिनिस्टर ने बताया था। बेशक उनका चेहरा चार्ल्स-द्वितीय से मिलता-जुलता था। इसी सिलसिले में डॉक्ट्र विलिश ने अपना एक एलबम दिया था। उन्हीं चित्रों में से एक चित्र फिट्ज राय से बहुत मिलता जुलता था। बाद में चित्र के नीचे लिखा नाम मैंने पढ़ा डॉक्टुर ई सोबेस्की स्टुआर्ट, काउन्ट ड'अल्बाइन जो कि उसी सम्राट के वंशजों में से थे।

फिट्ज राय का मिजाज़ बड़ा ही अजीब था। सवेरे-सवेरे तो उनका मूड आम तौर पर खराब ही रहता था। अपनी गिद्ध जैसी पैनी निगाह से उन्हे फौरन ही पता चल जाता था कि जलयान पर कुछ गड़बड़ है, और फिर इल्ज़ाम लगाने में वे किसी को भी बख्शते नहीं थे। वे मेरे प्रति काफी दयालु थे, लेकिन उनके साथ घनिष्टता कर पाना टेढ़ी खीर था। लेकिन एक ही केबिन में रहने के कारण हम दोनों की आदतों में कुछ घाल-मेल तो हो ही गया। हम कई बार एक दूसरे से उलझ भी जाते। ऐसे ही यात्रा की शुरुआत में ब्राजील के बाहिया नामक स्थान पर उन्होंने गुलामी प्रथा का पक्ष लिया और इसकी बड़ी तारीफ की, जबकि मुझे गुलामी प्रथा से नफरत थी। उन्होंने मुझे बताया कि वे एक ऐसे व्यक्ति से मिल चुके हैं जिसके पास कई गुलाम हैं। उन्होंने स्वयं ही अनेक गुलामों को पूछा था कि क्या वे खुश हैं, और क्या वे आज़ाद होना चाहते हैं। इस प्रश्न पर सभी का जवाब था - `नहीं'। मैंने उस समय उपहास के लहज़े में कहा था कि मालिक के सामने उसके गुलामों का वह जवाब कोई मायने नहीं रखता। इससे वे बहुत नाखुश हो गए और बोले कि इसका मतलब यह भी हो सकता है, कि मैं उनके साथ रहना नहीं चाहता। मैंने सोचा कि अब जहाज तो छोड़ना पड़ेगा, लेकिन जैसे ही दूसरे लोगों को इस झगड़े की भनक लगी, तो जहाज के कैप्टन ने फौरन ही अपने लैफ्टिनेन्ट को भेजा कि जाओ और राय के गुस्से को शान्त करने के लिए डार्विन को खरी-खोटी सुनाओ। यहाँ मैं गन रूम के आफिसर्स के प्रति काफी शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने तुरन्त ही यह संदेश भेजा कि मैं उनके साथ रह सकता हूँ। लेकिन कुछ ही घंटे के बाद फिट्ज रॉय ने दरियादिली दिखाते हुए जहाज के एक अधिकारी की मार्फत माफी माँगते हुए यह भी अनुरोध किया कि मैं उनके साथ रह सकता हूँ।

कई बातों में वे बहुत महान चरित्र के इंसान थे। उनमें कुछ ऐसा भी था जो मुझे पहले पता नहीं था। बीगेल पर यह समुद्री यात्रा मेरे जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना रही, और इसी ने मेरे पूरे कैरियर का खाका तैयार किया। लेकिन ये सब कुछ एक छोटी-सी घटना पर आधारित था। घटना कुछ यूं थी कि जिस दिन मेरे अंकल तीस मील सवारी चलाकर मुझे श्रूजबेरी लाए थे, संसार में बहुत कम नातेदारों ने ऐसा किया होगा, और तो और मेरी नाक भी इसमें आड़े आ रही थी। मैं हमेशा यह महसूस करता हूँ कि मेरे दिमाग के लिए इस यात्रा ने वास्तविक प्रशिक्षण या तालीम दी थी। इससे मुझे प्राकृतिक इतिहास की कई परतों की जानकारी मिली और चीज़ों को समझने की मेरी ताकत में बढ़ोतरी हुई, हालांकि ये सारी योग्यताएँ मुझमें पहले से मौजूद थीं।

मैं जितनी भी जगहों पर गया वहाँ के भूविज्ञान की जानकारी भी मेरे लिए काफी महत्त्वपूर्ण थी। यहाँ मुझे तर्कशास्त्र का भी सहारा मिला। किसी भी नए भू-भाग को अगर पहली बार देखें तो चट्टानों के ढेर से ज्यादा कुछ नहीं दीखता, लेकिन बहुत स्थानों पर चट्टानों और जीवाश्मों के संस्तरों और प्रकृति की जाँच करने के साथ-साथ यदि मन में यह प्रश्न और आशा भी रखी जाए कि इसके अलावा और क्या मिल सकता है, तो उस भू-भाग के बारे में कुछ तथ्य उजागर होने शुरू हो जाते हैं। इस प्रकार सारी संरचना ही कमो-बेश सुबोध बनने लगती है। मैं अपने साथ लेयेल लिखित प्रिन्सिपल्स ऑफ ज्योलॉजी का पहला खंड भी लाया था, जिसे मैं सावधानीपूर्वक पढ़ता रहा। यह पुस्तक कई मायनों में मेरे लिए बहुत फायदेमन्द रही। वर्दे अंतरीप नामक द्वीप सेन्ट जेगो वह पहली जगह थी, जिसका मैंने निरीक्षण किया, और वहीं मुझे पता चल गया कि भूविज्ञान की जानकारी पर जितने लेखकों की रचनाओं को मैं पढ़ चुका था या बाद में पढ़ा, उनमें सबसे नायाब तरीका लेयेल का था।

इसी दौरान मैं एक और काम भी करता था - सभी प्रकार के जीवों का संग्रह। मैं इनका संक्षिप्त ब्यौरा लिखता और कुछेक समुद्री जीवों की छोटी-मोटी चीरफाड़ भी करता था। पर एक कमी रही कि ड्राइंग में हाथ तंग होने और शरीर-रचना की ज़रूरत भर जानकारी न होने के कारण इस यात्रा के दौरान मैंने जो संस्मरण लिखे, वे सब बेकार हो गए। इस तरह से मैंने काफी समय बरबाद किया। हाँ, इतना ज़रूर रहा कि क्रस्टेशियन्स की कुछ जानकारी हासिल हुई जिसकी मदद से मैं बाद में सिरीपेडिया पर अपना प्रबन्धड़ग्रन्थ लिख सका।

दिन में थोड़ा वक्त निकाल कर मैं अपना रोजनामचा लिखता था। जो कुछ भी मैं देखता था उसे सावधानी से और विस्तारपूर्वक लिखता था। मैं समझता हूँ कि यह एक अच्छी आदत थी। मेरे रोजनामचे घर को लिखे गए खतों का भी काम करते थे। जब भी मौका मिलता मैं इनके कुछ अंश इंग्लैन्ड भेज देता था।

अभी ऊपर मैंने जिन विशेष अध्ययनों का जिक्र किया है, यदि उनकी तुलना बेइन्तहा मेहनत और ध्यान लगाकर काम करने से की जाए तो वे इसकी तुलना में कुछ भी नहीं थे। उस समय तो मैं मेहनत और दिलो-जान से काम करने का पाठ पढ़ रहा था। उस समय मैं जो कुछ पढ़ता या सोचता था उसका सीधा ताल्लुक उस चीज़ से रहता था जो मैं देख चुका था या देखने की सम्भावना थी। मेरी यही आदत इस यात्रा के अगले पाँच बरस तक बरकरार रही। मैं पक्के तौर पर कह सकता हूं कि इसी प्रशिक्षण की बदौलत मैं विज्ञान में कुछ हाथ पांव मार पाया।

यदि अतीत पर नज़र डालूँ तो में कह सकता हूँ कि विज्ञान के प्रति मेरे मोह ने अन्य सभी रुचियों पर विजय पायी। शुरू के दो बरस तक तो निशानेबाजी के लिए मेरा शौक जोर-शोर से बरकरार रहा। अपने संग्रह के लिए सभी पक्षियों और पशुओं को मैं खुद ही मारता था। लेकिन धीरे-धीरे बन्दूक और मेरे बीच दूरी बढ़ती गयी, और अंत में यह काम मेरे नौकर ले संभाल लिया, क्योंकि अब यह निशानेबाजी मेरे काम के आड़े आने लगी थी, खासकर किसी इलाके की भूवैज्ञानिक संरचना तैयार करते समय। हालांकि मन के किसी कोने में मैं यह भी महसूस कर रहा था कि किसी च़ीज को देखने और सत्य की कसौटी पर कसने की ताकत शिकारी के काम से ज्यादा है। इस यात्रा के दौरान किये गये कामों से मेरे दिमाग का कितना विकास हुआ था यह इससे स्पष्ट हो जाएगा - मेरे पिताजी कभी संदेह में कोई काम नहीं निपटाते थे और ललाट शास्त्र में उन्हें कोई रुचि नहीं थी, लेकिन वे बड़ी पैनी नज़र रखते थे, तभी तो समुद्र यात्रा से लौटने के बाद मुझे देखते ही, मेरी बहनों को बुला कर बोले, `क्यों जी! इसके सिर का तो हुलिया ही बदल गया है।'

और एक बार फिर समुद्र का बुलावा। सितम्बर 11 (1831), को मैं प्लेमाउथ में बीगल पर फिट्ज राय से मिलने गया। वहाँ से शूजबेरी गया। अपने पिता और बहनों से लम्बी जुदाई के लिए विदाई ली और चल दिया एक और सफर के लिए। मैं 24 अक्तूबर को प्लेमाउथ पहुँचकर वहीं रहने लगा और 27 दिसम्बर को दुनिया का चक्कर लगाने के लिए यात्रा शुरू करने तक वहीं रहा, क्योंकि भारी अंधड़ों के कारण हमारे जहाज बीगल के दो प्रयास विफल हो चुके थे, और हमारा जहाज वहीं इंग्लैन्ड के समुद्र तट पर लंगर डाले खड़ा रहा। प्लेमाउथ में ये दो महीने बेहद मुश्किल भरे गुज़रे। हालांकि मैं किसी न किसी काम धंधे में लगा ही रहता था। अपने परिवार और मित्रों से लम्बी जुदाई की याद ही मुझे हताश कर देती थी। और मौसम भी अपने रंग दिखा ही रहा था।

मेरी सांस फूल जाती और दिल के आस-पास दर्द भी महसूस होता रहता था। दूसरे नौजवानों की तरह मैं भी अपनी सेहत के प्रति लापरवाह रहता था। उस पर तुर्रा यह भी कि मुझे डॉक्टरी का सतही ज्ञान भी था, तो उसके आधार पर मैंने यह भी मान लिया कि मुझे दिल की बीमारी है। मैंने किसी डाक्टर से सलाह भी नहीं ली क्येंकि मैं पूरी तरह से मान चुका था कि वह क्या फैसला सुनाने वाला है - यही कि मैं समुद्री यात्रा के काबिल नहीं हूँ, और यहाँ मैं हर खतरा उठाने को कमर कसे बैठा था।

अब मैं अपनी यात्रा के ब्यौरों का और घटनाओं का जिक्र फिर से नहीं करूँगा क्योंकि इन सबको मैं अपने प्रकाशित रोजनामचे में विस्तार से बता चुका हूं। फिलहाल तो मेरे सामने उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों की वनस्पतियों की हरियाली मेरे दिमाग पर किसी भी दूसरी चीज़ के मुकाबले ज्यादा गहराई से छायी हुई है। यह हरियाली मैंने पेटागोनिया के विशाल रेगिस्तानों और टियेरा डेल फ्यूगो की वन से ढंकी पर्वतमाला पर देखी। इस दृश्य का मेरे मन पर अमिट प्रभाव है। अपनी मातृभूमि में खड़े नग्न आदिवासी को मैं कभी भूल नहीं सकता। जंगली इलाकों में घुड़सवारी करते हुए या नावों में कई-कई हफ्ते तक जो सफर मैंने किए वे बहुत ही रोचक और रोमांचक थे। उस समय सफर के साथ जुड़ी परेशानियाँ और छोटे-मोटे खतरे ज़रा भी आड़े नहीं आए, और ये छिट-पुट घटनाएँ बाद में याद भी नहीं रहीं। मैंने अपने कुछ वैज्ञानिक लेखों मैं भी इनका काफी उपयोग किया। मिसाल के तौर पर, सेन्ट हेलेना जैसे कुछ द्वीपों की भूवैज्ञानिक संरचना को स्पष्ट करते हुए मूँगा द्वीपों के निर्माण आदि का समाधान किया। यही नहीं, गैलापेगोस द्वीप समूह के बहुत से टापुओं पर पाए जाने वाले पशुओं और पौधों के एकल सम्बन्धों को भी ध्यान में रखा और दक्षिणी अमरीका में पाए जाने वाले जीवों और पौधों पर भी लेख लिखे।

यदि अपने बारे में कहूं तो किस्सा कोताह यही है कि समूची समुद्री यात्रा के दौरान मैंने खुद को काम में झोंक रखा था, क्योंकि मुझे खोज बीन में आनन्द आता था और प्राकृतिक विज्ञान से जुड़े तथ्यों के विशाल पुंज में कुछ और तथ्य भी जोड़ने की मेरी बलवती इच्छा थी। इतना ही नहीं, वैज्ञानिकों के बीच अपने लिए ठीक-ठाक जगह बना पाना भी मेरी अभिलाषा थी ड़ यह मैं नहीं कह सकता कि मेरी अभिलाषा मेरे सहकर्मियों से अधिक थी या कम।

सेन्ट जैगो का भूविज्ञान बेहद सामान्य होने के बावजूद चकित कर देने वाला था - बहता हुआ लावा सागर की तलहटी में चला आया।

इस लावे के साथ ताजा शंखों और मूँगों का चूरा मिलकर जमता चला गया और इनके पकने से सफेद रंग की कठोर चट्टानें बनती चली गयीं। उसके बाद समूचा द्वीप सिर उठा कर ऊपर निकल आया। लेकिन सफेद चट्टान में पड़ी लकीरों ने मुझे एक नए तथा महत्त्वपूर्ण तथ्य से परिचित कराया। वह यह कि ज्वालामुखी के जीवंत होने की अवस्था के दौरान लावा निकल निकल कर क्रेटरों के चारों ओर जमता चला गया। उस समय मेरे मन में यह विचार कौंधा कि मैं जितने देशों भी में गया हूँ वहाँ के भू विज्ञान पर एक किताब लिखूँ। इस विचार ने मुझे रोमांच से भर दिया। यह मेरे लिए अविस्मरणीय क्षण थे। मेरे मन पर आज भी वह छवि जस की तस अंकित है कि लावे से बनी खड़ी चट्टान के नीचे मैं खड़ा था, ऊपर सूरज चमक रहा था, आस पास रेगिस्तानी इलाकों में पाए जाने वाले कुछ पौधे सिर उठाए खड़े थे और मेरे पैरों के पास समुद्री जल में जीवित मूँगे अपनी छटा बिखेर रहे थे। यात्रा के ही दौरान फिट्ज राय ने मुझसे कहा कि मैं अपने कुछ रोजनामचे पढ़कर उन्हें सुनाऊँ - सुनते ही बोले कि ये तो भई, छपने चाहिये - और इस तरह से दूसरी पुस्तक का आगाज हो गया।

हमारी यात्रा समाप्त होने को थी। एस्केन्सन पर पड़ाव के दौरान मुझे एक खत मिला, जिसमें मेरी बहनों ने लिखा था कि सेडविक घर आकर पिताजी से मिले थे और उनसे कहा था कि अब मुझे वैज्ञानिकों के बीच जगह मिलना तय ही है। उस समय मैं यह नहीं जान पाया था कि उन्हें मेरी गतिविधियों की जानकारी कैसे मिली होगी। बाद में मैंने सुना (और मुझे भरोसा भी हुआ) कि मैंने कुछ खत हेन्सलो को भी लिखे थे। उन खतों को उन्होंने कैम्ब्रिज की फिलास्फिकल सोसायटी के समक्ष पढ़ा, और उन्हें वहाँ वितरण के लिए छपवाया भी था। मैंने जितने जीवाश्मों का संग्रह किया था, वह भी हेन्सलो को भिजवा दिया था। इस संग्रह ने भी जीवाश्म वैज्ञानिकों को काफी आकर्षित किया था। इस खत को पढ़ कर मैं किसी तरह से ऐस्केन्सन की पहाड़ियों पर चढ़ कर गया और अपने हथौड़े से उन ज्वालामुखीय चट्टानों को ठकठकाने लगा। इस सबसे इस बात का अंदाजा तो लग ही गया होगा कि मैं कितना महत्त्वाकांक्षी था। लेकिन मैं इस सत्य को भी स्वीकार करने में संकोच नहीं करूंगा कि आने वाले बरसों में लेयेल और हूकर जैसे साथियों का हाथ मेरी पीठ पर रहा। बाकी आम लोगों की मैंने उतनी परवाह नहीं की। मेरा आशय यह नहीं है कि मेरी किताबों की अनुकूल समीक्षा या खूब बिक्री से मुझे खुशी नहीं होती थी, लेकिन यह खुशी क्षण भंगुर होती थी। पर इतना तो था ही कि प्रसिद्धि पाने के लिए मैं अपने रास्ते से जरा-सा भी डिगा नहीं।

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