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फराज आओ सितारे सफर के देखते हैं [आलेख] - कृष्ण कुमार यादव

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तू मुझसे ख़फ़ा है तो जमाने के लिए आ
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।

अहमद फराज (14 जनवरी 1931-25 अगस्त 2008) ने जब यह पंक्तियाँ लिखी होंगी तो सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन मौत चुपके से उन्हें ले जायेगी और करोड़ों लोगों का दिल दुखा जायेगी। ...... एक शायर जो पैदा तो पाकिस्तान में हुआ पर अपनी भाषा और अभिव्यक्ति की बदौलत हिन्दुस्तानी दिलों पर भी राज करता रहा।

रचनाकार परिचय:-
कृष्ण कुमार यादव का जन्म 10 अगस्त 1977 को तहबरपुर, आजमगढ़ (उ0 प्र0) में हुआ। आपनें इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नात्कोत्तर किया है। आपकी रचनायें देश की अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं साथ ही अनेकों काव्य संकलनों में आपकी रचनाओं का प्रकाशन हुआ है। आपकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं: अभिलाषा (काव्य संग्रह), अभिव्यक्तियों के बहाने (निबन्ध संग्रह), इण्डिया पोस्ट-150 ग्लोरियस इयर्स (अंग्रेजी), अनुभूतियाँ और विमर्श (निबन्ध संग्रह), क्रान्ति यज्ञ:1857-1947 की गाथा।
आपको अनेकों सम्मान प्राप्त हैं जिनमें सोहनलाल द्विवेदी सम्मान, कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, महाकवि शेक्सपियर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान, काव्य गौरव, राष्ट्रभाषा आचार्य, साहित्य-मनीषी सम्मान, साहित्यगौरव, काव्य मर्मज्ञ, अभिव्यक्ति सम्मान, साहित्य सेवा सम्मान, साहित्य श्री, साहित्य विद्यावाचस्पति, देवभूमि साहित्य रत्न, सृजनदीप सम्मान, ब्रज गौरव, सरस्वती पुत्र और भारती-रत्न से आप अलंकृत हैं। वर्तमान में आप भारतीय डाक सेवा में वरिष्ठ डाक अधीक्षक के पद पर कानपुर में कार्यरत हैं।
भारत-पाकिस्तान का बँटवारा सदैव उनके दिल में शूल बनकर चुभता रहा, पर इससे भी ज्यादा चुभता रहा जुबान और साँझा संस्कृति का टकराव। वे अक्सर कहा करते थे कि जुबानों के साथ हमने अच्छा बर्ताव नहीं किया। अलग-अलग मज़हबों के चक्कर में उर्दू से हिन्दी को और संस्कृत से फारसी को निकाल फेंका। साँझा संस्कृति का हिमायती होना फराज साहब के लिए कई बार मुसीबतें खड़ा करता था, पर वे कभी भी इससे नहीं डिगे। 1982-83 में पाकिस्तान में उनके एक शे’र को लेकर कट्टरपंथियों ने जमकर मुखालफ़त की और हंगामा काटा, नतीजन उन्हें रातों-रात मुल्क छोड़ना पड़ा था। ऐसे में वह कई दिनों तक कलकत्ता में आकर रहे पर अपनी खुद्दारी से समझौता नहीं किया-
मैं तेरा नाम न लूँ फिर भी लोग पहचाने
कि आप अपना तआरूख हवा-बहार की है।

14 जनवरी 1931 को पाकिस्तान के नौशेरा में जन्मे अहमद फराज का मूल नाम सैयद अहमद शाह था। कॉलेज के दिनों में फैज साहब और अली सरदार जाफरी को अपना आदर्श मानने वाले फराज ने शायरी की शुरुआत बहुतों की तरह रोमांटिक शायरी से की लेकिन वक्त के साथ उन्हें लगा कि शायरी को रूमानियत तक ही सीमित कर देना उस के साथ ज्यादती है। ऐसे में उनकी शायरी में आम आदमी और सामाजिक सरोकार भी झलकने लगे। यही नहीं वह अपनी भूमिका को राजनैतिक परिवेश से काटकर भी नहीं देख पाते थे। तानाशाही, धार्मिक असहिष्णुता और साम्प्रदायिक विभेद की वे सदैव मुखालफत करते रहे और इसके विरूद्ध तमाम मंचों से आवाज भी उठाई। पाकिस्तान में फौजी हुकूमत की आलोचना के चलते जनरल जिया उल हक के समय में उन्हें निर्वासन भी झेलना पड़ा और कभी भारत तो कभी यूरोप में वे लम्बे समय तक आत्मनिर्वासित रहे। यही नहीं वर्ष 2004 में जब उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान ‘हिलाल-ए-इम्तियाज‘ दिया गया तो 2006 में राजनैतिक हालातों का विरोध करते हुए उन्होंने इसे सरकार का लौटा दिया। परवेज मुशर्रफ जब प्रधानमंत्री से मिलने भारत आये तो उस प्रतिनिधि मण्डल में उनके साथ फराज भी शामिल थे। पेशावर विश्वविद्यालय में फारसी और उर्दू का अध्ययन करने वाले फराज ने शुरूआती दिनों में पेशावर में रेडियो पाकिस्तान में भी काम किया। 1976 में ‘पाकिस्तान एकेडमी आफ लैटर्स‘ का आरम्भ करने के साथ-साथ वह कई वर्षों तक नेशनल बुक फाउण्डेशन के अध्यक्ष भी रहे। इस दौर में उनकी रचनात्मकता का सफर अविरल जारी रहा और उन्होंने कुल 13 किताबें लिखीं।


इकबाल, साहिर और फैज की परम्परा के शायर अहमद फराज ने एक साथ ही रोमांस, इंकलाब और आम आदमी के सरोकारों से सम्बन्धित नज्में व शायरी लिखीं। इन्सानियत और मोहब्बत की इबादत करने वाले फराज का एक शे’र गौरतलब है-
हर चीज मोहब्बत में किताबी नहीं होती
होती है मगर इतनी खराबी नहीं होती।

फराज साहब की नज्में और शायरी संगीत की भाषा अच्छी तरह समझती थीं। फैज अहमद फैज के बाद रूमानियत के वह सबसे बड़े शायर माने जाते थे। बड़ी से बड़ी बात को आम लोगों से जोड़कर उन्हीं की भाषा में कहना उनका शगल था। वे इस दुनिया को उसकी खूबसूरती में महसूस करना चाहते थे और उन्होंने बदसूरती के खिलाफ कलम भी चलाई। उनकी रचनाओं ने जहाँ मुहब्बत के फूल खिलाये वहीं संघर्ष का जज्बा भी पैदा किया। मेंहदी हसन ने जब उनकी गजलें- रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ..... अबके हम बिछुड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें आदि गायीं तो फराज साहब की शोहरत में और भी इजाफा हुआ। शायरी वैसे भी इन्सानी जज्बातों की मासूमियत को उभारती है और इंसान को अन्दर से कोमल बनाती है। फराज साहब की शायरी में यह अदा बखूबी देखी जा सकती है-
बदन में आग सी, चेहरा गुलाब जैसा है
ज़हर-ए-गम का नशा भी शराब जैसा है
मगर कभी कोई देखे, कोई पढ़े तो सही
दिल आइना है तो चेहरा किताब जैसा है।

फराज सिर्फ बड़े शायर ही नहीं थे बल्कि बड़े इंसान भी थे। सरहद की दीवारों से परे उभरते शायरों का हौसला बढ़ाने से वे कभी नहीं चूके। कई लोग उनके बारे में कहते थे कि वे गुरूर में रहते हैं और लोगों के साथ मंच पर नही बैठते। जबकि वास्तविकता यह थी कि पीठ-दर्द के चलते वह मंच पर बैठने में असहज महसूस करते और कुर्सी पर जाकर बैठ जाते थे। नई पीढ़ी को बढ़ावा देने के हिमायती फराज ने इस बात को हमेशा स्वीकार किया कि युवाओं की मात्र बुराई करने से कुछ नहीं होने वाला बल्कि उनके समय को समझने और ढालने की जरूरत है। युवा पीढ़ी को साँझा संस्कृति, संवेदना और संस्कारों से जोड़ने के वे सदैव हिमायती रहे। फराज ग्लोबलाइजेशन और इसके चलते दुनिया भर में फैल रहे अन्धाधुन्ध बाजारवाद से भी चिन्तित थे और उनकी लेखनी इससे अछूती नहीं रही।

फराज साहब की हिन्दुस्तान में शोहरत का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पाकिस्तानी होते हुए भी भारत सरकार ने उन्हें मल्टीपल वीजा दे रखा था। यही नहीं उनकी सभी किताबें देवनागरी लिपि में भी छप चुकीं हैं। जब भी कोई मौका मिलता वे खुशमिजाजी के साथ हिन्दुस्तान आते। यहाँ तमाम मुशायरों में भाग लेकर सरहद की दूरियों को खत्म करने का आजीवन वे प्रयास करते रहे। वे एक जिन्दादिल शख़्सियत थे, जहाँ भी जाते महफिल जमने में देरी नहीं लगती। उनके चाहने वालों की हिन्दुस्तान में एक अच्छी-खासी तादाद है और फराज ने कभी भी उन्हें निराश नहीं किया-
और फराज चाहिए कितनी मोहब्बतें
माँओं ने तेरे नाम पर बच्चों के नाम रख दिये।

हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की सीमाओं से परे सद्भाव के राजदूत फराज इस दुनिया को अकेला छोड़ गये। उनके इस खालीपन को भले ही कोई न भर पाये पर उनका दिल हमेशा दोनों मुल्कों के बीच दोस्ती बनकर धड़कता रहेगा और उनकी आवाज सद्भावना की मिसाल बनकर सरहदों के पार भी गूँजती रहेगी-
अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जाएं
फराज आओ सितारे सफर के देखते हैं।

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13 टिप्पणियाँ

  1. फराज़ सहाब हमारे भी पसंदीदा शायर हैं..आपने बहुत बेहतरीन आलेख लिखा है..साधुवाद!!

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  2. बहुत आभारी हूँ इस आलेख के लिये फ़राज़ साहब को नमन।

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  3. भाई कृष्ण कुमार यादव जी

    आपका लेख इस मामले में बहुत प्यारा है कि फ़राज़ साहब की याद को एक बार फिर ताज़ा कर दिया। क्ई बार यूं भी होता है कि हमें किसी इन्सान के बारे में बहुत सी बातें मालूम होती हैं मगर बीच बीच में आप जैसे साहित्य के चाहने वाले उनकी यादों को ज़िन्दा रखने के लिये ऐसे लेख पेश कर देते हैं। उम्मीद है कि आप ऐसा करते रहेंगे।

    साहित्य शिल्पी की टीम को बधाई.

    तेजेन्द्र शर्मा
    लंदन

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  4. लेख को बेहतरीन तरीके से पेश करने के लिए धन्यवाद |

    अवनीश तिवारी

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  5. अहमद फ़राज़ साहब को याद करने का धन्यवाद। बहुत अच्छा आलेख है।

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  6. फ़राज साहब की अपनी एक अलग पहचान है करोडो लोगों के दिलों में राज करने वाले शायर के बारे में आलेख बडा ही दिलचस्प रहा...यादव जी बहुत-बहुत बधाई!

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  7. फ़राज़ साहब को याद करने के लिए के.के. जी व साहित्याशिल्पी का आभार....प्रभावशाली आलेख है.

    जवाब देंहटाएं
  8. फ़राज़ साहब को याद करने के लिए के.के. जी व साहित्याशिल्पी का आभार....प्रभावशाली आलेख है.

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  9. फ़राज़ जी को नमन...कृष्ण कुमार जी ने कई अनछुए पहलुओं से अवगत कराया.

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  10. फ़राज़ साहब को सितारों के बीच से लाकर हम लोगों के बीच जिन्दा कर दिया के.के. यादव जी ने...फ़राज़ साहब का तो मैं फैन हूँ.

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  11. aisi shkkshiyt ko mera nmn pr aise log hai kitne jodoosre ke dhrm aur vicharon ka aadr v smman kren aaj tathakthit dhrm nirpeksh hee sb se jyada dhrm sapeksh hai isi liye to tsleema pshchmi bangal se nirvasn ka teekshn dnsh jhel rhin hain
    dr.vedvyathit@gmail.com

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