
फिर भी इस दुनिया को, लहू अपना दिया करता हूँ!
सब संगी-साथी छूटे, अपने थे जो वो रूठे,
मन में जो बातें आयें, मैं खुद से किया करता हूँ!
कोई वक्त न ऐसा आये, तुझको न याद दिलाये,
अब तो मैं खुदा के बदले, तेरा नाम लिया करता हूँ!
रुसवा तुझको नहीं करना, चाहे पड़ जाये मुझे मरना,
कोई जान न पाये दिल की, ले होंठ सिया करता हूँ!
मौसम बदला-बदला है, बदली-बदली हैं निगाहें,
पा लूँ मैं निशां जहाँ तेरा, वो राह लिया करता हूँ !
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नाम : डॉ. अनिल चड्डा
आप विज्ञान में स्नातक हैं तथा आपनें हिन्दी में एम. ए. एवं पी. एच. डी. भी की है। आप दिल्ली में जन्मे और यही आपकी कर्म भूमि भी रही हैं । इस समय आप सरकारी नौकरी में कार्यरत हैं।
आपकी कविता में बचपन से हीअभिरुचि थी तथा आप 14-15 वर्ष की उम्र से ही साहित्य सेवा कर रहे हैं। आपकी कविताएँ सरिता, मुक्ता, दैनिक टरिब्यून, इत्यादि के साथ साथ अनेक अंतर्जाल पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं।
7 टिप्पणियाँ
अनिलजी,
जवाब देंहटाएंहर शेर दमदार लगा | आपको को पढ़कर अच्छा लगा |
अवनीश तिवारी
प्रोत्साहन के लिये धन्यवाद, तिवारीजी !
जवाब देंहटाएंNice GaZal
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
रुसवा तुझको नहीं करना, चाहे पड़ जाये मुझे मरना,
जवाब देंहटाएंकोई जान न पाये दिल की, ले होंठ सिया करता हूँ!
सुन्दर
सब संगी-साथी छूटे, अपने थे जो वो रूठे,
जवाब देंहटाएंमन में जो बातें आयें, मैं खुद से किया करता हूँ!
आपको को पढ़कर अच्छा लगा |
धन्यवाद ...
मौसम बदला-बदला है, बदली-बदली हैं निगाहें,
जवाब देंहटाएंपा लूँ मैं निशां जहाँ तेरा, वो राह लिया करता हूँ !
साहित्य शिल्पी पर स्वागत
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.