

महिलाओं का तू चितवन है
सुंदर और सलोना मधुबन है
तेरी सोच व शीरीं बातें
कितना उनमें अपनापन है
तेरे स्नेह स्वरूप ये "बोल" मिले
तेरे श्रम का ये दरपन है .
डॉ॰ अंजना संधीर ने प्रवासी नारी के अस्तित्व को अनूप और अनोखा सकारात्मक रूप देकर अपने संपादित किये हुए संग्रह में एक सूत्र की तरह पिरोकर प्रस्तुत किया है. यह निश्चित ही नारी जाति के सन्मान में एक नया मयूर पँख है. उनका दृढ़ सँकल्प ही इस काव्य सँग्रह "प्रवासिनी के बोल" के रूप में प्रकाशित हो पाया है. निश्चित ही यह भाव उनके मन में बरसों से पनपता रहा होगा जैसे कि उनके शब्दों से ज़ाहिर हो रहा है...
"ख़्याल उसका हरेक लम्हा मन में रहता है
वो शम्मा बन के मेरी अंजुमन में रहता है
मैं तेरे पास हूं, परदेस में हूँ, खुश भी हूँ
मगर ख़्याल तो हर दम वतन में रहता है."
अंजना जी के इस कथन में एक निचोड़ है, एक अनबुझी प्यास की तड़प कहीं न कहीं सीने में जैसे सिसकती रही हो, जैसे कोई बीज कहीं अंकुरित तो हुआ हो, पर खिल न पाया हो, खिला हो पर महक न पाया हो. ऐसी ही एक अनजान तड़प को, एक छटपटाहट को, नारी जाति के संगठित स्वर "प्रवासिनी के बोल" में उन्होंने अभिव्यक्त किया है जिसमें समोहित है परदेस में बस जाने वाले नारी मन के तड़पती हृदय वेदना, जो ह्रदय की सीमा का हर बांध तोड़कर क़लम की नोक से पीड़ा बनकर सरिता की मांनिंद बहकर सामने आई है. अपने अस्तित्व की पहचान पाना उनका अधिकार है, अपने वजूद से मिलने की ललक के उस आभास को ये पंक्तियाँ अभिव्यक्त कर रही है..
इल्म अपना हुआ तो जान गई/ मैं ही कुर्आन, मैं ही गीता हूँ.
है अयोध्या बसा मेरे मन में /वो तो है राम, मैं तो सीता हूँ.
11 मई 1949 को कराची (पाकिस्तान) में जन्मीं देवी नागरानी हिन्दी साहित्य जगत में एक सुपरिचित नाम हैं। आप की अब तक प्रकाशित पुस्तकों में "ग़म में भीगी खुशी" (सिंधी गज़ल संग्रह 2004), "उड़ जा पँछी" (सिंधी भजन संग्रह 2007) और "चराग़े-दिल" (हिंदी गज़ल संग्रह 2007) शामिल हैं। इसके अतिरिक्त कई कहानियाँ, गज़लें, गीत आदि राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आप वर्तमान में न्यू जर्सी (यू.एस.ए.) में एक शिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं।.....
अपने देश और संस्कृति से कट कर प्रवासी जीवन में जो उपलब्धि और विघटन होता है, उसे नारी ह्रदय महसूस करता है तो भावनायें कलम का सहारा लेकर खुद की पहचान पाने से नहीं चूकती. जाने अनजाने में वो पद चिन्ह बनकर कहीं न कहीं अपनी छाप ज़रूर छोड़ जाती हैं, और उसी का साकार स्वरूप प्रवासिनी के बोल बन कर सामने आया है. फिलासफ़र शल्फ वाल्डो एमरसन की अनहोनी सोच एक पथिक का पाथेय बनी कर कहती है " सीधा सीधा रास्ता पकड़कर न चलो, वहां चलो जहां कोई रास्ता या सड़क न हो. चलो और अपने पीछे एक पगडंडी छोड़ जाओ." इस विचार धारा को अंजना जी ने अपने परिश्रम के बलबूते पर स्वरूपी जामा पहनाने का प्रयास किया है और साहित्य साधना की इस नई पगडंडी पर नारी जाति के मनोबल व सामर्थ्य को एक मंच व मुकाम पर लाने की भरपूर चेष्टा की है. उनकी दूरंदेशी सोच की उड़ान इतनी ऊंची है कि वे सारा आकाश नाप लेने में सक्षम है इसमें कोई शक नहीं.
जो स्वप्न अभी तक आंखों में तैरता रहा, उसकी नींव इस किताब के रूप में रक्खी गई है. देश से बाहर परदेस में, भाषा के विरोधी वातावरण में, अपनी हिंदी भाषा को कविता के माध्यम से जिंदा रखना अनुकूल क्रिया है. भाषा को ज़िंदा रखना हमारा कर्तव्य है, क्योंकि यह हमारे पास आने वाली पीढ़ियों की धरोहर है. भाषा ज़िंदा है तो हम भी जिंदा है. स्त्री मन को जागृत करके उसके मनोबल को पहचान देना एक साहस पूर्ण प्रयास ही नहीं, एक काबिले तारीफ क़दम है, जो इतिहास के पन्नों में उल्लेखनीय बन जायेगा, और तो और भारत व अमरीकी हिंदी रचनाकारों के बीच एक सेतू बाँधने का श्रेय भी अंजना जी को जाता है, जिस तरह से उन्होंने एक बागबान की तरह दिन रात की मेहनत से नारी मन की भावनाओं को एक तार में पिरोकर, सींचकर एक महकते हुए मधुबन का स्वरूप देकर अमरिका के नारी पक्ष को उजागर किया है. यहां पर वाली आसी साहब का शेर इस बात का गवाह हैः
हमने एक शाम चराग़ों से सजा रक्खी है/ शर्त लोगों ने हवाओं से लगा रक्खी है
हम भी अंजाम की परवाह नहीं करते यारों /जान हमने भी हथेली पे उठा रक्खी है.
उसी साहस और शालीनता का उदाहरण एक परिपूर्ण ग्रंथ (An anthology connecting the East & the West) के रूप में "प्रवासिनी के बोल" कुल मिलाकर ६२२ पन्नों के रूप में मनोभावों से भरपूर साहित्य जगत के सामने आया है, जिसमें यू़.एस.ए में रहने वाली ८१ अमरीकी भारतीय हिंदी कवयित्रियों की ३२४ कविताएं पहले भाग में दी गई हैं, हिंदी से जुड़ी ३३ प्रतिभाशाली महिलाओं का सचित्र परिचय दूसरे भाग में दर्शाया गया है, तथा तीसरे भाग में अमरिका में अब तक प्रकाशित महिला साहित्यकारों की प्रकाशित पुस्तकों की यादि भी शामिल है. विदेश में रचा जा रहा साहित्य ही इस बात का प्रमाण है कि हम अपने देश से दूर जरूर है, पर देश हमसे दूर नहीं. दिल्ली से राजी सेठ का कथन है " भाषा के घेरे से परे रहकर अपनी भाषा की, देश से परे रहकर देश की, परिवेश से परे रहकर देश के रँग- रूप, तीज-त्यौहार. मिथिक-इतिहास को रचने की प्रेरणा इन्हें कौन देता होगा?" उनके इस सवाल के उतर में मेरी ये दो पँक्तियाँ हर नारी के ह्रदय की पुकार है, ललकार है..शायद उन्होंने दिल में देश बसाकर रक्खा है और ख़ुद धड़कन बनकर उसमें बसते हैं
हमारा घर, उसके आसपास का वातावरण, दिन-चर्या में हमारा चलन, आपसी व्यहवार, हमारी भाषा और संस्कृति को बरक़रार रखने के लिये हिंदी भाषा का अनुकूल उपयोग एक योगदान है. साहित्य के वरदान को अलग - अलग अनुभूतियों को भिन्न-भिन्न स्वरूप में से सजाकर इस सँकलन में पिरोया गया है, जिनमें नारी हृदय के वात्सल्य के साथ करुणा, दया, प्रेम, सेवा के भाव लिये हुए अनेक मधुर ग़ज़ल, गीत, लोक गीत, कवितायें, तीज त्यौहार पर अपनी भावनाएं, अपने कोमल ह्रदय के ताने -बाने बुनते-बुनते बुने गए हैं. इन्हीं अहसासों को शब्दों का जामा पहना कर नारी के तस्व्वुर को बड़ी सुंदरता से "वसुधा" की प्रकाशक व सम्पादक श्रीमती स्नेह ठाकुर ने अपनी “नारी” नामक रचना में बड़ी खूबी के साथ प्रस्तुत किया है...
अशक हूं /वक्त की पलकों पर टिकी हूं /लहर हूं /सागर की बाहों में थमी हूं, शबनम हूं
ज़मीं के आगोश में बसी हूं, चिंगारी हूं/ शोला बन कर भड़की हूं, किरण हूं
अबला हूं /पुरुष की संरक्षता में रहती हूं, नारी हूं/ पुरुष व पुरुषार्थ की जन्मदात्री हूं.
नारी मन आकाश से ऊँचा व पाताल से गहरा होता है इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि नारी जन्मदात्री है, हर हाल में अपना आपा बनाये रखती है कारण कुछ भी हो. मेरी एक कविता "प्रदर्शन" का एक चित्र कुछ इसी तरह का है.
दरिद्रता को ढाँपे /अपने तन के हर पोर में /वह नारी फिर भी कर रही है
प्रदर्शन अपना, उन भूखी आँखों के सामने /जो आर पार होकर /छेद जाती है निरंतर
पर देख नहीं पाती /उस नारी का स्वरूप /जो एक जन्मदातिनी है /जीवन को बनाये रखती है
उसको सजाने के लिये /बलि तो दे सकती है /पर ले नहीं सकती.
और सच तो यही है, एक कण कविता का एक युग को ज़ायकेदार बना सकता है, भाव प्रकट करने का एक निर्मल माध्यम बन जाता. आनेवाली कई पीढियों तक औरत जाति के नाम के साथ अंजना जी का नाम भी जुड़ा रहेगा. इल्म का दान उत्तम दान है. इसके द्वारा विकास व प्रगति के कई नये रास्ते खुल जाते हैं, इस युग में वतन की मिट्टी से दूर निवास करने वाली भारत के हर कोने में बसने वाली नारी, जो विदेश में आ बसी है, इस "प्रवासिनी के बोल" में अपनी कलम की जुबानी अपने मन के भावों को, अपने अँदर पनपते अहसासों को जुबाँ दे पाई है. अंजना जी ने इन्हें एक सूत्र में बाँध कर एक महिला संगठन को एक नई रौशनी के सामने ला पाई है. इस आशावादी सँकल्प के बल पर प्रवासी कवयित्रियों की रचनाओं में, उनकी देश से दूर रहने की वेदना, कुछ अमरिका की खट्टी -मीठी अनुभूतियां, मन में उठती किलकारियाँ, कभी सिसकियाँ , कभी खुशी में ग़म, कभी ग़म में ख़ुशी की रच्नात्मक कविताओं को संकलित और संपादित करने का संकल्प पूरा किया है.
फिलास्फर इलेन लाइनर का कहना हैः " अगर लेखक ये न लिखते कि उन्हें क्या महसूस हुआ तो बहुत सारे कागज़ ख़ाली होते". इसी सच को यदि सामने रखा जाय तो देखने को मिलेगा, उन कवित्रियों के मन का मँथन, उनके अंदर की कोमलता, द्रढता, वेदना, सँघर्ष, दुख, सुख, यादों की परछाइयां, मजबूरियां, तन्हाइयों के साथ बातें करने का अनुभव, देश के प्रति उमड़ते उनके ज़ज़्बे जिनको इसी संग्रह से कुछ एक कवियित्रियों की रचनाओं को चुनकर मैंने यहां प्रस्तुत किये हैँ.
अँतरमन की वेदना कुसुम टँडन ने "बनवास" नामक कविता से छलकती हुई अपने आप को ज़ाहिर कर रही है...
रच गया एक इतिहास नया /फिर से इस नये ज़माने में
दे दिया है बनवास राम ने /माता पिता को अनजाने में
डा॰ सुधा ओम ढींगरा की रचना असमान्यता क्यों ? में वे अपने अप्रवासी मन की परतों को खोलती हुई अपने अतीत के चंद लम्हों से हमारा परिचय कराते हुए इस उन्वान के माध्यम से अपनी लेखनी की परिपक्वता से हमें रूबरू करा रही है...
विस्मृतियों के गर्भ से/यादों की अंजुरी भर लाई हूँ ........
कुछ यादें टिकी हैं इसमें/कुछ रिस रहीं हैं .........
यादों से कौन मुक्त हो पाया है? जिंदगी का सार है ये, न ये हमें छोड़ती है न हम उन्हें आज़ाद करते हैं.
देवी नागरानी (मेरी ) एक कविता "यादों का आकाश" यादों की दीवारों को खरोंच रही है, ऐसे ही जैसे कोई ताज़ा ज़ख़्मों को कुरेद कर उन्हें लहूलुहान कर दे...
मेरी यादों के आकाश के नीचे /दबी हुई है /मेरे ज़मीर की धरती
जो थक चुकी है /अपने ज़ेहन के आँचल पर / बोझ उठाकर /
झीनी चुनरिया जिसकी/तार तार हुई है /उन दरिंदों के शिकँजों से /उन खूँखार नुकीली नज़रों से, जो
शराफ़त का दावा तो करते हैं /पर, दुशवारियों को ख़रीदने का सामान भी रखते हैं
बिक रहा है जमीर यहां /रिश्तों के बाज़ार में /बस बची है अंगारों के नीचे /दबी हुई कुछ राख
मेरे जिँदा जज़्बों की /जो धाँय धाँय उड़कर /काला स्याह करती जा रही है /मेरे यादों के आकाश को.
डा. प्रियदर्शिनी का अनुभव जिंदगी तजुर्बात का निचोड़ आपके सामने उनकी ज़ुबानी...
ज़िंदगी /नदी पर बना हुआ /लकड़ी का वह अस्थाई पुल है, /जिस पर हम
डगमगाते - डोलते /हिलोरें खाते /भयभीत /नीचे खाई में न झाँकने का प्रयास करते,
उस पार पहुँचने की ललक किये / चलते जाते हैं.
बीना टोडी की रचना "मेरा अस्तित्व" में खुद को खोजने के प्रयास में अपने मन को टटोल रही है...
करता है प्रशन अचानक मेरा मन / साये से क्या वजूद है मेरा /या है अस्तित्व साये का मुझसे?
अँजना सँधीर के अपने चंद अहसास याद की वादी में टहलते हुए, भटकते हुए एक पहचान पाने की तलब में बोल उठते हैं...
चलो /एक बार फिर लिखें /खुशबू से भरे भीगे खत /जिन्हें पढ़ते पढ़ते भीग जाते हैं हम
इन्तजार करते थे डाकिये का हम /बँद करके दरवाज़ा /पढ़ते थे चुपके चुपके /वे भीगे ख़त तकिये पर सर रखकर.
"फिर गा उठी प्रवासी" की रचनाकार लावन्य शाह का कोमल मन याद के सुमन सजा रहा है इस गुलशन में...
पल पल जीवन बीता जाए / निर्मित मन के रे उपवन में / कोई कोयल गाये रे!
सुख के दुख के, पंख लगाये / कोई कोयल गाये रे!
शशि पाधा जी ने सैनिकों के अदम्य साहस और बलिदान के विषय पर अनेकों रचनाएं लिखीं हैं, और कारगिल युद्ध के समय सैनिकों द्वारा एक संदेश स्वरूप रचना का निर्माण किया है जिन के शब्दों से मात्रभूमि के प्रति सैनिकों की सद्भावना और उनकी निष्ठा से साक्षतकार होने का गौरव हमें हासिल हो रहा है...
हम लौटें कल या न लौटें/ न आँच तिरंगे पर आएगी
इस मातृ भूमि के चरणों में/चाहे जान हमारी जाएगी
है अमरत्व का वरदान मुझे/ये बात उन्हें बतला देना
ऐसे जाँ बाज़ वीरों का हमारा नमन!
सारिका सक्सेना की कल्पना इँद्रधनुषी रूप धारण करती हुई उड़ रही एक अनजाने क्षितिज की ओर...
तितली बन मन पँख पसारे / बिखरे रँग घनक के सारे.
शोख हवा से लेकर खुशबू / लिख दी पाती नाम तुम्हारे.
रजनी भार्गव के कोमल मन के अछूते अहसास "अभिमान" नामक रचना में अपने अंदर की ऊर्जा को सोच के झरोखों से खांकते हुए कह रहे हैं...
आँगन में किलकती वीरानियां / जब तुलसी के आगे लौ में सुलगती है
कार्तिक की खुनक और लौ की गरमाहट- सा है / ये अभिमान मेरा
इला प्रसाद की भाषा अपने बचपन की ललक को शब्दों में जिवित करती हूई कह रही है अपनी रचना "यह अमेरिका है" में...
रात भर चमकता रहा जुगनू / रह रह कर /किताबों की अलमारी पर,
हरी रौशनी, जलती रही, बुझती रही / मैं देखती रही, जब भी नींद टूटी / सोचती रही
"कल सुबह पकड़ूंगी / रख लूंगी शीशे के ज़ार में, / जैसे बचपन में रख लेती थी!"
इतने अनोखे अहसास, बेपर उड़े जा रहे है अनंत आकाश की ओर कविता के माध्यम से. इस नए सँचार की श्रृंखला को प्रस्तुत करके अंजना जी ने बहुत ही गौरवपूर्ण उदाहरण कायम किया है. विश्व कवि रवींद्रनाथ का कथन बरसों बाद भी उसी सच्च को ऐलान कर रहा है. वे कहा करते थे "कि शांतिकेतन का रचनाशील विद्यार्थी जहां कहीं भी जायेगा वहां एक छोटा भारत निर्मित करेगा." याद आ रहा है कालिदास का "मेघदूत" जो सालों पहले पढ़ा था, मेघ अर्थात बादल जो दूत बनकर सँदेशा ले कर आते है. अँजनाजी का सफलपूर्ण प्रयास कविता की जुबानी पूरब और पश्चिम के बीच का सेतू बनकर यही सरमाया देगा, और इसी नज़रिये से यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने अमेरिका में एक छोटा भारत निर्मित करने का सफ़ल प्रयास किया है.
कहा जाता है, हासिल की हुई कामयाबी अगर जग को अच्छी लगती है पर अपने मन को नहीं भाती, तो वह अधूरी कामयाबी होती है. पर इस रचनात्मक यग्य में रचना का योगदान देने वाली हर नारी इस कामयाबी का हिस्सा है. एक परिपूर्ण परिवार का मिला जुला एक सफल यज्ञ है " प्रवासिनि के बोल". नई दिल्ली से डॉ॰ कमल किशोर गोयनका का कहना है " इस संकलन का सब से बड़ा कार्य यह है कि इतनी प्रवासी हिंदी कवयित्रियाँ पहली बार हिंदी संसार के सम्मुख आ रही हैं और इतनी प्रकार की अनुभूतियाँ हमें मिल रही हैं. मेरे विचार में यह प्रयास स्तुत्य है, स्वागत के योग्य है." इसी बात का समर्थन करते हुए मुझे भी ऐसे लगता है, इस किताब पर हर नारी के हर्दय से निकले बोल "प्रवासिनी के बोल" के रूप में जी उठे हैं. इसी संदर्भ में, मैं सारी नारी जाति की तरफ़ से अँजना जी को हार्दिक धन्यवाद देती हूं, और शुक्रगुजार हूँ जो मुझे भी अपने इस क्रियाशील अनुभव में अपने स्नेह के धागे में पिरोकर सन्मानित किया है.
"मेरे वतन की खुशबू" यह ग़ज़ल बड़े स्नेह और सन्मान के साथ हर प्रवासी नारी की ओर से इस क्रति को नज़र करती हूँ. यह संग्रह आने वाले कल में शोष कार्यों के काम में विध्यर्थियों और शोध कर्ताओं के लिये कारगर सिद्ध होगा इसी मंगलकामना के साथ...
मेरे वतन की खुशबू
बादे-सहर वतन की, चँदन सी आ रही है /यादों के पालने में मुझको झुला रही है.
ये जान कर भी अरमां होते नहीं हैं पूरे / पलकों पे ख़्वाब 'देवी' फिर भी सजा रही है.
कोई कमी नहीं है हमको मिला है सब कुछ /दूरी मगर दिलों को क्योंकर रुला रही है.
पत्थर का शहर है ये, पत्थर के आदमी भी /बस ख़ामशी ये रिश्ते, सब से निभा रही है.
शादाब मेरे दिल में इक याद है वतन की/तेरी भी याद उसमें, घुलमिल के आ रही है.
'देवी' महक है इसमें, मिट्टी की सौंधी सौंधी /मेरे वतन की खुशबू, केसर लुटा रही है.
8 टिप्पणियाँ
प्रवासिनी के बोल पर सम्पूर्ण प्रस्तुति है बहुत अच्छी रचनायें उद्धरण मेंप्रस्तुत हुई हैं
जवाब देंहटाएंप्रवासी भारतीयों के इस प्रकार के साहित्यिक योगदान को जितना सराहा जाए कम है |
जवाब देंहटाएंसभी कवयित्रियों को बधाई |
देवीजी को, इसे समीक्षा के रूप में प्रस्तुतु करने के लिए धन्यवाद |
अवनीश तिवारी
प्रवासिनी के बोल की सुन्दर समीक्षा पढ कर पुस्तक पढने की उत्सुकता बढ गयी है । देवी नागरानी जी को बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंदेवी नागरानी जी को प्रस्तुत समीक्षा के लिये आभार
जवाब देंहटाएंThanks Mam
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
देवी जी ने अंजना जी के महत्वपूर्ण प्रयास से भलीभांति अवगत करवाया है उनका कोटिश : आभार
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में सभी भारत माता की संतानों को मेरी मंगल कामनाएं
- लावण्या
"प्रवासिनी के बोल" प्रवास में रहने वाली नारी के हृदय से बह्ती हुईं विभिन्न जलधारायें हैं जिनमें देस की मिट्टी की सुगन्ध के साथ साथ परिस्थितियों से जूझने,अपनी संस्कृति को बचाये रखने,एकाकीपन का शून्य और न जाने कितने अन्तर्भाव लेखनी के माध्यम से मूर्त रूप हुए है । अन्जना जी ने इन विभिन्न जल धारायों को एक सागर में बाँध कर एक विशाल तथा अमिट रूप दे दिया। अब जब भी कभी प्रवास के साहित्य की बात होगी यह ग्रन्थ एक दीप स्त्तम्भ की तरह दिशा देगा । उसी ग्रन्थ पर इतनी भावभीनी तथा विवेचनात्मक समीक्षा लिख कर देवी जी ने उसे अनगिन साहित्य प्रेमियों को उस से परिचित कराने का एक श्लाघनीय कार्य किया है । देवी जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद तथा प्रस्तुति के लिये साहित्य शिल्पी का आभार ।
जवाब देंहटाएंशशि पाधा
शशि जी आप ने सही कहा है..
जवाब देंहटाएंइस ग्रन्थ में अमेरिका की तक़रीबन सभी महिला कवयित्रियाँ एक जगह एकत्रित हुई हैं, उन सब को एक जगह पढ़ा जा सकता है..
अंजना संधीर जी के कार्य को देवी जी ने उत्तम रूप से प्रस्तुत किया है..
साहित्य शिल्पी और देवी जी दोनों को बधाई ..
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