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विडम्बना [क्षणिकाएं] - महेंद्र भटनागर

hindi poem (kavita)
[1]
ज़िंदगी सकून थी; कराह बन गयी,
ज़िंदगी पवित्र थी; गुनाह बन गयी,
न्याय-सत्य-पक्षकी तरफ़ रही सदा
ज़िंदगी फ़रेब की गवाह बन गयी!

रचनाकार परिचय:-

महेन्द्र भटनागर जी वरिष्ठ रचनाकार है जिनका हिन्दी व अंग्रेजी साहित्य पर समान दखल है। सन् 1941 से आरंभ आपकी रचनाशीलता आज भी अनवरत जारी है। आपकी प्रथम प्रकाशित कविता 'हुंकार' है; जो 'विशाल भारत' (कलकत्ता) के मार्च 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। आप सन् 1946 से प्रगतिवादी काव्यान्दोलन से सक्रिय रूप से सम्बद्ध रहे हैं तथा प्रगतिशील हिन्दी कविता के द्वितीय उत्थान के चर्चित हस्ताक्षर माने जाते हैं। समाजार्थिक यथार्थ के अतिरिक्त आपके अन्य प्रमुख काव्य-विषय प्रेम, प्रकृति, व जीवन-दर्शन रहे हैं। आपने छंदबद्ध और मुक्त-छंद दोनों में काव्य-सॄष्टि की है। आपका अधिकांश साहित्य 'महेंद्र भटनागर-समग्र' के छह-खंडों में एवं काव्य-सृष्टि 'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा' के तीन खंडों में प्रकाशित है। अंतर्जाल पर भी आप सक्रिय हैं।

[2]
माना पिया ज़िंदगी-भर ज़हर-ही-ज़हर
बरसा किये आसमां पर क़हर-ही-क़हर
लेकिन उलट-फेर ऐसा समय का रहा
ज़ुल्मों-सितम का हुआ हर असर, बेअसर!

[3]
हमने न हँसने की अरे, सौगंध तो खायी न थी,
यह नहायी आँसुओं की ज़िंदगी फिर
मुसकुरायी क्यों नहीं?
हमने अँधेरे से कभी रिश्ता बनाया ही नहीं,
स्याह फिर रातें हमारी
रोशनी से जगमगायी क्यों नहीं?

[4]
किस क़दर भागे अकेले ज़िंदगी की दौड़ में,
रक्त- रंजित; किंतु भारी जय मिली हर होड़ में,
हो निडर कूदे भयानक काल-कर्मा- क्रोड़ में
और ही आनंद है ख़तरों भरे गँठ-जोड़ में !

[5]
ज़िंदगी में याद रखने योग्य कुछ भी तो हुआ नहीं
बद्दुआ जानी नहीं, पायी किसी की भी दुआ नहीं
अजनबी-अनजान अपने ही नगर में मूक हम रहे
शत्रुता या मित्रता रख कर किसी ने भी छुआ नहीं!

[6]
कहाँ वह पा सका जीवन कि जिसकी साधना की,
कहाँ वह पा सका चाहत कि जिसकी कामना की,
अधूरी मूर्ति है अब-तक कि जिसको ढालने की
सतत निष्ठाभरे मन से कठिनतम सर्जना की!

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7 टिप्पणियाँ

  1. एक आकर्षित करती रचना लगी | भाव पूर्ण और खासकर ऐसी रचनाओं में उर्दू के शब्द अधिक दिखाई देते हैं , लेकिन आपने हिन्दी के सटीक शब्दों को बैठाकर रचना प्रभावपूर्ण बना दी है |
    बधाई |

    अवनीश तिवारी

    जवाब देंहटाएं
  2. ज़िंदगी सकून थी; कराह बन गयी,
    ज़िंदगी पवित्र थी; गुनाह बन गयी,
    न्याय-सत्य-पक्षकी तरफ़ रही सदा
    ज़िंदगी फ़रेब की गवाह बन गयी!

    यह क्षणिका बिलकुल संतुलित और लय में है |
    इसके लिए - वाह वाह

    अवनीश

    जवाब देंहटाएं
  3. महेन्द्र जी की बेहतरीन प्रस्तुतियाँ

    जवाब देंहटाएं
  4. mahendra ji bahut sunder likha hai me avneesh ji ki baat se sahmat hoon
    badhai bahut gahri hai ke chhoti kavitayen
    saader
    rachana

    जवाब देंहटाएं
  5. ज़िंदगी में याद रखने योग्य कुछ भी तो हुआ नहीं
    बद्दुआ जानी नहीं, पायी किसी की भी दुआ नहीं
    अजनबी-अनजान अपने ही नगर में मूक हम रहे
    शत्रुता या मित्रता रख कर किसी ने भी छुआ नहीं!
    nice one sir,...

    जवाब देंहटाएं

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