अच्छेद्योSयमदाह्योSयमक्लेद्योSशोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोडयं सनातन: ॥24॥
अनुवाद: यह आत्मा काटने, जलाने, भिगोने और सुखाने के योग्य नही है। यह नित्य सर्वव्यापी, स्थिर, निश्चल, सनातन अर्थात् अनादि है।
अव्यक्तोSयमचिंतोSयमविकार्योउयमुच्चते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥25॥
अनुवाद: हे महाबाहो अर्जुन, यह आत्मा बार-बार जन्मता है और बार-बार मरता है, ऐसा यदि तू माने तो भी इस बारे मे शोक करना योग्य नही है।
संक्षिप्त टिप्पणी:- भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते है कि यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, निश्चल और अनादि है जिसे काटा, भिगोया, सुखाया और जलाया नहीं जा सकता है। यह इन्द्रियों से जानने योग्य नही है। यह बार बार जन्म लेता है और बार बार मरता भी है फिर भी उसके लिए शोक नहीं करना चाहिए। शोक करना अनुचित है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादप्रिहार्येSर्थे न त्वं शोचितुमर्हशि॥27॥
अनुवाद: क्योंकि जो उत्पन्न हुआ उसकी अवश्य मृत्यु होगी जो मरता है उसका जन्म भी अवश्य ही होगा; इसलिए इस बेवश(निरूपाय) विषय में तुम्हे शोक नही करना चाहिए।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवता ॥28॥
अनुवाद: हे भारत। जन्म लेने से पहले सारे प्राणी बिना शरीर वाले अर्थात् नाम रूप न था और मरने के बाद भी इनका नाम-रूप न रहेगा। यह तो मध्य रूप दिखाई पड़ता है, वह भी मिथ्या है; तो क्या ऐसे प्राणियों के विषय मे शोक करना चाहिए?
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्_वदाति तथैवचान्य: ।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥29।।
अनुवाद: जो मनुष्य इस आत्मा को आश्चर्यपूर्वक देखता, कहता और सुनता है, वह विरला है, पर्ंतु देखकर कहकर और सुनकर भी इस आत्मा को वास्तव में कोई नहीं समझ पाता है।
संक्षिप्त टिप्पणी: श्रीकृष्ण कहते है कि जो जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। ऐसा नीं है कि जन्म लेने वाला यह आत्मा जन्म से पहले नहीं था और बाद मे नही होगा सारे प्राणी बिना शरीर वाले अर्थात बिना रूप के जन्म के पहले थे और मृत्यु के बाद भी होगे। शरीर, रूप, नाम तो मध्य रूप अर्थात् संसारिक रूप दिखाई पड़ता है।
देहि नित्यम्ध्योंSयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥30॥
अनुवाद: हे भारत, यह आत्मा नित्य अर्थात् सब काल मे और सब अवस्था मे अबध्य(बध होने के योग्य नही है) और सबके शरीर मे सर्व-व्याप्त है; इसलिए प्राणियो के लिए तुझे शोक करना उचित नही है।
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्वि युद्धाच्छ्रेयोSन्य्त्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥31॥
अनुवाद: हे अर्जुन, तू अपने क्षत्रिय कर्म के अनुसार युद्ध से पलायन न कर; क्योकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुद्ध से अतिरिक्त कुछ हितकर नहीं है।
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्रार्मपावृतम।
सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभंते युद्धमीदृशम् ॥32॥
अनुवाद: हे पार्थ , अपने आप प्राप्त हुआ युद्ध खुला हुआ स्वर्ग के द्वार है उस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग पाते है।
अथ चेत्वमिमं धन्यं संग्रामं न अरिष्यामि।
तत: स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यासि ॥33॥
अनुवाद: किंतु यदि तुम इस धर्म युद्ध को नही करेगा तो अपना धर्म अय्र यश को गँवा कर पाप को प्राप्त होगा।
अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यंति तेड्व्ययाम् ।
सभ्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्चते ॥34॥
अनुवाद: और सब लोग तेरी सदा निन्दा भी करेगे। सम्मानित(प्रतिष्ठित ) व्यक्ति के लोए अपकीर्ति मरने से अधिक दु:ख देने वाली है।
भयाद्रणादुपरतं मस्यंते त्वां महारथा:।
येषां च त्वं बधुमतो भूत्वा यास्यसि लाधवम् ॥35॥
अनुवाद: जो महारथी लोग तुझको बड़ा मान देते है वे करेगे कि भय के कारण यह संग्राम से हट गया और इतने दिनों से प्राप्त प्रतिष्ठा को तू खो देगा।
संक्षिप्त टिप्पणी: ग्याहरवे श्लोक से लेकर तीस श्लोक तक भगवान श्रीकृष्ण ने साख्ययोग के अनुसार अनेक युक्तियों द्वारा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, सम, निर्विकार आत्मा के रकत्व, अविनाशित्व आदि का प्रतिवादन करके तथा शरीर को विनाशशील कहा है। आत्मा और शरीर के विनाश अके लिए शोक करना सर्वथा अनुचित है। अत: मोहवश ऐसा करना नही चाहिए।
0 टिप्पणियाँ
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.