( नोट - यह व्यंग्य पूरी तरह से काल्पनिक और मनगढंत है, इसका किसी भी जीवित और मृत व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है, यदि ऐसा होता है तो इसे मात्र संयोग और व्यंग्यकार का कल्पना कौशल माना जाय, कृपया व्यंग्यकार के शटर से न लटकें।)
विश्वास मानिये ये कोड लैंग्वेज कतई नहीं है, ये लेखक की नैतिकता है कि सैंसर का काम उसने स्वयं कर दिया, हालॉकि साहित्य में सैंसर का दखल छपने या बकने के बाद शुरू होता है, हिन्दी फिल्में इस मामले में बेहतर हैं, भले ही उनमें हिन्दी कहीं न हो, कलाकार देवनागरी पढ़ना लिखना न जानें पर कम से कम सैंसर का तुर्रा तो है, एक बार सेंसर से पास तो पास, जो कलेश करना हो सूचना प्रसारण मंत्री से करो । शीर्षक से यदि बीप कतई गायब कर दिये जाये तो मामला छिपने/ छिपाने की होड़ का बनता है जो आम तौर पर भारतीय चरित्र है ( कृपया चरित्र को केवल यौन व्यवहार से न जोड़ें ) तरह तरह के वादों , आदर्शों, इथिक्स, मॉरल दूसरों को पढ़ाकर ना ना प्रकार के खेमे, गुट, राजनीति, पैंतरे , षडयंत्र कर खुद छिपना, अपने हाथ को छिपाना, तमाम प्रश्नवाचकों का प्रयोग हम भारतीयों ( खासकर लेखक वर्ग ) का पेटेन्ट है ।
' अबे साले नंगे! चाटुकार तेरा चाटेंगे क्या?''
यानी चाटुकार भी हॉडी की गहराई देखकर ही चाटते हैं, इसमें चाटुकारों का क्या दोष? आप अपना कद बड़ा कीजिये । खैर मेरे विचार से ये छिनाल पाने की होड़ थी, अब बात छिनाल पने की होड़ की की जाय तो अंकल जी ये नारी सशक्ति करण का दौर है, देश की राष्ट्रपति महिला, चार पॉच मुख्य मंत्री महिला, सबसे बड़ी पार्टी की अध्यक्ष महिला, मतलब खलील खॉ जितने फाख्ता उड़ा सकते थे उड़ा चुके अब बशीरन बी का नंबर है । मतलब साफ कि छिनाल पन पर भी पुरूषों का एकाधिकार खत्म । आप क्यों स्त्री को बेचारी, सुकुमारी, शोषित और कमजोर देखना चाहते हैं, उसकी बेबाक, बिन्दास छवि से आपको ऐतराज क्यों ? आपको ' कितनी रात कितने बिस्तर....' याद रहा लेकिन जोशी जी का 'हमजाद?' किशोरों की हर हारमोनल जरूरत और बुजुर्गों की हर यौन कुन्ठा निपटाने का कौन सा वीभत्स साधन नहीं था उसमें? या नोवोकोव का नोबल पुरस्कार प्राप्त 'लोलिता?' । और भी ऐसे पचासियों उदाहरण होंगे लेकिन इन सभी में छिनालपने पर पुरूष का एकाधिकार था स्त्री तो बेचारी थी, उसका इस्तेमाल तखतराम धरेजा करे या खटियाचंद सुखेजा उसे तो चुपचाप रहना - सहना था ।
छि....छि.....वाद के अनुसार स्त्री ( लेखिका भी ) को बेचारी, सुकुमारी, शोषित गुरू जी के कहने पर कुछ भी ( माने बीप बीप भी ) कर देने वाली होना चाहिये । आप लोग सोच रहे होंगे कि फर्क क्या है? छुरी - खरबूजा, खरबूजा - छुरी, फर्क है भाई जी छिनाल शब्द में उसकी शक्ति निहित है अर्थात छिनाल की मर्जी के बिना उसे छू पाना भी मुमकिन नहीं और यही हम मर्दों का खास ऐतराज है, आखिर हम उसे मजबूर क्यों नहीं कर पा रहे ? वो अपने यौन प्रसंगों, प्रेम प्रसंगों को आम कैसे कर सकती है? अब तक तो वो बलात्कार की खबरें भी छिपाती आई थी । दारू की रमक में चटखारों के साथ यौन प्रसंगों का उॅगली के पोरों पर बखान ' एक ये, एक वो, एक अमुक, एक फलॉ कुल तेईस हो गईं यार ....' ये पुन्सत्व है इसे स्त्रियों में नहीं होना चाहिये ।
या ये भी हो सकता है कि हिन्दी फिल्मों का असर हिन्दी साहित्य पर आ गया हो क्योंकि हिन्दी फिल्मों ने शुरूआत में हिन्दी साहित्य से थोडा कुछ लिया था अब समय आ गया है कि साहित्य का फुल सत्यानाश करने के बाद साहित्यकारों के चरित्र को भी जड से खत्म कर सब कुछ लौटा दिया जाय । फिल्मों में एक परंपरा है जब आपका थोड़ा मोड़ा नाम हो जाय एक कन्ट्रोवर्सी उछाल दो या कोई घिनौनी सी स्वीकारोक्ति कर लो, बदनाम होंगे तो नाम भी होगा । एक निर्देशक अपने आप को हराम की औलाद पचपन की उमर में स्वीकारता है, एक स्टोरी राइटर पैंतीस साल की उमर में बीस साल पहले मास्टर जी द्वारा किये यौन शोषण को ( दोनों ने वक्त रहते मइया बाप से कोई शिकायत नहीं की, सारी की सारी हिम्मत आज दिन के लिये बचा के रखी थी ) । चुंबनों के फजीते, स्टेज पर ऍगिया का खुलना, कलाकारों के पैसे न देने का विवाद, राइटर से ब्रीच आफ कॉन्ट्रेक्ट हो या इब्नबतूता विवाद हो या एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप, सब खबरों में बने रहने का जरिया है, यहॉ तक सुना गया है कि फिल्मी कलाकारों को प्रति कन्ट्रोवर्सी दो फिल्में या सीरियल मिलते हैं, कन्ट्रोवर्सी की भयावहता पर फिल्म का बैनर निर्भर करता है जितनी भयानक कन्ट्रोवर्सी उतना बड़ा बैनर ।
इसके लिये कैटलिस्ट का काम हमारा मीडिया ( प्रिन्ट + विजुअल ) बखूबी करता है, सौ चैनल, हरेक को टी.आर.पी. चाहिये खबर चाहिये, नहीं है तो पैदा करो, सो भोपाल की सीरियल कलाकार और उसके कथित पति का कवरेज दो दिन तक दिखाते रहते हैं, यह टी.आर.पी. वायरस, फिल्मों से समाज तक का सफर तय कर चुका है । एक साल पहले हमारे आगरा में एक नर्सिंग होम में छज्जे पर अजगर निकला किसी ने यह सोचने का कष्ट नहीं किया कि छज्जे पर अजगर कैसे पहुॅचा होगा? लेकिन भाई जी वह नर्सिंग होम लोकल मीडिया ( प्रिन्ट + विजुअल ) में दो दिन तक रहा, जो प्रचार उसे लाख दो लाख खर्च करके मिलता घर बैठे मिल गया ( बोलो शेषावतार की जय ) । बात यहीं खत्म नहीं हुई, अजगर ( वही था या कोई और ) अभी दो दिन पहले किसी दूसरे नर्सिंग होम में अंदर की सीढ़ियों पर पाया गया, जबकि नर्सिंग होम के आस पास कहीं जंगल नहीं है, सामने सौ फुट का रोड है जिस पर अक्सर जाम भी रहता है, अजगर आते हुए भी नहीं देखा गया, सिर्फ प्रकट हुआ। खैर इस बार ये नर्सिंग होम लोकल मीडिया ( प्रिन्ट + विजुअल ) में दो दिन तक रहा ( बोलो शेषावतार की जय ) । अब वो दिन दूर नहीं जब मॉल से शुतुरमुर्ग, दूकान से दरियाई घोड़ा और दफतर से जिराफ टी.आर.पी. टी.आर.पी. चिल्लाते हुए निकलेंगे । नर्सिंग होम से अजगर के बजाय कोबरा कभी नहीं निकलेगा, अजगर भी मरीज के बैड पर न मिल फालतू जगहों जैसे छज्जे, छत पर जाने वाली सीढ़ियॉ पर ही मिलेगा ( जहॉ मरीज नहीं जाते ) मॉल, दूकान, दफतरों से बड़े बड़े शाकाहारी जानवर ही निकलेंगे शेर, चीता, भालू नहीं क्योंकि इनके निकलने से टी.आर.पी. तो बढ़ेगी पर ग्राहक भाग जायेंगे । व्यापारी लोगों की नजर में ये बिजनिस स्ट्रैटजी है, जायज है, जहॉ बारह तेरह साल की लड़कियों को जवान बनाने के लिये ऑक्सीटोसिन दिया जा सकता है वहॉ व्यापारी बंधुओं को इतनी छूट मिलनी भी चाहिये, यही लोकतंत्र है, तब लोकतंत्र का लाभ साहित्यकार क्यों न लें ? जब खाजा सर्वनिष्ठ है तो निकलने का दरवाजा भी उभयनिष्ठ ही होता है ।
साहित्यकार भी समाज का हिस्सा होता है, कविता, कथा, उपन्यास तो सिर्फ वही पढ़ते हैं जो पढ़ना जानते हैं, और ये फालतू किस्म के लोग आपको कभी फिल्मी कलाकारों के मुकाबिल टी.आर.पी. नही दे सकते सो वही करो जो फिल्म वाले करते हैं, यानी कन्ट्रोवर्सी, नतीजा सामने, दे दनादन अखबार बाजी, विजुअल मीडिया ( भले ही दूरदर्शन हो ) पर बहसें । हमारे पड़ोसी रामलाल जी ( जो हमारे अलावा किसी साहित्यकार को नहीं जानते, हमें भी हमारे विजिटिंग कार्ड की मार्फत ही जानते हैं ) छि....छि....साहित्यकार के बारे में सब कुछ जान गये, बल्कि विकिपीडिया से उनकी बायोग्राफी का प्रिन्ट आउट भी ले आये, अब तक हम इन्हें प्रभावशाली ( लेखन में नहीं ) लेखक ही मानते थे, पता चला भाई जी ऑरिजनली पुलिस वाले भी हैं । अब तो सौ खून माफ, साहित्यक पुलिस वाले से इससे ज्यादा उम्मीद बेमानी है, वे यही कर सकते थे । पुलिस वाले के लिये नेता और पत्रकार छोड़ कुछ भी बनना बहुत आसान काम है, किस प्रकाशक की मॉ ने धौंसा खाया कि छापने से मना कर दे, किस साहित्यकार के अंदर इतना गूदा कि इनकी रचनाओं में इस्लाह को मना कर दे, मिल के चलेगा तो फायदे में रहेगा । मुझे एक लोकल उस्ताद का किस्सा याद आता है- जमाल साहब, एक दरोगा ( जिसका तखल्लुस शफाक था, किस्मत कि शफाक और जमाल में वज़न भी बराबर होता है, शायद ) उस्ताद उस्ताद कहके उनसे इतना इस्लाह लेता था कि गजल के मक्ते तक आते आते इतनी मेहनत हो जाती कि उस्ताद कई बार मक्ते में अपना नाम डाल जाते तब दरोगा जी के कहने पर उन्हें याद आता कि मेहनत भले ही उन्होंने की हो पर की तो दरोगा जी के लिये थी । जमाल साहब भले ही मंच न कबाड़ पाते, दरोगा जी शहर और आस पास में होने वाले हर मुशायरे, कवि सम्मेलन में जबरन ठॅस जाते और उस्ताद के इस्लाहकृत माल से जम भी जाते, लोकल प्रकाशक से ( बिना कुछ दिये ) दीवान छपवा लिया, सरकार से इनाम भी मिल गया आखिर हिन्दू ने उर्दू में लिखा था ये अलग बात थी कि उर्दू भाषा की लिपि उन्हें आज तक नहीं आई खैर वो बड़े शायर हो गये, तब हमें जमाल साहब के लिये अफसोस हुआ और हमने कहा
'' जमाल साहब दीवान तो आपका था, दरोगा जी जबरन शायर बन गये''
'' जाने दो यार, उस्ताद तो मानता है, चाय पानी भी करा देता है, इज्जत करता है, पुलिस वाला इज्जत करे यही बहुत है''
'' आप मन को समझा रहे हैं जनाब, असल में आप डरते हैं उससे''
वे धीमे से बोले'' शायद.....''
'' शायद नहीं यकीनन, समझ में नहीं आता आप क्यों डरते हैं? पुलिस वाला एक अदीब पर क्या इल्जाम आयद कर सकता है? चरस, गॉजा, तमन्चा, कत्ल, लूट? साबित हो पायेगी आप पर? ''
'' अमॉ लौंडियाबाजी तो किसी भी अदीब पर कभी भी साबित की जा सकती है, मत भूलो अब वो शायर है, वो भले ही आज भी अपने लिये हमसे इस्लाह ले, लेकिन शायरात को इस्लाह देना शुरू कर चुका है, हमसे इस्लाह लेने वाली कुछेक आजकल उससे इस्लाह ले रही हैं, अब तक तो सब बक चुकी होंगीं, अब तो वो एकाध असली केस भी बना सकता है, इसलिये उसे शागिर्द मानने में ही भलाई है'' वे खीजकर बोले
जमाल साहब की मजबूरी तो हमें समझ आ गई, लेकिन उनका लुच्चपना हमें तब पता चला जब एक रोज दरोगा जी ने हमें सड़क पर रोक कर जबरन चाय पिलाई और इशारों में समझा भी दिया कि हम अपने रास्ते पर सीधे अपनी गति से चलें इधर उधर न देखें कि कौन किसके कंधे पर चढ़ कर कहॉ जा रहा है, वरना लौंडियाबाजी तो किसी भी अदीब पर कभी भी साबित की जा सकती है, क्या फायदा अदीब बनने से पहले शहीद बन जाओ । हमारे दिल में अदीबों के लिये जो संवेदना थी उसी मिनट खत्म हो गई ।
बहरहाल व्यक्ति का मूल व्यवहार कभी खत्म नहीं होता, सुना जाता है कि निराला जी कवि होने से पहले पहलवान थे, तो थे, गाहे बगाहे फिजिकली ताल ठोकते रहते थे, ए ग्रेड का साहित्यकार बनने के बाद जब वे अपने मूल स्वभाव को नहीं बदल पाये तब पुलिस वाले से क्या उम्मीद करें ? पुलिसवाला अदीब यानी साहित्यकार बनेगा तो ऐसा ही कुछ करेगा, वह शिष्ट साहित्यकार बने तो पुलिस को बट्टा लगता है, बट्टा लगाकर भी कितना शिष्ट बनेगा भाई ? जब ऑखों देखे दूसरों को भाव मिले खुद को खुरचन भी न हो तब सारी लेखिकाऐं छिनाल और सारे लेखक भड़वे, यह तो सभ्यता की पुलिसिया सीमा है वरना इसकी मॉ...उसकी बहन....मादर... बहनदर.....लुगाईदर....सारे स्त्रीलिंगदर तो पुलिस के लैंग्वेज कोड में है । ये तो आदरणीय का हिन्दी लेखक और लेखिकाओं पर अहसान है कि उन्होंने सापेक्ष रूप से शिष्ट भाषा का प्रयोग किया । अब हालॉकि उन्होंने क्षमा याचना कर ली है, लेकिन लेखक बिरादरी इस मुगालते में न रहे कि माफी लेखिकाओं से मॉगी गई है, क्योंकि लेखक बिरादरी की आपत्ति पर तो उनका बयान था - '' मैंने छिनाल नहीं कहा'' दरअसल माफी मंत्री जी के दखल पर मॉगी गई है, अब नेता और पत्रकार को धौंसाना पुलिस वालों के वश के बाहर है । बहरहाल लोग समझते हैं मामला निपट गया लेकिन दरअसल मामला शुरू हुआ है, आगे भी इस तरह के विभिन्न वाद/ विवाद आते रहेंगे, सच यही है कि साहित्यकार पहले स्त्री या पुरूष होता है, फिर धर्म , जाति, उसके बाद व्यवसाय ( पुलिस, बाबू, मास्टर, डाक्टर आदि) उसके बाद साहित्यकार, सोच का नजरिया लिंग, जाति, धर्म, व्यवसाय से भी प्रेरित होता है और औरत के बारे में फिलहाल मर्द का नजरिया कुछ इस तरह है -
है मुताल्लिक औरतों के मर्द का ये फलसफा
मिल गई तो फाहशा जो ना मिली तो फाहशा
1 टिप्पणियाँ
nice
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.