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जहर की जड़ें [लघुकथा] - डॉ. बलराम अग्रवाल


Kaifi

दफ्तर से लौटकर मैं अभी खाना खाने के लिए बैठा ही था कि डॉली ने रोना शुरू कर दिया।

‘‘अरे–अरे–अरे, किसने मारा हमारी बेटी को?’’ उसे प्यार करते हुए मैंने पूछा।

‘‘डैडी…..हमें स्कूटर चाहिए।’’ सुबकते हुए वह बोली।

‘‘लेकिन तुम्हारे पास तो पहले ही बहुत खिलौने हैं!’’ इस पर उसकी हिचकियाँ बंध गई, बोली, ‘‘मेरी गुड़िया को बचा लो डैडी।’’

‘‘बात क्या है?’’ मैंने दुलारपूर्वक पूछा।



‘‘पिंकी ने पहले तो अपने गुड्डे के साथ हमारी गुडि़या की शादी करके हमसे गुडि़या छीन ली।’’ डॉली ने जारों से सुबकते हुए बताया, ‘‘अब कहती है–दहेज में स्कूटर दो, वरना आग लगा दूंगी गुडि़या को।…..गुडि़या को बचा लो डैडी….हमें स्कूटर दिला दो…।’’

डॉली की सुबकियाँ धीरे–धीरे तेज होती गईं और शब्द उसकी हिचकियों में डूबते चले गए।

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