HeaderLarge

नवीनतम रचनाएं

6/recent/ticker-posts

पर्यावरण अतिकृमण [कविता] - श्रीप्रकाश शुक्ल

प्रकृति जननि आँचल में अपने, भर हुए अनगिनत सुसाधन
चर अचर सभी जिन पर आश्रित, करते सुचारू जीवन यापन
बढ़ती आबादी ,अतिशय दोहन, उचित और अनुचित प्रयोग
साधन नित हो रहे संकुचित, दिन प्रतिदिन बढ़ता उपभोग

जर्जर काया, शक्ति हीन, माँ, साथ निभाएगी कब तक
दुख है, भाव, न , जाने क्यों यह, मन में आया अब तक

प्रकृति गोद में अब तक जो, पलते रहे हरित द्रुम दल
यान, वाहनों की फुफकारें, जला रहीं उनको प्रतिपल
असमय उनका निधन देख, तमतमा रहा माँ का चेहरा
ऋतुएं बदलीं, हिमगिरि पिघले, दैवी प्रकोप, आकर ठहरा

प्राकृत संरक्षण है अपरिहार्य, मानव जीवन सार्थक जब तक
दुख है, भाव, न, जाने क्यों यह, मन में आया अब तक

हम सचेत, उद्यमी, क्रियात्मक, आत्मसात सारा विश्लेषण
भूमण्डलीय ताप बढ़ने के कारण, मानव जन्य उपकरण
सामूहिक सद्भाव सहित, खोजेंगे हल उतम प्रगाड़
गतिविधियाँ वर्जित होंगी, परिमण्डल रखतीं जो बिगाड़

निश्चित उद्देश्य न पूरे हों , कटिबद्ध रहेंगे हम तब तक
दुख है, भाव, न, जाने क्यों यह, मन में आया अब तक

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.

आइये कारवां बनायें...

~~~ साहित्य शिल्पी का पुस्तकालय निरंतर समृद्ध हो रहा है। इन्हें आप हमारी साईट से सीधे डाउनलोड कर के पढ सकते हैं ~~~~~~~

डाउनलोड करने के लिए चित्र पर क्लिक करें...