
इक ओर बहते आंसू इक ओर है तराना
लौ थरथरा रही है बस तेल की कमी से
उसपर हवा के झोंके है दीप को बचाना
मन्दिर को जोड़ते जो मस्जिद वही बनाते
मालिक है एक फिर भी जारी लहू बहाना
मजहब का नाम लेकर चलती यहाँ सियासत
रोटी बड़ी या मजहब हमको ज़रा बताना
मरने से पहले मरते सौ बार हम जहाँ में
चाहत बिना भी सच का पड़ता गला दबाना
अबतक नहीं सुने तो आगे भी न सुनोगे
मेरी कब्र पर पढ़ोगे वही मरसिया पुराना
होते हैं रंग कितने उपवन के हर सुमन के
है काम बागवां का हर पल उसे सजाना
5 टिप्पणियाँ
मन्दिर को जोड़ते जो मस्जिद वही बनाते
जवाब देंहटाएंमालिक है एक फिर भी जारी लहू बहाना
सुन्दर
अच्छी ग़ज़ल, बधाई
जवाब देंहटाएंसभी शेर अच्छे हैं
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएं- Alok Kataria
अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.