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अन्तर मूल्यों का [लघुकथा] - शशांक मिश्र "भारती",


सुधा जब कालेज पढ़ती थी। एक बार तीन-चार मनचले लड़कों ने अकेला देखकर छेड़खानी शुरु कर दी।

आस-पास के दूकानदारों व राहगीरों ने देखा, तो विरोध किया। लड़के भाग गये। पुनः वैसी हरकत न हुई।

आज जब सुधा की लड़की कालेज जा रही थी, कुछ बिगड़े लड़कों ने छेड़खानी की। ताने कसे। वह पाना-पानी हो गई। पर आस-पास वालों नें कोई विरोध नहीं किया।

घर लौटने पर जब सुधा को बताया तो उसे समझ में आया। यह अंतर आंखों का नहीं हो सकता। जरूर मूल्यों का है।

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6 टिप्पणियाँ

  1. निश्चित रूप से यह अंतर मूल्यों का ही है।

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  2. मूल्य घट गये है और हम पता नहीं कहाँ जा रहे हैं।सचेत करती हुई कहानी है।

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  3. पिछले दिनों एक विद्यालय में एक बच्चे के मुंह से सुना कि हमारे पूर्वजों ने आप सबको एक स्वस्थ और संस्कारित समाज दिया था ... किन्तु आज आप सब हमें कौन सा समाज देकर जा रहे हो .... ???

    सच पूछो तो क्या हम सब सामूहिक रूप से इन गिरते मूल्यों के लिये उत्तरदायी नहीं हैं

    एक ज्वलंत बिन्दु की ओर ध्यानाकर्षित करती हुयी रचना ..... शुभकामनायें

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