
वह हर रोज,
मंदिर से पति की फोटो निकाल,
साफ़ कर, प्रार्थना करती है|
हर शाम,
किसी मस्जिद के चौराहे से फूलों की चद्दर ला,
फोटो पर बिछा,
नमाज अदा करती है|
वह रमादान में रोजा नहीं रखती|
ना रामनवमी पर कीर्तन करती है|
वह ६ दिसम्बर के दिन,
व्रत रख,
उन्हें याद करती है |
वो अयोध्या की विधवा,
हर दिन जगती है,
हर रात मरती है...
10 टिप्पणियाँ
nice
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
महज २ मिनट के भीतर मन उद्ठे तेज सोच प्रवाह को शब्दों में लिखा था |
जवाब देंहटाएंमुक्त छंद की रचना मेरी प्रिय बन गयी है |
छापने के लिए धन्यवाद !
अवनीश तिवारी
अवनीश जी कविता मार्मिक है तथा आपके कवि हृदय होने का प्रमाण देती है।
जवाब देंहटाएंअयोध्या के वर्तमान हालात को देखते हुए आपकी कविता अत्यधिक प्रासंगिक हो गयी है। ये पंक्तियाँ दर्द में डूबी हुई हैं -
जवाब देंहटाएंवो अयोध्या की विधवा,
हर दिन जगती है,
हर रात मरती है...
बहुत अच्छी कविता, बधाई
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील
जवाब देंहटाएंनमस्कार अवनीश जी,
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी कविता नें दिल को छुवा। यह देश अब शायद परिपक्व होने लगा है आपकी इस कविता के निहितार्थ के साथ यही कामना है कि देश फिर कभी किसी दंगे कोइ न देखे।
आभार व शुभकामनायें
कविता अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंअयोध्या को ले कर कम ही एसा सोचते हैं
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता...बधाई
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.