
कौन हूँ मैं …
ले उर में अथाह जलराशि
नील नभ में तैरता ...
हवा के झोंकों पर सवार
ऊपर और ऊपर …
अपने प्रस्तार से
सूरज को ढंक लेने का दंभ लिये
हर पल कोई नया रूप लिये
कोई भटकता बाद्ल ...
किन्तु वादियों में बहुधा उलझ जाता हूँ
नवयौवना की वेणी जैसा गुंथ जाता हूँ
वर्फीली पर्वत चोटियों से नीचा हो जाता हूँ
और मेरा दंभ चूर हो जाता है ...
फिर कौन हूँ मैं …
कौन हूँ मैं …
अछूती कन्या के शील सी
दूर तक पसरी हुयी रेत पर
हवा की ख़ारिशों से लिखा नाम ...
चमकता हूँ दूर तक, सबसे अलग
बेचैनी से ……
और प्रस्तार की प्रतीक्षा में
किन्तु फिर दूब उग आती है
या फिर अंधड़ तूफ़ान के आते ही
ढंक जाता है …
समाप्त हो जाता है मेरा अस्तित्व
फिर कौन हूँ मैं …
कौन हूँ मैं …
काल की अनवरत धारा पर
बनी हुयी एक आकृति …
बहती जा रही है
अपनी क्षणभंगुरता से बेख़बर …
यौवन की देहरी पर खड़ी
आसपास की सभी आकृतियों को
आकृष्ट करने में निरन्तर ….
एक निश्चित दूरी पर,
बहती हुयी धारा में जो भँवर है
वहां पहुंचते ही आकृति विलीन हो जाती है
कहीं कोई नाम नहीं …. कोई निशान नहीं
गीली रेत पर पगचिन्ह…
दोपहर होते ही मिट जाते हैं
फिर कौन हूँ मैं ….
मैं हूँ ... .... ...
शायद एक शाश्वत विचार ...
जो दिया है मैने, युग को ...
या फिर वो अमिट पल
जो जिया है मैने, मिटने से पहले
4 टिप्पणियाँ
bahut sunder rachna sir,ek ek shabd rachna ko sajeev kar dete hai badahai
जवाब देंहटाएंACHCHHEE KAVITA KE LIYE BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA
जवाब देंहटाएंमित्र राजीव श्रीवास्तव जी टिप्पणी हेतु
जवाब देंहटाएंआभार
आदरणीय प्राण शर्मा जी सादर प्रणाम आपके स्नेहाशीष की सदैव कामना रहती है.
अच्छी कविता...बधाई
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.