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निराला के बाद कविता दिवंगत हुई [आज निराला जी की पुण्यतिथि पर विशेष आलेख] - राजीव रंजन प्रसाद

आज की कविता ने जो रास्ता लिया है वह निरंतर पाठकों से दूर होता जा रहा है। पंत, प्रसाद, महादेवी, बच्चन और निराला के हिन्दी साहित्याकाश को विदा कहते ही कविता अनाथ हो गयी है। अब बडे बडे नाम रह गये हैं, बडे बडे नामों को मिलने वाले पुरस्कार और सम्मानों की फेरहिस्त भी लम्बी है और उनकी किताबों के अंबार भी हैं किंतु अब वो कवितायें हैं जिनमें आत्मा नहीं बसती। निराला से कविता में प्रयोग आरंभ हुए किंतु कवि निराला ही रहे बाकी विशेषज्ञ हो गये। अजीबोगरीब बिम्ब और लच्छेदार भाषा अगर यही कविता है तो भारी मन से स्वीकार करना होगा कि निराला के बाद कविता दिवंगत हुई।

मैने अपनी याद में कक्षा दसवी में अपनी हिन्दी की पाठ्य पुस्तक में निराला को पढा था वह कविता अभी याद है मुझे -

वह आता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
पेट-पीठ दोनों मिल कर हैं एक
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को-भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

कविता नें एक चित्र खींच दिया था। मेरे मन पर यह रचना इस तरह बैठी थी विशेष कर बिम्ब "पेट-पीठ दोनों मिल कर हैं एक" कि किसी भी भिक्षुक को देख कर यही बिम्ब मुझे भीतर तक कचोटता था। मुझे कविता की अंतिम पंक्तियों नें हमेशा सिहराया है, सोचने पर बाध्य किया है -

चाट रहे जूठी पत्तल वे कभी सडक पर खडे हुए
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अडे हुए।
ठहरो, अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूंगा।
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दु:ख मैं अपने हृदय में खींच लूंगा।

निराला की कवितायें यह सिद्ध करती हैं कि कविता केवल भाषा पर गहरी पकड नहीं अपितु भावों की समग्र विवेचना भी है। कविता का संबंध शब्द, बिम्ब या कि शास्त्रीयता से नहीं वरन हृदय से है।

निराला का जन्म 21 फरवरी, 1896 को उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के मूल निवासी पंडित रामसहाय त्रिपाठी के घर हुआ जो उस समय मेदिनीपुर के राजा की नौकरी कर रहे थे। बचपन में ही उनकी माता का देहांत हो गया था। मातृविहीन बालक निराला का लालन पालन पिता के कठोर अनुशासन में हुआ। चौदह वर्ष की आयु में उनका विवाह मनोहरी देवी से हुआ किंतु उनका पारिवारिक जीवन अधिक सुखमय नही रहा। निराला को कठोर परिस्थितियों और झंझावातों नें सर्वदा घेरे रखा। 1918 में उनकी पत्नि का देहांत हुआ और उसके बाद पिता, चाचा और चचेरे भाई के एक एक कर हुए निधन नें कवि हृदय को व्यथिर रखा। किंतु पुत्री सरोज की मृत्यु नें निराला को जैसे तोड कर ही रख दिया। इसी कारण 9 अक्टूबर 1936 को ’सरोजस्मृति’ नामक कविता अस्तित्व में आई जो हिन्दी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ शोकगीत माना जाता है। कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं:-

मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!

निराला छायावाद काव्ययुग के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं किंतु उनकी क्रांतिकारी अभिव्यक्ति ही उन्हे निराला के रूप में संपूर्ण करती है। शोषक के प्रति उनका विद्रोह और आक्रोष जहाँ सर्वत्र दिखाई पडता है वहीं उपेक्षित वंछित और शोषित के प्रति उनकी सवेदना उनकी कविता में प्राण बन कर जीती रही है। उनकी अमर कविता में यह बानगी दीख पडती है -

वह तोडती पत्थर
कोई न छायादार
पेड जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन प्रिय कर्म रत मन
गुरु हथौडा हाथ,
करती बार बार प्रहार
सामने तरु मालिका अट्टालिका, प्राकार।

जागो फिर एक बार, महाराज शिवाजी का पत्र, झिंगुर डट कर बोला, महँगू महँगा रहा आदि कवितायें शोषकों के विरुद्ध शोषित की आवाज का आह्वाहन हैं। निराला का यह विद्रोही रूप उनकी विषय वस्तु के साथ साथ शिल्प में भी दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने परम्परा से चले आ रहे छंदो के बंधनों को तोड कर मुक्त छंद की घोषणा की। इस प्रकार निराला नें वीरत्व-व्यंजक स्वच्छंदतावादी भावबोध को व्यक्त किया है। निराला के काव्य में संधि समास युक्त विविध जाति तथा ध्वनि वाले शब्दों का आधिक्य है। वाक्यों में कसाव, शब्दों में मितव्ययता और अर्थ सघनता उनकी काव्य भाषा की विशेषतायें हैं।

निराला नें महिषादल राज्य की सेवा 1918 से 1022 तक की। इसके बाद ’निराला’ जी ने बंगाल छोड़ दिया और लखनऊ आ गये। यहाँ भी कुछ समय रहकर वे इलाहाबाद के दारागंज मुहल्ले में आकर रहने लगे जहाँ इनके जीवन का अधिकांश समय गुज़रा। जीविकोपार्जन के लिये विभिन्न प्रकाशनों में प्रूफ-रीडर के तौर पर काम किया और1922-23 में ’समन्वय’ नामक पत्रिका का संपादन भी किया। 1923 में निराला "मतवाला" के संपादन से हुडे और इसके बाद लखनऊ से निकलने वाली पत्रिका "सुधा" से वे 1935 तक संबद्ध रहे। 1942 से मृत्यु पर्यंत निराला इलाहाबाद में आ कर रहने लगे तथा स्वतंत्र लेखन करते रहे। अपने विद्रोही स्वभाव तथा अपारंपरिक लेखन के कारण सृजनकर्म से उन्हें कभी पर्याप्त आमदनी न हुई। कहा जाता है कि मृत्यु से पूर्व वे कुछ विक्षिप्त से भी हो गये थे। 15 अक्टूबर 1961 को जूही की कली, तुलसीदास, राम की शक्ति-पूजा, सरोज-स्मृति, वह तोड़ती पत्थर, रानी और कानी, कुकुरमुत्ता (कवितायें), देवी, लिली, चतुरी चमार, कुल्लीभाट, बिल्लेसुर बकरिहा (गद्य रचनायें) जैसी अनेक कालजयी कृतियों के इस अमर रचनाकार ने अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया।

आज महाकवि निराला जी की पुण्यतिथि पर “साहित्य शिल्पी परिवार” उन्हे स्मरण करते हुए नमन करता है।

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7 टिप्पणियाँ

  1. उस अमर रचनाकार को नमन |

    अवनीश तिवारी

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  2. महाकवि निराला एक उच्च कोटि के कवि होने के साथ साथ संगीत कला के अच्छे जानकार भी थे| अत: उनकी अधिकांश रचनाओं में संगीत का तत्व उपस्थित है| इसके लिये कभी कभी उन्हें स्थापित छंदों को आवश्यकतानुसार तोड़ना पड़ा या शब्दों में मात्रायें कम ज़्यादा करनी पड़ीं| परंतु इससे काव्य की आत्मा नष्ट नहीं हुई|
    आज ऐसे ऐसे लोग कवि बन गये हैं जिन्होंने संगीत की शिक्षा लेना तो दूर काव्य का रसास्वादन करना भी नहीं सीखा| ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने अपनी कविताओं के अतिरिक्त कोई कविता पाठ्यपुस्तकों में ही पढ़ी होगी| यदि ऐसे लोग कविताएं लिखेंगे तो उसका स्तर क्या होगा, यह समझा जा सकता है|
    दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो कविता करने से ज्यादा पाठकों पर अपने शब्द संयोजन और बिम्ब विधान का रौब डालना चाहते हैं| अत: इनकी कविताएं सामान्य पाठकों को यदि समझ में नहीं आतीं तो यह कोई बड़ी बात नहीं है| कविता के दिवंगत हो जाने की आपकी बात के लिए, ये तथाकथित विशेषज्ञ कवि बहुत हद तक जिम्मेवार हैं|
    आज निराला जी पुण्यतिथि पर इस महामानव और महाकवि को शत शत नमन करते हुये हमें प्रण लेना होगा कि कविता को इन तथाकथित विशेषज्ञ कवियों से बचाने का यथासंभव प्रयास करेंगे!

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  3. Kavita mein avrodh aayaa hai . Thode samay ke
    liye hai . kavita apne purane roop mein phir
    aayegee , phir har kisee ko prabhaavit karegee .
    Nirala jee ko naman .

    जवाब देंहटाएं
  4. bhai rajiv ji jb aap ne is amr sahitya kar ka smrn kiya hai to kvita bhla kahan mri hai aur aap ke anusar to sahity shilpi ka aur bhi dayitv bdh gya hai kuchh hmare any bndhu bhi is me sahbhagi hain sakhikaabira ,aakhrkalash,chrcha mnch aadi sb lge hainn
    kvita n kbhi mri hain n hi mregi
    jb aap jasi nishthavan jn hain to nishchit rhegi hi
    aalekh me bda shrm kiya gya hai sundr aalekh hai bdhai

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  5. प्रिय राजीव
    आपका लेख बहुत पसन्द आया। मगर एक बात। हर युग की अपनी कविता होती है। यदि ऐसा न होता तो शेक्सपीयर के बाद अंग्रेज़ी में कविता लिखी ही नहीं जाती। मिल्टन, डन, ड्रायडन, पोप, वर्ड्सवर्थ, कीट्स, शैली, बॉयरन, टी.एस. ईलियट आदि कविता को शेक्सपीयर से आगे ले गये। ठीक वैसे ही सभी भाषाओं में हैं। आज राजीव प्रसाद कविता लिखते हैं जो कि आज के युग की कविता है। हमारा अतीत इसलिये है ताकि हम उसकी जानकारी रखते हुए अपने निजि टेलेंट से उस अतीत को भविष्य की ओर ले जाएं। हिन्दी की वर्तमान कविता और ग़ज़ल किसी भी मायने में पुरानी कविता से कम नहीं है। हमें इस आदत से बचना होगा कि हर पुरानी चीज़ महान है और वर्तमान चीज़ कमज़ोर है।

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