
घर पहुँचकर मोहनी ने जैसे ही दरवाज़ा खोला, रघु से उसका सामना हो गया। कुर्सी पर पसरा रघु उसे कुछ अधिक ही गंभीर दिख रहा था। वह रघु की ओर देखे बिना पर्दा उठाकर जैसे ही अन्दर जाने लगी कि उसे रघु की आवाज़ सुनाई पड़ी-- “इतनी देर तक कहाँ रही?”
“रास्ते में बस ख़राब हो गयी थी।" --रुककर उसने ज़वाब दिया।
“झूठ बोलते शर्म नहीं आती?”
“इसमें झूठ क्या है?”
“यह क्यों नहीं कहती कि आज फिर गौतम के साथ... मैंने अपनी आँखों से तुम्हें उसके स्कूटर से उतरते देखा था... मेरे रोकने के बावजूद...आखिर तुम चाहती क्या हो?”
“मैं क्या चाहती हूँ, यह आज तक आप नहीं समझ पाये इन तीन वर्षों में।" --मुड़कर वह बोली। उसका चेहरा तमतमा रहा था।
“यह मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है। आज वस्तुस्थिति स्पष्ट किए बिना तुम अन्दर नहीं जा सकती।" --रघु दहाड़ा।
“ओह... यह बात है... तो सुनो।" --व्यंग्यात्मकता के साथ वह बोली-- “आपको मुझसे जो कुछ चाहिए था, वह आपको हर महीने की आख़िरी तारीख़ को मेरे वेतन के रूप में मिल जाता है...आपने मुझ से नहीं, मेरी नौकरी से शादी की थी... क्या यह सच नहीं है?... लेकिन जो कुछ मुझे आपसे मिलना चाहिए था, वह कितना दे सकें हैं आप?... फिर यह ईर्ष्या, यह जलन क्यों?”
उसने रघु के चेहरे पर दृष्टि डाली। उसका चेहरा सफ़ेद पड़ा हुआ था। रघु की प्रतिक्रिया जानने की प्रतीक्षा किए बिना ही पर्दा उठाकर वह अन्दर चली गयी।
6 टिप्पणियाँ
नये समय का सच
जवाब देंहटाएंवास्तविकता
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
kahani thodi badi hoti to iski sarthakta bad jati ...
जवाब देंहटाएंROOP SINGH CHANDEL JEE SMARTH KATHAKAAR HAIN .
जवाब देंहटाएंUNKEE IS LAGHU KATHA NE BHEE BAHUT PRABHAAVIT
KIYAA HAI .
बहुत सच लिख दिया, कहानी बन जाती तो और भी मज़ा आता.
जवाब देंहटाएंवैसे लघु कथा ने अपना रस दे दिया.
सुधा ओम ढींगरा
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