
साहित्य शिल्पी पर नये स्तम्भों की श्रंखला में अब प्रतिमाह की पहली तिथि को "पुस्तक चर्चा" प्रस्तुत की जायेगी। इस स्तम्भ के लिये हम समालोचकों, लेखकों और पाठकों से अनुरोध करते हैं कि वे अपनी पसंद की पुस्तकों पर अपने आलेख और विचार प्रस्तुत करें जिन्हें इस स्तम्भ के अंतर्गत प्रस्तुत किया जा सके।
यदि पाठक/लेखक/प्रकाशक किसी पुस्तक पर चर्चा प्रस्तुत करना/करवाना चाहते हैं तो वे sahityashilpi@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।
आज इस कडी में प्रस्तुत है कवियित्री सुधा ओम ढींगरा के काव्य संग्रह "धूप से रूठी चाँदनी" पर चर्चा।
- साहित्यशिल्पी
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कवियित्री की रचनात्मकता का अंदाज़ा काव्य-संग्रह के शीर्षक से ही हो जाता है – “धूप से रूठी चाँदनी”। धूप और चाँदनी दोनों ही परस्पर विरोधाभासी बिम्बों की रूठन को सुधा जी की कविताओं नें बखूबी प्रस्तुत भी किया है। इस बिम्ब में गहरे उतरते ही सुधा जी के लिये कहे गये निदा फाजली के शब्द सजीव हो उठते हैं कि “आदमियों की भीड में इंसान तलाश करती सुधा ओम ढींगरा की मुक्त छंद में कवितायें छूटे हुए रिश्तों और रिशतों से जुडे मूल्यों की तस्वीर बनाती हैं”। सुधा ओम ढींगरा का काव्य संग्रह “धूप से रूठी चाँदनी” वर्गाकार पुस्तक के रूप में शिवना प्रकाशन सीहोर द्वारा प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक का आवरण चित्र विजेन्द्र एस विज नें बनाया है जो कवियित्री की रचनाओं के साथ पूर्णत: साम्य स्थापित करता है। एक सौ बारह पृष्ठों के इस काव्य संग्रह में सुधा जी की इकहत्तर कवितायें संग्रहीत हैं।
डॉ जगदम्बा प्रसाद दीक्षित की समीक्षात्मक टिप्पणी काव्य संग्रह के आवरण पृष्ठ पर ही प्रकाशित की गयी है जहाँ वे लिखते हैं – “सुधा ओम ढींगरा की कविताओं में एक टीस और तेज दर्द है। इसमें पश्चिम प्रवास की पीडा के साथ साथ नारी जीवन की तीव्र अनुभूतियाँ पाठक के हृदय को छू जाती हैं।“ यदि काव्य संग्रह में रचनाओं की अनुक्रमणिका पर ही दृष्टि डाली जाये जिसे ‘तरतीब’ कह कर प्रस्तुत किया गया है तो भी आँगन, नींद, रिश्ते, रूह, तेरा मेरा साथ, तलाश, मोम की गुडिया, खिलवाड, माँ, बिखराव, अलगाव, जीवन, परदेस की धूप, पीडा, मजबूरी जैसे शीर्षक कविताओं के मर्म की तस्वीर तो देते ही हैं। सुधा जी के काव्य संग्रह को जितनी बार पढा जाये वह नये मायने प्रस्तुत करता है। रचनाओं की गहरायी पाठकों की संवेदनाओं से खेलती है और उससे सीधे जुड कर स्वयं में आत्मसात कर लेती है। सुधा जी अपनी कविताओं के लिये बिम्ब कभी प्रकृति से लेती हैं, कभी आम जीवन के चाल-व्यवहार से, तो कभी माँ की अनुभूतियों को शब्द देती हैं। सुधा जी की लेखनी सामाजिक सरोकारों पर भी खूब चली है। मुक्त छंद की गद्यात्मकता भावनाओं की सरिता के साथ बहा ले जाने में सुधा जी सफल हुई हैं। -
तुम / अकारण रो पडे...
दोपहर देख/ ढलती उम्र की/ दहलीज पर
हमें तो/ यौवन/ अपना याद आया/ तुम्हें क्या याद आया..?
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दिन की आड में/ किरणों का सहारा ले/ सूर्य नें सारी खुदाई/
झुलसा दी धीरे से रात नें/ चाँदनी का मरहम लगाया/
तारों के फाहे रख चाँदनी को पट्टी कर/ सुला दी।
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समय के थपेडों नें/ सर झुका दिया/
और/ लोगों नें सोचा कि प्रार्थना/
उपासना/ करने लगी।
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पीडा का अनुभव जानना है/ तो जाओ/ लाल जोडे में सिसकती/
उस मासूम/ अनब्याही के आँसुओ में झाँको/
दर्द का समंदर मिल जायेगा सारे प्रशनों का उत्तर/
एक बूंद के अंदर मिल जायेगा..
सुधा जी के काव्य संग्रह से ही उद्धरित ये पंक्तियाँ उनकी भाव तथा भाषा पर पकड को भी दर्शाती हैं। कविताओं में अपनी ही सादगी है, जबरदस्ती के लादे गये बिम्ब एवं शब्द नहीं दिखाई पडते। ये कविताएं मन का आईना है और इन कविताओं में जबरन किसी विचार अथवा विचारधारा की कील पाठक के मस्तक पर ठोकने का प्रयास नहीं किया गया है। कहते हैं कि कविता को उसके जटिल खोल से निकाल दिया जाये तभी वह मोती है; सुधा जी बहुत हद तक एसा कर पाने में सक्षम हुई हैं। उनके काव्य मोती अपनी स्वाभाविकता के कारण ही दमकते हैं।
अ) प्रकृति और सौन्दर्य
डिपार्टमेंट ऑफ एशियन स्टडीज, युनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलाईना के प्रोफेसर डॉ. अफरोज ताज कहते हैं कि “डॉ. सुधा ओम ढींगरा की शायरी में ज्यादातर प्रकृति से सीख दी जाती है। फूल, माली, चाँद, चाँदनी, बर्फ, धूप, छाँव, बरसात, माँ की ममता, पतझड, इत्यादि इनके बडे प्यारे कोमल उदाहरण हैं”।
वस्तुत: सुधा जी नें जीवन और प्रकृति दोनों के ही सौन्दर्यबोध को अपनी कविता में प्रवाह देने का माध्यम बनाया है। आज की कविता को भाषा और भाव दोनों में ही सादगी की दरकार है। समकालीनता के नाम पर जिस तरह की कविता चलन में कही जाती है वस्तुत: उसके पाठक नहीं हैं। कविताई न तो बिम्बों और शब्दों का खिलवाड है न ही अतिशास्त्रीयता अपितु वह तो सरिता है जिसका मूल गुण है प्रवाह। बात आँगन और सुख की हो लेकिन धूप और चाँदनी के माध्यम से कही जाये तो कविता अनुपम हो जी जाती है –
निखर आया है अब/ मेरा आँगन
खिडकियों से झाँकती धूप और/
सरकती चाँदनी का अलौकिक सुख, कभी भीतर क़दम रखना..
धूप, सूरज, चाँद और चाँदनी सुधा जी के प्रिय बिम्ब प्रतीत होते हैं। यह अभिव्यक्ति की पुनरावृत्ति नहीं अपितु अभिव्यक्ति के लिये इन उपमानों से सहज प्रेम है। अति प्राचीन इन उपमानों के प्रयोग में सुधा जी नें अपनी मौलिकता और नवीनता प्रदर्शित की है, यही कारण भी है कि काव्यसंग्रह का नाम उचित जान पडता है। कुछ उदाहरण उल्लेखनीय हैं -
चाँद को देख/ आँखें मूंदनी पडीं
बिनबुलाए बेमौसम झरती फुहारों सी स्मृतियाँ जब उनकी चली आयीं
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चंद्रमा में छिपी आकृति/ आकार लेती नजर आती
कभी उसकी माँ सूत कातती लगती
तो कभी हमारी दादी दिखती।
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उनींदी उनींदी सी वह/ फिर सूर्य में सिमट गयी
दिन भर दुबकी रही/ शीश बगीचे की चमक वह सह नहीं पाई।
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धरती पर छटा बिखेरने जब/ चाँदनी उतरने लगी चाँद नें उदास हो पूछा/
मुझ आधे अधूरे में तुम/ समायी रहती हो मेरे पूर्ण होते ही छोड जाती हो।
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चाँद से/ मुट्ठी भर चाँदनी/
उधार ले आई हृदय के उन कोनों को/ उजागर करने के लिये।
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सूरज सा तुम जलते रहे/ चाँदनी बन ठंडक मैं देती रही
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किरणों के फावडे से/ सूर्य नें/ सारी ख़ुदाई/
खोद डाली रात उतरी/ मेढ से औ/ चाँद तारे/ बो गयी
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चाँद से तो नम न होगी वादों की जमीन
आँचल जब किरणों से/ भरने का वादा किया होगा
ब) नारी
स्त्री विमर्श सुधा ओम ढींगरा की कविताओं की अनिवार्य कवितावस्तु है। सुधा जी नें एक स्त्री के प्रवासी होने के मायने को तो अपने अनुभवों का दृश्टिकोण दिया ही है साथ ही देसज परिवेश में जी रही औरत और उसका संघर्ष कवियित्री के अनुपम बिम्बों में आकार लेता है। सुधा जी शब्दजाल नहीं बुनती अपितु कविता करती हैं और दर्द पाठक के भीतर स्वत: अनुभूत होने लगता है। स्त्री विमर्श पर सुधा जी की कविता बिना लागलपेट के विचारधारा की तरह घोषणा करती है –
मैं एसा समाज निर्मित करूंगी
जहाँ औरत सिर्फ माँ, बेटी/ बहन, पत्नि या प्रेमिका ही नहीं
एक इंसान/ सिर्फ इंसान हो..... उसे इसी तरह जाना,/
पहचाना और परखा जाये।
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स्री पुरुष दोनों से/ सृष्टि की संरचना है फिर यह असमान्यता क्यों?
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औरत का आदि है न अंत/ विस्तार ही विस्तार है बेटी, बहन, बहू, पत्नि/
माँ, सखी, प्रेयसी, प्रेरणा..
सीमित कहाँ
और यह महज सपाट विचारधारा नहीं है। नारी के मनोभावनाओं को व्यक्त करते हुए सुधा जी की कविता कभी व्यंग्य करती है, कभी दु;ख से भर उठती है तो कहीं कहीं तल्ख भी हो जाती हैं –
कठपुतली हो उसके हाँथों की/
फिर नाज़ नखरा कैसा? नाचो जैसे नचाता है/
वह आका है तुम्हारा...
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सभालो मुझे माँ.../ दाग़ दामन का ना बन
चाँद माथे का बन चमकूं..
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जहाँ भावनायें रावण बन/ सामाजिक मर्यादाओं की
लक्ष्मण रेखा पार करना चाहती हैं/ और मन सीता सा
इंकार करता हुआ भी/ छला जाता है।
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आँचल में बच्चों को समेटे/ मल्लिका सी नाजुक वह
वृक्ष रूपी पुरुष को/ अपने वदन से लिपटाये
मजबूत खडी/ प्रश्न सूचक आँखों से तकती है
वह कमजोर कहाँ है?
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दुनियाँ नें जिसे सिर्फ औरत
और तूने/ महज़ बच्चों की माँ समझा...
और तेरे समाज नें नारी को/ वंश बढाने का बस एक
माध्यम ही समझा/ पर उसे इंसान किसी नें नहीं समझा
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तदबीर-तक़दीर बदलना चाहती है
ग्रहों, लकीरों से उपर उठ सोचना चाहती है...
स्वीकार न कर तुम../ क्यों हकलाये थे...
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स्वाभिमान मेरा/ अहम तुम्हारा
अकडी गर्दनों से अडे रहे हम।
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निर्वस्त्र होती पीडिता को/ कोई कृष्ण बचाने नहीं आता
क्या औरत की नियति/ हर युग में लुटना ही है...
सुधा जी नें नारी के मन की प्रेम और वेदना को भी शब्द दिये हैं। सुधा जी की कविताओं की नायिका हठी नहीं है, वह केवल सवालों के साथ या कि समाज को बदलने के अपने जज्बे के साथ ही उपस्थित नहीं होती अपितु वह कृष्ण की गोपी भी है और रांझे की हीर भी। तथापि सुधा जी की कविताओं की नायिका विरहिणी अधिक प्रतीत होती है। –
पुराने जर्जर/पीले पडे पत्र/ उद्धव का संवाद से
गोकुल में भतकती/ ग्वालिन के/ व्यथित हृदय/ पीडित मस्तिष्क में
नयी संचेतना संचारित हैं करते।
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एकाकी न घूमना/ जंगल में तनहाईयों के,
कुछ टूटे फूटे शब्द मेरे तेरे पास होंगे
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समुद्र में/ रह कर भी प्यासे रहे
कुछ अश्रु ही टपकें तो प्यास बुझा लें।
स) माँ
आम अवधारणाओं से अलग माँ केवल सुधा जी के लिये वात्सल्य ही नहीं है अपितु उन्होंने एक सखी का भी मान दिया है। अपनी कविता में सुधा जी के अहसास माँ शब्द को अपनी कविताओं में जिला देते हैं और सुखानुभूति होती है कि वे अपनी जिज्ञासायें और प्रश्न सम्मुख रख देने में गुरेज नहीं करतीं। तथापि वे माँ को अपने अंतस में दर्प के फूल खिलाने वाली स्मृति भी करार देती हैं -
क्षण क्षण, पल पल/ बच्चे में स्वयं को स्वयं में तुमको पाती हूँ/ ज़िन्दगी का अर्थ
अर्थ से विस्तार/ विस्तार से अनंत का सुख पाती हूँ..
मेरे अंतस में दर्प के फूल खिलाती हो
माँ तुम याद बहुत आती हो..
प्रवास पर कवयित्री जिस पीडा का अनुभव कर रही हैं और जो प्रश्न उन्हें चुभते हैं उनके उत्तर के लिये माँ ही सोच का माध्यम बनती हैं; कदाचित वो अपने अंतर्द्वन्द्व में उन्हें इंगित करने से भी नहीं चूकती और विरोधाभास पाने पर सवाल भी उठाती हैं –
माँ नें कहा था/ चली जा परदेस/ लगेगा अपना सा देस
बाबा नें कहा था/ मन पसंद साथी हो जिसका/ जंगल में मंगल हो उसका
...मैं ढूंढती हूँ, अपना देस/ ये तो रहेगा परदेस.../
कभी न होगा मेरा देस.... माँ नें कहा था चली जा परदेस....
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माँ कहती थीं/ सुख बाँटने से बढता है/
दु:ख बाँटो तो कम होता है उल्टा ही देखा यहाँ/
परदेस की धरती/ करती है अमीर डॉलर/तनहाई/ ईर्ष्या या/ ग़म की समाई..
पर दिल से हैं गरीब/ दूसरों की खुशी/ अपना गम/ बाँटा नहीं जाता..
देखा/ हम कितने हैं अमीर../ और आप...?
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माँ तू कहा कहती थी/ चादर देख पैर पसारो/
पर यहाँ रिवाज निराला चादर के बाहर पैर पसारो/
इसी में देश की खुशहाली है क्रैडिट कार्ड पर खर्चा करो/ बैंको से कर्जा लो
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तुम चिंता न करना माँ/ दो बरस और नहीं आ पाउंगी
ग्रीन कार्ड मिलने में/ अभी टाईम है
द) प्रवासी
कवियित्री नें अपने प्रवासी जीवन को सहजता से अपना नहीं माना है। उसे अपनी भारतीयता कुरेदती है और अनेकों बार वे परम्पराओं और विश्वास को ले कर आलोचनात्मक भी हो जाती हैं। वे अपनी पीढी की चिंता से ग्रसित हैं, संस्कार और मान्यताओं की टीस लिये हुए हैं साथ ही कवियित्री की रचनायें साफगोई से कह देती हैं, उनकी रूह स्वदेश में ही बसती है -
आतंकवादी हमला हो/ या जातिवाद की लडाई
रूह/ वापिस देश अपने/ भाग जाती है
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मेरा बच्चा कहाँ ले पायेगा/ खुशबू गीली-गीली माटी की
भीनी भीनी माती की/ सौंधी सौंधी माटी की/ संयुक्त परिवार वाली परिपाटी की...
वो देखेगा/ सच के घर टूटना/ और बच्चों का माँ-बाप को/ डाईवोर्स देना....
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हैरान नहीं होना/ यदि कोर्ट में/ आई लव यू कहते हुए/
तलाक की अर्जी दे और “हनी नें पीटा”/ दोषारोपण करे
स्वीटी/ हम दोस्त रह सकते हैं/ पर साथ नहीं.../
कह कर अलग हो जाये.. प्रिय, यह दुनिया है प्यारी/ बातें हैं इसकी न्यारी..
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ढूंढे रास्ता घर का/ न पहुँचे आज तक/ उलझ गए
डालर, महल, कारों में/ भटके हैं जैसे हम...
ई) सामाजिक सरोकार
यह अतिशयोक्ति नहीं कि सुधा जी की रचनाओं के कई आयाम हैं। उनकी कविताओं को किसी रंग या वाद से परिभाषित नहीं किया जा सकता किंतु समाज को देखने का उनका अपना ही नजरिया है। वे राजनीति पर भी अपनी बेबाक राय रखती हैं तो देशप्रेम भी उनका विषय बनता है। इराक में जबरन थोपे गये युद्ध में मारे गये सैनिक की माँ भी उनकी कविता को दृष्टिकोण देती है तो वे नैतिकता को ले कर भी अपनी बात कहने से नहीं चूकतीं -
और हर बार/ उसके प्रश्न नेताओं के सामने परोसे-/ मुर्गों के नीचे दब जाते हैं
शराब के प्यालों में बह जाते हैं।
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ईश्वर से साक्षात्कार के मार्ग/ तू बंद कर आई है
उसने तुझे बनाया/ तूने उसे पाया, यह भ्रम है
उस तक जाने के रास्ते हैं/ एक रास्ता पकड नहीं तो भटक जायेगी
तेरा कल्याण नहीं होगा।
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कुछ रिसते झोंपडों में/ जब झांक कर देखा; मानुषी भेस में स्वयं.../ भगवान मिल गये
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तब झट से/ किसी कंकर पत्थर की सडक पर/ नाम लिखवाया/
चौराहे पर बुत लगवाया विचारों, आदर्शों को/
सीधे शमशान पहुँचाया/ और गहरे दफनाया
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जो बेगुनाह था/ पर देश प्रेम से/ ओत प्रोत देशभक्त था
देश के लिये शहीद हो गया
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हर पत्ता/ राजनीति की तरह/ कई रंग बदलता है रंग बिरंगे सूखे पत्ते/
गिरते गिरते/ धरती भर जाते हैं नेता जाते जाते/ देश को खाली कर जाते हैं
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साहित्य शिल्पी की डॉ. सुधा ओम ढींगरा को काव्य संग्रह के लिये हार्दिक शुभकामनायें।
13 टिप्पणियाँ
Pustak charcha ke madhayam se sudha jee ke kavitaaon ko padane ka moka mila. Badhai
जवाब देंहटाएंnice and thanks
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
सुधा जी की इस पुस्तक को पढने की इच्छा हो रही है खास कर माँ और नारी विषयक उद्धरणों को पढ कर। बहुत अच्छी समीक्षा है।
जवाब देंहटाएंकाव्य संग्रह से को काव्य मोती सुने गये हैं वे सुन्दर है। सुधा ढींगरा जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंराजीव जी आपने बहुत ही सुंदर तरीके से पुस्तक की समीक्षा की है और सबसे अच्छी बात मुझे ये लगी कि आपने एक एक कविता को पढ़कर ही समीक्षा लिखी है । बावजूद इसके कि आप अपने उस प्रोजेक्ट में व्यस्त थे । बहुत ही सुंदर समीक्षा ।
जवाब देंहटाएंविस्तृत और बारीक विवेचना
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा, बधाई
जवाब देंहटाएंPAHLEE PUSTAK KEE SAMEEKSHA KAA PRARAMBH AAPNE
जवाब देंहटाएंPRASIDDH KAHANIKAR AUR KAVYITRI SUDHA OM DHEENGRA KAVYA SANGARAH " DHOOP SE ROOTHEE
CHANDNI" SE KIYA HAI . BAHUT KHOOB ! AAPNE JIS -
JIS PANKTI KO UDDHRIT KIYA HAI , MUN MEIN UTAR
GYEE HAI . AAPKAA VIVECHAN SRAHNIYA HAI . AAPKO
HARDIK BADHAAEE ,DEEWAALEE KEE SHUBH KAMNAAON KE SAATH .
राजीव जी,
जवाब देंहटाएंकुछ दिनों से कंम्प्यूटर के समक्ष नहीं आ पाई थी | व्यवसायिक व्यस्तताओं और निजी कारणों से उलझ गई थी |
आज ही कम्प्यूटर खोला और आप की इमेल पाई | साहित्य-शिल्पी खोल कर विभोर हो गई | समीक्षा की प्रसन्नता से बढ़ कर जो सुख मुझे मिला है कि आप ने मेरी पुस्तक का एक -एक शब्द बहुत गहराई से समझा है | एक रचना कार के लिए इससे बड़ी और क्या उपलब्धि हो सकती है |
धन्यवाद और दीपावली की शुभ कामनायों के साथ,
सुधा ओम ढींगरा
सुधा जी के काव्य संग्रह का निचोड प्रस्तुत कर दिया गया है।
जवाब देंहटाएंसमीक्षा प्रस्तुत करने का यह तरीका प्रशंसनीय है। इस तरह के उदाहरण पूरे संग्रह को पढने की अनुभूति दे देते है।
जवाब देंहटाएंतेजेन्द्र जी की यह टिप्पणी ई-मेल द्वारा प्राप्त हुई है।
जवाब देंहटाएं----------
सुधा जी के लेखन को मैं काफ़ी समय से देख रहा हूं, पढ़ रहा हूं और सराह रहा हूं। मैं यह कहता रहा हूं कि अधिकतर वरिष्ठ आलोचक केवल वहीं रचनाएं पढ़ते हैं जो उनके गुट या आसपास के लोगों द्वारा रचित होती हैं। विदेशों में जो उत्कृष्ठ लेखन हो रहा है उसकी ओर ध्यान भी नहीं दिया जा रहा। सुधा जी कहानी, कविता, लेख, आलोचना, साक्षात्कार एवं संपादन आदि विधाओं से जुड़ी हैं और प्रत्येक क्षेत्र में उत्तम काम कर रही हैं।
अपनी समीक्षा में आपने सुधा जी की कविताओं की गहरी पड़ताल की है। आपका कहना है कि, ये कविताएं मन का आईना है और इन कविताओं में जबरन किसी विचार अथवा विचारधारा की कील पाठक के मस्तक पर ठोकने का प्रयास नहीं किया गया है। कहते हैं कि कविता को उसके जटिल खोल से निकाल दिया जाये तभी वह मोती है; सुधा जी बहुत हद तक एसा कर पाने में सक्षम हुई हैं। उनके काव्य मोती अपनी स्वाभाविकता के कारण ही दमकते हैं।
मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं।
आशा है आप ऐसे ही विदेशों में रचे जा रहे साहित्य से इंटरनेट पाठकों का परिचय करवाते रहेंगे। आप जैसे युवा आलोचकों की पीढ़ी ही विदेशों में रचे जा रहे साहित्य को उसका उचित स्थान दिलवा सकता है।
पुस्तक का मर्म जैसे सारा का सारा समेटकरआपने समीक्षा में रख दिया है...बिना पुस्तक पढ़े भी पढ़ने जैसा आभास हो रहा है....
जवाब देंहटाएंराजीव जी आभार आपका और
सुधा जी को बहुत बहुत बधाई...और शुभ-कानाएं...
अगला संकलन शीघ्र आने के लियें...
गीता...
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.