मैं ठहरी विशुद्ध भारतीय पारंपरिक वातावरण में पली-बढ़ी महिला। विदेश और वह भी लंदन जाना मेरे लिये तो सपना ही था। लेकिन कहीं न कहीं दिल में यह तमन्ना ज़रूर थी कि एक बार ब्रिटेन जाना ज़रूर है और यह देखना है कि मेरे भारत देश पर निर्मम शासन करनेवाले कैसे दिखते हैं। कहते हैं न कि ईश्वर से सच्चे मन से कुछ मांगा जाये तो वह एक मौका ज़रूर देता है।
मैं और सूरज प्रकाश अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान से जुड़े हैं। वे भारतीय प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं। सो सन् 2007 में किन्हीं पारिवारिक कारणों से सूरज प्रकाश का लंदन जाना संभव नहीं था। काम तो होना ही था। सो मेरा जाना तय हुआ। मेरे दिल में ख़लबली मची थी कि न जाने कैसा होगा वह देश और कैसे होंगे लोग। पासपोर्ट तो था, वीज़ा बनवाना था। अपने दफ्तर से नो आब्जेक्शन प्रमाणपत्र लिया। कंप्यूटर से 25 पेज़ के फा़र्म का प्रिंट आउट निकाला और उसे भरकर कई बार चेक किया कि कहीं वीज़ा वाले कोई कमी निकालकर वापस न भेज दें।
वीज़ा दफ्तर से अपाइंटमेंट लेकर सुबह 8 बजे चर्चगेट पहुंच गई। जब अन्दर पहुंची तो पता चला कि वहां मेडिकल चेकअप होना है। मेरी बारी आई तो मेरी उंगलियों से निकलती डेड स्किन को चर्म रोग मानकर आवेदन पत्र लेने से मना कर दिया। मैं चकित कि मुझे चर्मरोग है और मुझे ही पता नहीं। मैंने काउंटर पर खड़ी लड़की को समझाया कि ये सब्जी काटने के फलस्वरूप पड़े कट्स हैं, मुझे कोई बीमारी नहीं है। फिर भी वे इस बात पर अड़ी रहीं कि मुझे वीजा़ के लिये 5500रूपये नहीं भरने चाहिये, बेकार जायेंगे और वीज़ा तो मिलने का सवाल ही नहीं उठता। मैंने तल्ख़ स्वर में कहा कि मैं 5500रूपये का जुआ खेलनेवाली हूं और हारकर उनको मेरा आवेदन पत्र स्वीकार करना पड़ा। मैं नसीबवाली थी कि 3 दिन बाद वीज़ा मेरे हाथ में था। अब तो लंदन जाने से कोई रोक ही नहीं सकता था। पति महोदय पेशोपेश में थे कि मैं अकेली कैसे जाउंगी। मुझे एसकेलेटर से उन दिनों बहुत डर लगता था। सो उसका भय दिखाया गया। मैंने आश्वासन दिया कि किसी से भी मदद ले लूंगी और उसका हाथ पकड़कर चली जाउंगी।
7 जुलाई आ ही गई और मैं सुबह 10 बजे एअरपोर्ट पर थी। साथ आये लोगों का अन्दर आना मना था। सो जब मैंने बोर्डिंग टिकट ले लिया तो अन्दर से ही सबको हाथ हिलाकर बाय कर दिया। फिर अन्दर सारी औपचारिकताएं पूरी करके चेक-इन कर लिया। हाथ में एक बैग के अलावा कुछ भी तो नहीं था। लग रहा था कि चेक-इन के साथ ही मैं बिल्कुल अकेली हो गई थी, अपना कहनेवाला कोई भी तो नहीं था। अपने ही देश में बेगानी हो गई थी। भगवान की मेहरबानी थी कि फ्लाइट टाइम से थी। जहाज के अन्दर जाकर अपनी सीट पर चुपचाप बैठ गई और यात्रियों ने अपने अपने कान में ईयरफोन लगाकर मानो ये जता दिया था कि डोन्ट डिस्टर्ब। मैंने इधर-उधर देखा, सब अपने में व्यस्त। कोई पेपर पढ़ रहा है, कोई मोबाइल पर बतिया रहा है। कोई पेपर में इम्पोर्टेड सामान की सूची बना रहा है। सारे यात्री जहाज में बैठते ही विदेशियों जैसा व्यवहार करने लगे थे। मेरे लिये यह सब दिखावे के अलावा और कुछ नहीं था। इतने में सूचित किया गया कि सब यात्री अपने सीट बेल्ट बांध लें, जहाज उड़ने की तैयारी में है। बस कुछ पलों बाद ही जहाज रनवे पर पूरी स्पीड से भागा और कुछ ही क्षणों में बादलों का सीना चीरते हुए उंचा और उंचा उड़ने लगा। अब एअर होस्टेस के आने की बारी थी। वे ट्राली सरकाते हुए सभी से अपनी अपनी पसन्द के ड्रिंक या साफ्ट ड्रिंक लेने का अनुरोध कर रही थीं। सभी अपनी पसन्द का इज़हार करते हुए गिलास पकड़ रहे थे। लोगों के एक दो पैग पीने के बाद ही नशे का असर दिखने लगा था। एक बन्दा तो एक एअर होस्टेस से बार बार अपने पास आने का इसरार करने लगा। वह घबरा गई और जब फिर से उसी एअर होस्टेस को उस यात्री ने बुलाया तो हट्टा- कट्टा क्रू मेम्बर हाजि़र हो गया। ये महाशय नशे में बोले, ' मेरे को तुम नहीं, वो गोरी लड़की मंगता है'। क्रू ने साफ कह दिया कि अब उसका आना मुमकिन नहीं होगा, जो भी बोलना है, जो भी चाहिये क्रू ही लेकर आयेगा। मैं अपनी हंसी रोक नहीं पाई और आंखों ही आंखों में उस क्रू का शुक्रिया अदा किया कि उस एअर होस्टेस को उस यात्री की वाहियात हरक़त से बचा लिया था। किसी भी तमाशे को देखने से बचने के लिये मैंने उसी क्रू से कोक में थोड़ा सा वोदका डालकर देने के लिये कहा ताकि मुझे कुछ समय के लिये नींद आ जाये और सच में वह एक गिलास पीकर मैं कब नींद के आगोश में चली गई पता ही नहीं चला।
एअर होस्टेस के अनाउसमेंट के साथ नींद खुली जो उस समय मौसम की जानकारी दे रही थी। मैंने बाहर देखा तो पूरा आसमान साफ था और दूसरे देशों के उड़ते हवाई जहाज पक्षियों जैसे लग रहे थे। बहुत ही सुन्दर और साफ़ सुथरा आसमान देखकर लग रहा था कि पूरा आसमान आंखों में भर लूं। धीरे-धीरे आसमान में लालिमा छाने लगी थी जो आभास दे रही थी कि शाम हानेवाली है। कुछ देर में फिर अनाउसमेंट हुआ कि कुछ ही देर में हम हीथ्रो एअरपोर्ट पहुंचनेवाले हैं। अपने अपने सीट बेल्ट बांध लें और थोड़ी देर बाद जहाज रनवे पर दौड़ रहा था। मुझे पहले ही बता दिया गया था कि हीथ्रो एअरपोर्ट से इमीग्रेशन काउंटर क़रीब एक किलोमीटर है और एक तरह से भागना पड़ता है ताकि इमीग्रेशन काउंटर की भीड़ से बचा जा सके। सो वहां से फ़ारिग होकर सामान लेने के लिये लाइन में लग गई। जब सामान लेकर बाहर आने लगी तो कथा यूके के महासचिव तेजेन्द्र शर्मा को नज़रें ढूंढने लगीं। वे ही एअर पोर्ट पर आनेवाले थे। विजिटर पैसेज में एक हाथ हिलता दिखाई दिया और साथ मुझे तसल्ली मिली कि चलो एक परिचित चेहरा दिखा। तेजेन्द्रजी ने पहले से ही कार बुक कर ली थी सो बिना किसी देर के हम लोग चल पड़े। रास्ते में कोई शोर नहीं, भीड़ नहीं, कारों के हार्न नहीं। बड़ा अज़ीब सा लग रहा था। मुंबई याद आ रही थी कि जब तक दिल भरकर हार्न न बजा लें गाड़ी चलाने का मज़ा ही नहीं आता। तेजेन्द्रजी मेरे चेहरे पर विस्मित होने का कोई भाव न देखकर शायद परेशान थे। उनके अनुसार लन्दन देखते ही लोग पगला से जाते हैं लेकिन मुझे पगलाने जैसी कोई बात लग नहीं रही थी। घर पहुंचकर मैंने आराम किया और फिर चाय पीकर कपडे बदलकर ऐसे ही नीचे उतर गई।
8 जुलाई को लेबर पार्टी की काउंसलर ज़कीया जु़बैरी घर पर मुझसे मिलने आईं। उनके अपनेपन के व्यवहार ने मेरा दिल जीत लिया। वे अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान से पिछले 4 वर्षों से जुड़ी हैं और वे जिस तरह से इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये दिन रात एक कर देती हैं, सच में काबिले तारीफ़ है। वे अपनी गाड़ी से सम्मानित रचनाकार को लंदन के कुछ स्थल दिखाती हैं और इस बात का कतई दिखावा नहीं करतीं कि वे व्यस्त हैं। उनके सादगी भरे व्यवहार से सभी उनके कायल हो जाते हैं। ज़कीयाजी मुझे 'लन्दन आई' दिखाने ले गईं जो जाइन्ट व्हील जैसा झूला था। सिर्फ फ़र्क़ इतना था कि वह धीरे धीरे चल रहा था ताकि दूर तक बसे लंदन को देखा जा सके। फिर वहां से हम लोग स्वामी नारायण के मंदिर गये। वहां मानो पूरा भारत अपनी गरिमा के साथ विद्यमान था। मन्दिर में इतनी शान्ति कि सुई भी गिरे तो आवाज़ आये। उस मन्दिर के खंभों पर की गई नक्काशी ग़ज़ब की थी। वहां हम सबने शाकाहारी सात्विक भोजन किया। वहां के बगीचे में घूमे और पवित्र वातावरण को अपने अन्दर आत्मसात् किया।
9 जुलाई को हमारा अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान समारोह था जोकि मेरा अभीष्ट था और जिसके लिये मैं गई थी। नियत समय याने शाम 6 बजे कार्यक्रम शुरू हुआ। इस कार्यक्रम के आयोजन में तेजेन्द्रजी की मेहनत और अनुशासित कार्यक्रम की रूपरेखा साफ़ नज़र आ रही थी। शाम साढ़े सात बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ और फिर रमेश पटेल हम सभी को को डिनर कराने के लिये दक्षिण भारतीय रेस्तरां ले गये और वहां खाने का वह सभी कुछ उपलब्ध था जो भारत में होता है। दूसरे दिन हम लोगों को सुबह बर्मिंघम जाना था कृष्णकुमार की संस्था गीतांजलि बहुभाषीय समुदाय ने अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित रचनाकार को सम्मानित करने के लिये कार्यक्रम का आयोजन किया था। मैं हिन्दी के प्रति सभी के मन में यह सम्मान देखकर चकित थी और सोच रही थी कि विदेश में बसे हमारे भारतीय अपनी भाषा और अपने अस्तित्व के लिये कितने सतर्क हैं। वहां से हम लोग शाम को 6 बजे पुन: लंदन के लिये रवाना हो गये।
अगले दिन हम हाई कमीशन में आमंत्रित थे। हम जब वहां पहुंचे तो श्री राकेश दुबे, हिन्दी और संस्कति अताशे, ने ग़र्मजोशी से स्वागत किया। सभीने मिल-जुलकर हिन्दी की अस्मिता और उसके प्रचार प्रसार के लिये विचार विमर्श किया। सच कहूं तो राकेश दुबे की विनम्रता ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया और उन्होंने मुझ जैसे अकिंचन को यह महसूस नहीं होने दिया कि मैं इस देश में पहली बार आई हूं। उनके सदाशयपूर्ण व्यवहार से मैं आज तक अभिभूत हूं। अगले दिन हम सभी नेहरू सेंटर गये और वहां हमारा स्वागत दिव्या माथुर, कार्यक्रम अधिकारी एवं आसिफ इब्राहीम, समन्वयन मंत्री ने किया। वहां भी हिन्दी को लेकर गंभीर विचार विमर्श हुआ। इस तरह अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान समारोह का एक सप्ताह कब बीत गया पता ही नहीं चला। मुझे एक बात का ज़रूर सुकून था कि कथा यूके हिन्दी के प्रचार प्रसार में पूरी ईमानदारी से जुटी है और इसीलिये उसे हाई कमीशन, नेहरू सेंटर और हाउस आफ लार्ड्स का समर्थन प्राप्त है।
विदेशी ज़मीं पर हिन्दी के लिये तेजेन्द्र शर्मा के अथक परिश्रम को देखते हुए उनके हिन्दी प्रेम को नमन करते हुए और सुखद यादें लिये हुए 14 जुलाई को पुन: भारत वापिस आ गई।
5 टिप्पणियाँ
अच्छा यात्रा वृतांत है। कथा यू के के कार्यों की रिपोर्ट भी साहित्य शिल्पी पर नीयमित मिल जाती है। पढना अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंलाईव विवरण
जवाब देंहटाएंअच्छा विवरण, बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंरोचक
जवाब देंहटाएंnice and thanks
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
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