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ए ग्लोबल सिटीजेन [कहानी] - महेश्वर नारायण सिन्हा

छादाजी बिट्टू को लेकर परेशान हैं । वे उसके बारे में जितना सोच रहे हैं, उतना ही उलझते जा रहे हैं। समझ में नहीं आ रहा है इस सौलह साल के छोकरे को हो क्या गया है। ये वही बिट्टू है जो उनके कंधों में आने को मचल उठता था। उनकी नींद नहीं खुली कि बिट्टू मुंह अंधेरे उठकर उनके सिरहाने हाजिर हो गया है, उठिए। आज मारनिंग वॉक पे नहीं चलना क्या। उसे अपनी नई सायकल पे रेस करने की धुन है। दादाजी जब-तक स्टेडियम का एक चक्कर लगाएंगे और हल्के-फूल्के आसन से अपना बूढ़ा शरीर लचीला बनाने का प्रयास करते रहंगे, बिट्टू तब-तक अपनी राकेट से कई चक्कर लगा आएगा। बिट्टू अपनी सायकिल को राकेट कहता है और उसी माफिक उससे पेश भी आता है । उसका राकेट किसी हवाई जहाज से कमतर तो एकदम ही नहीं है। लौटते वक्त सोहन चाय वाले के यहाँ से चने का छोला खाना उसके विषेश पसंद है। दादाजी को वहाँ चाय चाहिए।

यही वही बिट्टू है। समझ में नहीं आता। देखते-देखते खजूर की तरह लम्बा हो चला है। चेहरे पे हरे-हरे घास उग आए हैं। मूँ से फूट गई हैं। चपलता और चंचलता में तो कोई कमी नहीं आई है। पर, लगता है उसे दादाजी की कोई जरूरत नहीं रही। दादाजी उससे दो बात करने के तरस जात हैं सुबह से दोपहर, फिर सांझ और फिर रात। बिट्टू इस घर के सबसे व्यस्त सदस्य हैं। नीम अंधेरे अब भी उठता है, मगर मोटी सी किताबों में अपना मुँह छुपाए। पता नहीं उन किताबों में क्या ढ़ूँढ़ता फिरता है। अभी तो सलाना इम्तहान भी दूर है। ऐसी पढ़ाई की धुन तो उसकी कभी नहीं रही। खैर, पढ़ रहा है तो अच्छी बात है, आज कल के बच्चों पर बहुत लोड होते हैं। उनसे अपेक्षाएँ भी खूब की जाती हैं। पढ़ रहा है, यह बड़ी अच्छी बात है। दिल में कई बार आया कि दादाजी पूछे-बेटे। मेरे बिट्टू मेरे शेर। यह सबेरे-सबेरे क्या पढ़ रहा है। पर उसकी गंभीरता देखकर पूछने की हिम्मत जाती रहती है। बिट्टू आजकल बहुत जल्दी नाराज हो जाता है। सभी टोकते हैं, सभी उसे हिदायत देते हैं। वह बिना कारण झुंझला पड़ता है। कहीं दादाजी के सवाल से चिढ़कर यह न कह बैठे कि देखते नहीं। पढ़ रहा हूँ और क्या कर रहा हूँ । क्या खेलता-दौड़ता नजर आता हूँ ।

दादाजी मन मसोसकर रह गये। यह क्या कम है कि पोते ने उन्हें गुड-मारनिंग कर दिया है। यानी बिट्टू पोते को उनका ख्याल है। मगर क्या यही बहुत है। चंद लब्ज और कुछ नहीं फरमा सकता था, पूछता, दादा जी आप मारनिंग वॉक पे जाते हो या नहीं, अपने बारे में कहता, वह जाएगा या नहीं, इतने से तो उसकी पढ़ाई चौपट नहीं हो रही थी। आखिर यह कैसी व्यस्तता है। किस बात का तनाव है। पढ़ाई तुम्हारे बाप ने भी किए, हमने भी किए। मगर यह क्या, एक पुस्तक में घुसे हो कि बस। पुस्तक पढ़ रहे हो या पुस्तक तुम्हे पढ़ रहा है।

दादाजी क्या करते। पोते के कमरे में एक दो चक्कर लगाकर बाहर हो लिए। इसे घुमने नहीं जाना। यह पढ़ रहा है। देखते नहीं, यह और जोर से, और संभवतः कुछ तल्खी से बोल-बोल कर बांचना शुरू कर दिया है। संभवतः फिजिक्स का कोई प्राब्लम है।

यह तो सबेरे की बात हुई। नाश्ते पे ही कौन सा यह समय निकाल कर उनसे बातें करता है। जब देखिए मुंह के आगे प्रतियोगी परीक्षाओं वाली बिना चबाए पेट के अंदर हो रहे हों तो बला से, थाली में पराठे ठंडे पड़े रहे, इसकी फिकर नहीं, पर ध्यान उन मैगजिनों में होगी, खाने का स्वाद कैसा है, पता नहीं। उस पर ये नाटक कि यहां हर रोज फास्ट फूड ही चले, रोटी तो गले के नीचे जाने से रही। दूध यहां अछूत है, कॉफी चलेगी, चाय जितना कहिए उनता कम है। हरी सब्जियों का वही हाल है, फल-फूल खाना यहाँ तो मरीजों की निशानी है। बस फ्राइड राईस, आलू पराठे, सॉस, मैगी, वर्गर, भजिए, समोसे, डब्बा बंद चटनी, अचार। इन्हीं में से आप इन्हें खिला दीजिए या नाशता करा दीजिए। तभी तो पावों में हड्डियां दिखती हैं। चेहरे में ओज नहीं, आँखे धंसी रहती है। बात-बात पे जनबा सर धुनते हैं। पढ़ाई में पूरा ध्यान नहीं जाता। ताकत की चीजों से परहेज है, दूध का क्या मुकाबला। भले ही पैकेट का दूध हो, मगर दूध तो दूध है न! नहीं ! दूध की गंध से ही इन्हें उल्टी आती है ! दूध पीना गरीबों, पिछड़ों की निशानी है । अब इन्हें समझाईए, फास्ट फूड खाना कौन सी अमीरी का लक्षण है।

इस तरह बिट्टू सबेरे से सांझ करता है, फिर रात! सोने के पहले दादाजी को गुड नाईट कहना वह नहीं भूलता। जरूर यह एक अच्छी बात बची हुई है। पर आखिर यह कैसी जिंदगी जी रहा है। कैसा भविष्य बना रहा है। उसकी बुनियाद केसी पड़ रही है, किसी को फिकर नहीं। सुनील को अपने ड्यूटी से फिकर नहीं, बहू को घर से छुट्टी नहीं। कौन देखे! बच्चा शरीर से बड़ा हुआ है, मन और मस्तिष्क तो अभी बच्चा ही है। समझ में नहीं आता बहू उसके नाजायज मांगों को क्यों नहीं ठुकराती। सुनील भी ध्यान नहीं देता। क्या आज के बच्चे ऐसे ही होते हैं। उस दिन उन्होंने जरा सा यह साधिकार कह दिया था कि चने खाओ बरखुरदार! तभी मर्द बनोगे, बस जनबा इसी बात पे डायनिंग टेबल से उठ पड़े हुए थे। कहते थे बाद में खाऊंगा, अभी भूख नहीं है। इतनी तो तुनुक मिजाजी है। क्या करेंगी बहू या सुनील! आजकल के बच्चे हैं, मारने पीटने की तो छोड़िए, समझाने पर भी यहाँ उल्टा असर होने वाला है। डांट-झपट दिया तो दिनों मुंह फूला लें। कहीं भाग ही न जाएं। कोई ठिकाना नहीं। पता नहीं इनकी बुद्धि को क्या हो गया है ।

पर इनके खान-पान को यह घटिया आदत कैसे पड़ी। समझा! यह टीवी विज्ञापन और सबसे बढ़कर उसके फ्रेंड्स! वह रोहन है न, अपनी पीली स्कूटी में आता हे उसकी अजीबो-गरीब लटें बिखरे हुए होते हैं, और हाथ में एक कड़ा पहने, संभवतः सोने की हो, अमीर बाप का बेटा है, वही, वह कैसी कैसी बातें कर रहा था। एक दिन कह रहा था कि उसने शहर के मशहूर रेस्टारेंट में चाइनिज डिस खाए हैं, वाऊ! क्या जोरदार चीज बनाता है। वह तो तरह-तरह के व्यंजनों के नाम गिना रहा था, बस, लौंडा तो अपनी अमीरी बक रहा था। वैसे ही लौंडे-छोंड़ों ने यह भ्रम फैलाया है कि दूध गरीबों का आहार है और फल-सब्जियाँ मरीजों की चीजें हैं। यह हाल है। इन्हें कौन समझाए। यही वक्त है खाने-पीने का! अभी का खाया-पीया पूरी जिंदगी काम आने की चीज है।

जैसा खाना है वैसा ही इनका पहनावा है। जरा भी ड्रेस-सैंस नहीं। लगता तो यही हे कि भद्दा दिखना ही इनका लक्ष्य हो तनिक अपने बदन की लम्बाई-चौड़ाई को देखते, टांगे हैं कि बांस, जरा भी मांस नहीं, तो उस पे तनिक ढीला पतलून नहीं पहनता, बल्कि उल्टे एकदम टाईट फिट जिंस! अरे मेरे बाप! टाइने में घुंटों क्या देखते हो! टांगे सींक की तरह निकली प्रतीत होती है। और उपर से ढीला-ढाला केसा भी शर्ट डाल लिया। इतने अच्छे-अच्छे कपड़े और सिलाई और डिजायन देखिए तो तौबा ।

जरा सा इनके कपड़ों पर कुछ कह दिया नहीं कि बस। ना बिट्टू बात करेगा ना उसके फ्र्रेंड्स! एकदम ही समझ नहीं है ना ही सेंस, ना धैंर्य। इन्हें कुछ नहीं कहो, मत छेड़ो, ये आज के तनावग्रस्त नौजवान हैं, इनके कंधों पर भारी बोझ है । इन्हें अकेला छोड़ दो। इन्हें किसी की जरूरत नहीं है। बस, इनकी जरूरतें पूरी होती जानी चाहिए। इन्हें पापकर्न खाने दीजिए, मस्ती के सारे सामान जुटाते जाइए, बस!

पर दादाजी का दिल नहीं मान रहा है। बिट्टू ऐसा कैसे हो गया। पाँच-सात सालों में इतना परिवर्तन! उसके शौक और मिजाज में इतनी नफासत, इतनी नजाकत। ये नहीं, वो नहीं, ये चाहिए और बस यही चाहिए। ऐसा हमारा बिट्टू तो नहीं था।

यह सब संगत का असर है। उसके फ्रेंड्स। उसके पैसे वाले बाप। वैसे भी कहाँ के अमीर हैं, एक दो औहदा ज्यादा बुलंद है, पर सबके सब ब्लैक मनी वाले हैं। सबके बाप कुछ न कुछ करते हैं। ऐसे ही पैसे से एक व्यर्थ का अनाचार फैला है। इन्हें बाईक की जरूरत नहीं, स्कूटी नहीं चाहिए, साइकिल से काम चल जाएगा, मगर नहीं, सबको पेट्रोल से चलने वाली गाड़ी चाहिए। सबों के घरों में मेंट्रो और पचास चैनलों वाला कनेक्शन चाहिए, सभी को दिखावे के लिए अपना निजी लायब्रेरी होना जिसमें अंग्रेजी के पापुलर रायटरों के नावेल भरे पड़े सभी विदेशी लेखकों के। सबों की डीवीडी चाहिए, सीडी कैसैट्स का एक थोक स्टाक चाहिए। अंग्रजी की न्यूज पेपरस चाहिए, मैंगजीने चाहिए, इन्हें सब कुछ चाहिए। इनके बगैर ये मार्डन नहीं, ये पिछड़ चाएंगे। एक मध्यम वर्गीय आय वाला आदमी। क्या करे, क्या न करें। इसी स्कूटी के लिए बिट्टू सात दिनों तक रूठा रहा, हारकर सुनील कैसे-कैसे स्कूटी खरीद पाया। एक-एक कर बारी-बारी से बिट्टू ने अपनी सारी जिद पूरी की। सिर्फ इसलिए कि उसके रोहन के पास वैसी चीजें हैं, सन्नी के पास हैं, बंटी के पास हैं, उसके सभी फ्रेंड्स के पास वे चीजें हैं। और जो जीचें उनके पास हैं, वही उसे भी होना, एक पाई भी उससे कम नहीं। वही कंपनी, वही माडेल! वही सब-कूछ। भले उसके लिए उसे खाना-पीना छोड़ना पड़े। पर चाहिए तो चाहिए। इतना ही नहीं, पहले उसके दोस्तों का जन्मदिन अपने घर पर ही मनाने और गिफ्ट करने का रिवाज था, पर जबसे उसे रोहन के बच्चे ने बाहर जाकर महंगे होटल में पार्टी देने की रिवाज षुरू की है तो देखा-देखी सभी दोस्तों ने ऐसा ही करना षुरू कर दिया है। बंटी, सन्नी, टॉनी की बात अलग है, वे सब पैसे वाले हैं, मगर बिट्टू तुम्हारे लिए इतना महंगा बर्थ-डे। असंभव।

सुनील ने साफ-साफ कह दिया, तनख्वाह का सारा का सारा तुम्हें ही झोंक दूँ ओर ऐसे शौक को अंजाम दे भी दूँ तो आखिर क्या मिलेगा। इस दिखावे का अंत भी तो होना चाहिए। जिनके पास पैसा है उनकी बात जुदा है, हम यह शौक नहीं कर सकते। अपने फ्रेंड्स से साफ-साफ कह दो ।

मगर कब-तक! यह फरेब, यह झूठ और दिखावे का रहन-सहन कब तक! क्या मिलता है इससे! नौजवानों में असमर्थ चीज जो स्वास्थ्य, सेहत, पढ़ाई, उमंग और जोश जो दिखनी चाहिए वह सिर्फ, प्रदर्षन में जाया हो रही है। इनके बाप से अधिक इन्हें पैसा चाहिए। इनके पर्स में हमेशा हरे पत्ते जमे रहे, बाप चाहे उधारी मांग कर काम चलाए। बिट्टू बेटे! तुमने फालतू में अंग्रेजी के अखबार शुरू किए। बेटे, यह उमर तुम्हारी पालिटिकल खबरों को पढ़ने की नहीं है। संपादकीय पढ़ने की नहीं है, बस, देश-दुनिया की खबरें टीवी चैनलों पर जो देख लिया करते हो वह बहुत है। अगर अंग्रजी लिटरेचर ही अच्छी बनाना चाहते हो तो अच्छी किताबें पढ़ों, यह बुजुर्गों की तरह अखबार में आँखें धंसाना एकदम कोरा है। और तुम अखबार क्या पढ़ते होंगे, खाक्! एडीटोरियल पढ़ने और समझने के लिए भी तो कुछ बुनियादी समझ चाहिए। मैं अगर तुम्हारें मित्रों से पुछूँ कि आज के न्यूज पेपर में क्या पढ़े तो सब के सब मुंह लम्बे कर दोगे और चार दिन तक बातें नहीं करोगे, कन्नी काटोगे। तुम सब दिखावा करते हो और कुछ नहीं। तुम्हें निजी लायब्रेरी बनानी है, अच्छी बात हे, इससे अच्छी बात और कुछ नहीं हो सकती, मगर उन सेल्फों में कैसी-कैसी किताबें तुम सब ने सजाई है। यह हास्यास्पद है। चिंता होती है, तुम्हारें उस लायब्रेरी में एक भी हिन्दी के रायटर की किताब नहीं है। तुमने प्रेमचंद का सिर्फ नाम सुना हे, एक भी किताब पढ़ी नहीं है। आश्चर्य है। तुम अपने ही जड़ से कैसे कट रहे हो । वैसे ही स्कूटी या बाईक तुम्हारें लिए कतई जरूरी नहीं, मगर नहीं, यह तुम्हारें लिए स्टाटस सिंबल है। तुम सब फास्ट होना चाहते हो, भागना चाहते हो, पर जाना किधर है, यह किसी को पता नहीं। तुम्हारें फ्रेंडस सर्किल में अगर एक के पास भी किसी चीज की कमी पाई गई तो वह बेचारा अपने कम्पलेक्स में ही दीन-हीन हो जाएगा। यह होटलिंग करना, यह रेस्टारेंटों में पार्टियाँ मनाना। यह बाईक में घुमना, यह तुम्हारे अजीबो-गरीब कपड़े, तुम्हारें अनावश्यक अनाब-शनाब जरूरतें एकदम बेहुदा और प्रदर्शनप्रिय हैं।और कुछ नहीं। एक विद्यार्थी के लिए निहायत अनावश्यक। बिट्टू बेटे। विद्यार्थी तो सिर्फ अपने काम से मतलब रखता हे। अपने और शरीर को मजबूत रखता है। और तुम लोग? तुम लोग जिम खाने जाते हो, वहां भी ऊँची फीस देकर जहाँ तुम फिटनेस के तरीके सीखते हो, पता नहीं क्या करते हो, एरोबिक्स, योगा, एक्सरसाईज....। तुम्हारें खेलने के शौक भी महंगे, हो गये हैं, तुम सब खुले मैदान में नहीं खेल सकते, फुटबाल और हॉकी नहीं खेल सकते। तुम सबों को इन दिनों इनडोर प्ले में रस आने लगा है। मनोरंजन के लिए तुम सब क्लब और पार्टियों ज्वाईन कर रहे हो। वही टेबल टेनिस खेलोगे, कैरम खेलोगे, विलियर्ड खेलोगे, बैडमिंटन खेलोगे ओर मैं समझता हूँ कोढ़ियों का खेल यह शतरंज, ताश, और लूडो और भी वीडियों गेम्स भी तुम जैसे नौजवान वहाँ खेलते दिख जाते हैं। मैं कहता हूँ खुली हवा में जाकर कुछ भी खेलों। मगर नहीं, तुम क्लबों के पहले सदस्य होंगे, महीने भर में शुल्क पटाओगे, तब जाकर वहाँ नियम से खेल खेलोगे । तो यह है ..... ।

तुम क्या खाक् पढ़ाई करते होंगे। तुम्हारा ध्यान तो सिर्फ अपने मित्रों के प्रदर्शनों पर जाता है। मगर यहाँ भी तुम अपने मित्रों से पिछड़े हो सन्नी तुमसे अच्छा है, टॉनी बहुत अच्छा है! रोहन अच्छा नहीं तो तुमसे खराब भी नहीं है। तुम्हें सबके बराबरी की पड़ी है न! फ्रेंड्स सायंस पढ़ रहे हैं, बिट्टू भी वही करेगा। भला क्यों न वे तुमसे अच्छे अंक लाए। उनका ध्यान तो कम से कम तुमसे कम भटकता होगा।

तुम्हें मम्मी-पापा आउटडेटेड लगते है, बहन पुराने विचारों वाली लगती है और मैं दादाजी! एक खंडहर! एक प्राचीन स्मारक! तुम्हारें बचपन को याद करता हूँ तो अपने आप पर गर्व होता है। मगर अब? तुम शायद मेरी परछाई भी पसंद नहीं करते।

कुछ तुम्हारे रग-रग में समा चुकी है। तुम्हारें अंक कम आते हैं या किसी टेस्ट में तुम पीछे हो जाते हो तो तुम्हारे पास रटा-रटाया बहाना है, जैसे तुम्हारें मित्रों के पास ज्यादा अच्छे ट्यूटर हैं, सन्नी प्रो0 जैने से ट्यूशन लेता है, तुम प्रो. दीक्षित से, चूंकि प्रो. जैन मंहगे हैं इसलिए सन्नी को ज्यादा मार्कस मिलते हैं। कई ऐसे बहाने हैं, जिसका सार यही है, कि तुम्हारे मित्र तुमसे बेहतर इसलिए करते हैं क्योंकि उनके पास तुमसे बेहतर सुविधाएँ हैं, अधिक मंहगे साधन उपलब्ध हैं, जो कि तुम्हारे पास नहीं हैं। मतलब साफ है, कि तुम अपनी कमजोरी, अपना निकम्मापन कबूल नहीं करना चाहते। तुममें यह साहस भी नहीं है इसलिए तुम अपनी हर तरह की असफलताओं, पिछड़ेपनों की सफाई अपने इर्द-गिर्द के वातावरण को दोषी करार करते हो। वैसे भी इंसान का अहं अपनी गलती कबूल नहीं करने देता है। पर तुम अभी बच्चे हो, जो तुम स्वयं को बहुत बड़े समझने लग गये होंगे, पर अभी हो तो कच्चे ही। तुमसे वह बाल - सुलभ सच्चाई एक सिरे से नदारद है। इसका हमें क्षोभ है। जब तक अपनी गलतियाँ अपनी कमियों को नहीं स्वीकारोगे, तब तक कभी बेहतर नहीं बन पाओगे। तुम्हारे चरित्र और आचरण से मुझे चिंता होती है। तुममें यह सब एक झूठ कैसे प्रवेष करता जा रहा है । समझ में नहीं आता।

मेरा दिल करता है कि तुम्हारें निकट बैठूं और तुम्हें यह बताऊं कि तुम पढ़ाई में बहुत अच्छे नहीं कर पा रहे हो तो कोई बात नहीं, असल चीच है ईमानदारी। जिस विषय में तुम्हारी रूचि है वही पढ़ों, तुम्हे फिजिक्स नहीं अच्छे लगते तो क्यों इसके पीछे लगे हो, दोस्तों के साथ दोस्ती अलग है, उनका कार्बन कॉपी बनना क्या जरूरी है। यह नकलचीपना क्या दोस्ती के लिए जरूरी है, असल में तुम्हारी दोस्ती की बुनियाद भी झूठी है। तुम सब की सोच ही गलत है। और यही मैं बताना चाहता हूँ कि दोस्ती का मतलब महंगे पार्टी, महंगे गिफ्ट और खूब सारे रूपए नहीं होते। मित्रता का इनसे कोई लेना-देना नहीं। पर नहीं, तुम लोगों की सोच में यह सब प्रवेश पा चुकी है। अच्छे मित्र हो तो सबसे महंगे गिफ्ट करोगे वरना तुम्हारी दोस्ती तुम्हारे गिफ्ट की तरह फीकी हो जाएगी। यह हास्यास्पद है। अपने प्रति ईमानदार बनो, मित्रों के प्रति, अपनी खूबियों, अपने रूचि के प्रति और देखो तुम कैसे नहीं बढ़िया ओर बेहतर करोगे। ये सारी बातें मैं तुम्हें बताऊं तो कैसे बताऊं । मैं तुम्हारें पास बैठ सकूँ तब न ! तुम मेरी सुन सको तब न!

इन दिनों तुम एक खास तरह की मांग लेकर रूठे बैठे हो। तुम्हारी मांग क्या है, तुम इस घर में अपना एक अलग घर ....बनाना चाहते हो। जैसे अमीरों के घर होते हैं। घर के सभी सदस्यों के लिए पृथक-पृथक कमरें, उनकी सभी जरूरी, गैर-जरूरी सामग्री के साथ। तुम्हें भी तुम्हारा अपना कमरा चाहिए। यों तो तुम्हारें लिए अटैच्ड लैट्रिन-बाथरूम तो संभव नहीं है, मगर तुम्हारें लिए अपना बेड-रूम चाहिए, वहीं चार दोस्तों के साथ बैठने की व्यवस्था। स्टडी रूम की सुविधाएं, तुम्हारा वह निजी लायब्रेरी, तुम्हारे इसी एक कमरे में एक पोर्टेबल टीवी, फिर बाद में संभव हो सका तो कम्प्यूटर भी। जैसा कि ऐसी सुविधा तुम्हारें हर मित्रों को है। वे अपने ही घर में मेहमान की तरह रहते हैं। उनके उठने-बैठने, खाने-सोने-पढ़ने का अपना शेड्यूल। उनकी प्राइवेसी पूरी उनकी अपनी हो। वे घर में ही अपनी इच्छानुसार कैद रहना चाहते हैं। बगैर जरूरत उन्हें कोई डिस्टर्ब नहीं करता। बिना उनकी इच्छा कोई उनसे बात नहीं करें। बिना उनकी इजाजत उनके कमरे में कोई प्रवेश भी न करें। मम्मी भी नहीं, पापा भी नहीं, दीदी भी नहीं।

फिलहाल, आपके विद्यार्थी जरूरतों को देखते हुए यह बात तो जायज प्रतीत होती है कि आपके लिए आपका अपना पढ़ाई का कमरा हो। पर, बात सिर्फ यहीं तक होती तो ठीक था, यह कमरा और आपका और आपके मित्रों का रहन-सहन कुछ और ही कह रहा है। आप तो पहले से ही घर से कटे हुढ हैं, अब टीवी प्रोग्राम या खाने-पीने के लिए भी "सेप्रेट" व्यवस्था चाहिए। यह घर के भीतर "मिनी" घर का जो कंसेप्ट है, वह यों ही नहीं है कि दिमाग में विचार किया और बात पूरी कर आए। नहीं, यहाँ आपको सारी छोटी-बड़ी जरूरतें पूरी करनी है। घर में एक अदद टीवी है, डाइनिंग टेबल है, सोने-पढ़ने की व्यवस्था है, पर यह सब आपके लिए पृथक से जरूरी हो गई हैं। आप इस तरह डिस्टर्ब हो जाते हैं। आपकी पढ़ाई बाधित हो जाती है, आपका व्यक्तित्व विकास रूक जाता है।

आप इसलिए रूठे हुए हैं। अपने "घर" के लिए जहाँ तक हो सका आपने स्वयं ही तबदीलियाँ की। घर का कायाकल्प हो गया। आपके कमरे यानी घर के लिए दो सोफा सेट, एक सेंटर टेबल, एक सामान्य बैठकों के लिए मोढ़ा (बाँस की बनी बिना बेंत वाली कुर्सी), पानी की बोतलें, दो काँच के गिलास, एक दिवान व तकिया। आपके कमरे के लिए एक खुबसूरत चालीस बाई पचहत्तर सेमी. वाली पोस्टर, जिसमें विभिन्न घोड़ों को अनंत ऊंचाई की ओर गतिवान बताया गया है, भिन्न-भिन्न रंगों के घोड़े जिस पर अंग्रेजी में एक अच्छा सा सूक्ति जड़ा हुआ है। सकसेस! सकसेस से संबंधित सूक्ति है। बहुत सुन्दर है, बहुत उग्र भी। पोस्टरों के घोड़े हुसैन साहब के घोड़ों की तरह आक्रमक हैं, हुसैन साहब के घोड़े तो कामवश उग्र प्रतीत होते हैं, वे उग्र इच्छाओं और वासनाओं की आक्रमकता दर्शातें हैं पर आपके घोड़े सफलता को आक्रमक तरीके से उजागर करते हैं। मतलब कुछ यह लगाया जा सकता है कि सफलता चाहिए, चाहे आवेषित होकर, उग्र और आक्रमक होकर शायद हिंसक होकर भी! बस सफलता! और कुछ नहीं! और इसी सफलता को पाने के लिए उन घोड़ों की तरह आप आक्रमक बने हुए हैं। सप्ताहों से घर में किसी से बातें नहीं कर रहे हैं। एक पोर्टेबल टीवी चाहिए।

हाँ, तो आपने अपने उपलब्ध सामग्रियों से एक मिनी होम तो लगभग बना लिया है, भले ही उसके लिए आपको अपने बड़े घर की संरचना और जरूरतों को दरकिनार करना पड़ी हो सब कुछ तो लगभग उपलब्ध् हो चुका है। पुस्तकों, स्टडी मटेरियल्स, डीवीडी, अखबार-पुस्तकों के लिए अच्छे सेल्फ! आपके एक्सेसरीज एवं पहनने वाले कपड़ों के लिए एक छोटा सा सेल्फ! दीवार पर सुन्दर-सुन्दर सूक्तियाँ जड़े पोस्टर्स, विश्वविख्यात चित्रकारों के प्रिंटेड पेंटिग्स, क्या कहते हैं वान गॉग और पिकासो, और पता नहीं क्या-क्या ! मुझे उम्मीद है आप भारतीय चित्रकारों में एक का भी नाम शायद ही जानते हों, मगर इन नामों से आपके मित्र मंडली परिचित होगी, अतः आप कैसे अपरिचित रह सकते हैं।

दादाजी अपने पोते के इन्हीं ख्यालों में डूबे हैं। उन्हें किसी भी तरह तसल्ली नहीं मिल रही है। ये सब शौक और शिकवे जमाने के साथ चल भी जाएं तो इन नौजवानों की गैर जवाबदराना हरकतें कतई माफी के लायक नहीं। उस दिन दादीजी ने उन्हें पैसे दिए, दवाओं की सूची दी, मगर दवाईयां नहीं आई। एक दिन, दो दिन! ना ही पैसे लौटाए या कोई कारण ही बताया। आखिरकार दादाजी को ही रेंग कर मार्केट जाना पड़ा। तब तक दादी जी की तबियत भी खूब बिगड़ गई। और आपको ख्याल आया, ठीक दूसरे दिन सायं को! आपने शर्माते हुए दवाईयां लाकर दी ओर कहा-सॉरी दादाजी! मैं भूल गया।

दादाजी कुछ नहीं बोले। ये गैर जवाबदराना हरकत माफी के लायक भी है। बिट्टू आपको स्वयं समझना चाहिए। उनका जी तो हुआ कि इन नौनवानों के व्यवहार पर दादाजी जम्बा सा लेक्चर दें और मन की भडास निकाल लें, पर दादाजी जब्त कर रह गये! जब ऐसे नाजुक मौकों पर भी ये छोकरें गंभीर नहीं होते तब तो भगवान ही मालिक है। इन्हें क्या, इन्हें अपनी जरूरतें दिखाई दती है, दूसरों की तकलीफ से बेखबर! इन्हें पॉप चाहिए, फास्ट फूड चाहिए, पिज्जा चाहिए, चाकलेट चाहिए, आईसक्रीम चाहिए, रेस्टारेंट चाहिए और हर तरह की मस्ती चाहिए। दूसरों पर इसका क्या असर पड़ सकता है, इससे इन्हें कोई लेना-देना नहीं!

कुछ दिनों से आप स्वयं बीमार चल रहें हैं। आपको सर्दी-खाँसी ने नकड़ रखा है। कोई, खास बात नहीं, आप इन दिनों घर पर ही आराम फरमा रहे हैं। आपके मित्र आपका हाल पूछने घर पर शायद ही आते हैं, पर पूछते-पाछते अवश्य हैं । वह फोन पर, हाय हैलो! कैसे हो यार! यार जल्दी ठीक हो जा जरा सी बारिश में भींग क्या गया कि एकदम से निमोनिया लेकर बैठ गया है। कम ऑन यार.......!

शायद ऐसे ही बाते करते होंगे! बिट्टू अपने कमरे, मेरा मतलब अपने "होम" से निकलकर फोन अटेंड करते हैं, यह दोस्तों ने उनका हाल पूछ-पूछ कर उनका बे-हाल कर दिया है! साले! उन्हें क्या, जहां हैं वहीं से मोबाईल टच दे दिया! काश! यहाँ भी मोबाईल होता तो कमरे से उठ-उठ कर बार-बार नहीं आना पड़ता। वहीं पड़े-पड़े, बैठे-बैठे बातें होते रहती। मोबाईल! कितनी-कितनी जरूरी चीजें छूट रही हैं, उफ्फ! अभी तो टीवी कलर्ड बहुत जरूरी है।

हाँ, तो आप बीमार कैसे पड़े। वह क्या था कि उस दिन यही कल या परसो आप सब ने फ्रेंडशिप डे मनाया था। यह मित्रता दिवस था। यानी अपने-अपने मित्रों से मित्रता का जशन मनाना। आप मित्र हैं, यह आपको जानने-समझने से कुछ नहीं होने वाला। आप अपनी मित्रता को सेलेब्रेट कीजिए। उसे दुनिया के सामने आनी चाहिए। उस भावना का प्रदर्षन कीजिए वरना व्यर्थ। आप मित्रों को ग्रीटिंग्स भेजिए, अलग-अलग रंगों की, अलग-अलग कैफियत लिए रिस्ट बैंड भेंट कीजिए, वार्म इस, हॉट..... सेंसिबल, अलहदा... वगैरह-वगैरह! जैसे मित्र वैसी अभिव्यक्ति! अभिव्यक्ति की एक आकृति होनी चाहिए। अभिव्यक्ति का रूप-रंग होना चाहिए।

और आप सब ने खूब अभिव्यक्ति की। सावन के महीने में रेन-डाँस किया, यह रेन्-डांस क्या है भई। रेन-डाँस मींस बारिस में खूब नाचा-नाची। सुबह से सांझ तक। आपके सभी मित्रों का यही हाल था, क्या लड़के, क्या लड़कियाँ। मित्रता दिवस पर यह खुशी देखते बनती होगी। गोया सदियों के बाद मनुष्य अपने इस जज्बात को समझा हो और अचानक मिले इस भगवान से अपनी भावना जब्त नहीं कर पाया ओर नाचने-झूमने लगा। बीयर पीने लगा। साल में एक दिन पैंरेंट्स डे आता है, ब्रदर्स डे आता है। मदर्स डे, फादर्स डे, फ्रेंडशिप डे, उसी तरह सिर्फ एक दिन वैलेंटाईन डे आता है, खूब उपहार और ग्रिटिंग्स बिकते हैं। प्रेम के इस इजहार में पैसा जरूरी हो गया है। वरना प्रेम फीका। आप प्रेम कीजिए, प्रेम के पानी में भींगिए, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ नोटो से भीगेंगी। आपको इस सौदे से क्या प्रयोजन। आप तो मस्त रहिए! आपके पर्स में रूपए चाहिए, बस । यहाँ बाजार में और दुनिया में ढेर सारी मस्तियाँ हैं। आप पीछे क्यों।

तो उस दिन जो हमारे दादा जी के बरखुरदार पानी में भींगे और नाचे और मित्रता दिवस का उत्सव मनाया तो दूसरे दिन से नाक बहने लगे, फिर गला खराब हुआ फिर बुखार, फिर सब कुछ। दवाईयां चल रही हैं। एलोपैथी की बड़ी-बड़ी कैप्सूलें, सिरप, टॉनिक, एंटी एलेजिक वगैरह-वगैरह!

दादाजी को आज नींद नहीं आ रही है। पोते का रहन-सहन, चिंता खांए जा रही है। बेचैनी में बिस्तर पे करवट बदल रहे हैं। क्या इच्छा हुई कि तकिया उठाकर बिस्तर के दूसरे छोर अपना सिरहाना बनाया क्या देखते हैं कि एक सुन्दर पीले रंग का लिफाफा तकिए के नीचे पड़ा है जिस पर लिखा है टू, माई डियर ग्रैंड पा....! एक अगस्त.... फ्राम.... बिट्टू... ।

दादाजी लिफाफा खोलते हैं, सुन्दर सी ग्रीटिंग्स जिसमें एक बुजुर्ग एक बच्चे को गोद में उठाए हुए है। अहा ! बिट्टू का बचपन याद आ गया। कितनी सुन्दर कल्पना है। नन्हा पोता। वही कंधों पर झूलने लू वाला । उनकी मूछों को गुदगुदाने वाला। उसी बिट्टू ने यह ग्रिटिंग्स उनके सिरहाने रख छोड़ा है। कमबख्त ने चुपचाप सरप्राईज देना चाहा होगा आज लिफाफा मिल रहा है ।

दादाजी का कलेजा गदगद् हो गया। आखिर पोता किसका है। बिट्टू को उनका ख्याल है जनाब्। अरे नहीं, ग्रीटिंग्स के साथ एक खत भी है, क्या लिखा है -

दादाजी,
आई लव यू.... ।

इस फ्रेंडशिप डे पर आप मेरे सबसे बेहतरीन ओल्ड फ्रेंड हैं। पर दादाजी मेरे साथ कुछ मजबूरियाँ हैं, मैं चाहकर भी आपके निकट नहीं आ पाता हूँ। दादाजी आप बहुत अच्छे हैं, आप मेरा बहुत ख्याल रखते हैं, लेकिन मैं बहुत भूलक्कड़ हूँ। कभी-कभी बहुत बड़ी चीज भूल जाया करता हूँ। उस दिन दादाजी की दवा लाना मैं भूल गया, इसका मुझे बहुत अफसोस है। मैं जानता हूँ कि आप बहुत नाराज हुए होंगे, मगर मैं अपनी भूल स्वीकारने और आपसे माफी मांगने की भी हिम्मत नहीं रखता, इसलिए यह खत लिख रहा हूँ। दादाजी! आप मेरी उस भूल को माफ कर देंगे। मुझे विष्वास है। मैं यह भी जानता हूँ कि आपके और मेरे सोच में बहुत अंतर है। इसलिए भी आप मुझसे नाराज रहते हैं। मैं जिद्दी हूँ। उद्दंड भी। गैरजवाबदार। लेकिन मैं दिल से बुरा नहीं हूँ। मैं आपको अपने साथ पार्टियों में ले जाना चाहता हूँ, क्लबों, सिनेमा हॉल में साथ जाना चाहता हूँ, पर दादाजी आपका लूक बहुत आऊटडेटेड हो गया है। मेरे दोस्त मेरा मजाक उड़ाते हैं। आप पुराने मॉडल के कुर्ते-पजामें और खादी पहनते हो, आपकी मूछें तनी हुई हैं, वे सफेद भी है, आप हेयर डाई नहीं करते, आप क्लीन शेव भी नहीं रहते, आप सफारी या हाइफेन-कोट भी नहीं पहनते, आप तो वही पुराने जमाने वाली कोट और बंडी और स्वेटर ही पहना करते हो। आप नहीं समझ सकते, मेरे सभी फ्रेंड्स मेरा बहुत मजाक उड़ाते हैं, मुझे बहुत बुरा लगता है। इसलिए मैं आपके करीब भी नहीं आ पाता। मेरी बात मानने के आप उल्टे हम सबों को नसीहतें भेंट करने लगते हैं, ये पहनो, ये खाओ....। ऐसे रहो, वैसे चलो...।

पर दादाजी अगले बारह सितम्बर को ग्रौंड पैरंट्स डे है। मैं उम्मीद करता हूँ कि आप उस दिन मेरी भावनाओं के अनुरूप दिखेंगे। दोस्तो के बीच मेरी हंसी उड़ाने का मौका नहीं देंगे। मैं भी शान से कहना चाहता हूँ, लूक! माई ग्रेट ग्रैंड पा! ही इज नॉट एन ओल्ड खंडहर....। ही इज स्मार्ट, फास्ट..., अप टू डेट...! माई डीयर ग्रैंड पा! उस दिन मैं भी जश्न् मनाऊं आपको सेलेब्रेट करूँ.... और सबको बता दूं, उन फ्रेंड्स को जो आप पर हंसते हैं, कि देखो! कम ऑन, लेट्स सेलेब्रेट! हीयर इन ए ग्लोबल सिटिजेन इन ए ग्लोबल विलेज...! माई डियर ग्रैंड पा! आप एक विश्व नागरिक बन जाइए और मुझे भी आशीर्वाद दीजिए, मैं भी एक ग्लोबल सिटिजेन बन जाऊँ.....!

आपका बिट्टू ।

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कथाकार - महेश्वर नारायण सिन्हा

परिचय- 40 कहानियां विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित,
02 उपन्यास, 50 से अधिक लेख ,
राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय स्तर पर चित्रों का प्रकाशन

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10 टिप्पणियाँ

  1. माहेश्वर जी की यह कहानी सोचने पर बाध्य कर देती है। ग्लोबल होने की कोशिश में खाली हाथ रह जाने के हालात हो जायेंगे। एक पीढी नें स्वयं को एडवांस मान लिया है और पिछली पीढी और उसके स्तम्भों को पैबंद समझने लगी है।

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  2. बच्चों में यह मानसिकता तेजी से फैल रही है उन्हे सब कुछ मॉडर्न चाहिये अपने माँ बाप और दादा दादी भी।

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  3. महेश्वर जी ने बदलती युवा मानसिकता को स्परश किया है , युवा वर्ग को बुज़ुगो की अहमियत समझना होगी अखिर उनेहै भी एक दिन बुज़ुर्ग बनना है

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  4. बहुत अच्छी कहानी है। इस मानसिकता को कैसे बदला जाये यह भी सोचना पडेगा।

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  5. कहानी अच्छी लगी विशेष करके इसमें गिया गया संदेश। मैं यह भी कहूँगा कि बीच बीच में कहानी बोझिल भी लगती है, इसे थोडा लम्बा कर दिया गया है।

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  6. कहानी पढने के बाद लगभग शून्य सी स्तिथि से बाहर आने के बाद
    आइना देखने सा अनुभव

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