
फेंकता पतवार मैं, उनींदी दोपहरी में -
उन जलते क्षणों में, मेरा ऐकाकीपन
और घना होकर, जल उठता है - डूबते माँझी की तरह -
लाल दहकती निशानियाँ, तुम्हारी खोई आँखों में,
जैसे दीप-स्तंभ के समीप, मंडराता जल!
मेरे दूर के सजन, तुम ने अँधेरा ही रखा
तुम्हारे हावभावों में उभरा यातनों का किनारा -
अलसाई दोपहरी में, मैं, फिर उदास जाल फेंकता हूँ -
उस दरिया में, जो तुम्हारे नैया से नयनों में कैद है!
रात के पँछी, पहले उगे तारों को, चोंच मारते हैं -
और वे, मेरी आत्मा की ही तरहा, और दहक उठते हैं!
रात, अपनी परछाईं की ग़्होडी पर रसवार दौडती है,
अपनी नीली फुनगी के रेशम - सी लकीरों को छोडती हुई!
बुझते चिरागों से उठता धुँआ
कह गया .. अफसाने, रात के
कि इन गलियोँ मेँ कोई ..
आ कर,... चला गया था ..
रात भी रुकने लगी थी,
सुन के मेरी दास्ताँ
चाँद भी थमने लगा था
देख कर दिल का धुँआ
बात वीराने मे की थी,
लजा कर दी थी सदा
आप भी आये नही थे,
दिल हुआ था आशनाँ..
रात की बातों का कोई गम नहीँ
दिल तो है प्यासा, कहें क्या,
आप से, ...अब ...हम भी तो
हैं हम नहीं!
3 टिप्पणियाँ
wah bahi wah kya khoob!
जवाब देंहटाएंबात वीराने मे की थी,
जवाब देंहटाएंलजा कर दी थी सदा
आप भी आये नही थे,
दिल हुआ था आशनाँ..
रात की बातों का कोई गम नहीँ
दिल तो है प्यासा, कहें क्या,
आप से, ...अब ...हम भी तो
हैं हम नहीं!
sunder kavita
saader
rachana
अच्छी कविता...बधाई
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.