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साँच की आंच से वे पिघलते रहे [नव-गीतिका] - डॉ. वेद व्यथित

झूठ के आवरण सब बिखरते रहे
साँच की आंच से वे पिघलते रहे

खूब ऊँचें बनाये थे चाहे महल
नींव के बिन महल वे बिखरते रहे

हाथ आता कहाँ चंद उन को यहाँ
मन ही मन में वे चाहे मचलते रहे

ओस की बूँद ज्यों २ गिरी फूल पर
फूल खिलते रहे और महकते रहे

देख ली खूब दुनिया की रंगीनियाँ
रात ढलती रही दीप बुझते रहे

हम जहाँ से चले लौट आये वहीं
जिन्दगी भर मगर खूब चलते रहे

जैसे २ बढ़ी खुद से खुद दूरियां
नैन और नक्श उन के निखरते रहे

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7 टिप्पणियाँ

  1. Pranaam Dr sahab,
    Badhiya rachana .. yah ashaar bahut pasand aaye

    हम जहाँ से चले लौट आये वहीं
    जिन्दगी भर मगर खूब चलते रहे

    जैसे २ बढ़ी खुद से खुद दूरियां
    नैन और नक्श उन के निखरते रहे

    bahut khoob

    RC

    जवाब देंहटाएं
  2. ओस की बूँद ज्यों २ गिरी फूल पर
    फूल खिलते रहे और महकते रहे

    बहुत खूब व्यथित जी

    जवाब देंहटाएं
  3. हम जहाँ से चले लौट आये वहीं
    जिन्दगी भर मगर खूब चलते रहे

    जैसे २ बढ़ी खुद से खुद दूरियां
    नैन और नक्श उन के निखरते रहे


    बहुत सुंदर....

    बधाई आदरणीय व्यथित जी को....

    जवाब देंहटाएं
  4. sahitya shilpi aapa dhapi ke yug man ko mudit karne vali khusbu ka gahra jhoka hai.

    जवाब देंहटाएं
  5. sahitya shilpi aapa dhapi ke yug man ko mudit karne vali khusbu ka gahra jhoka hai.

    जवाब देंहटाएं

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