
घूमते हुए चाक पर
गीली मिट्टी को चढ़ा
अपनी हथेलियों और
अंगुलियों से सहेजकर
चाक पर चढ़ी
मेरे हाथों से घूमती मिट्टी
मुझ से पूछ रही थी
मेरा क्या बनाओगे
जो भी बनाओं
घड़ा या सुराही
दिया या ढक्कन
बस बेडौल नहीं बनाना
घबराहट में वह
इधर-उधर गिर जाती
और ताकती
बूढ़े कुम्हार की ओर
ये तुमने
किसे बिठा दिया चॉक पर
मेरा रूप बनाने
नौसीखिये हाथों में
ढलती मिट्टी
चिन्तित है अपने भविश्य पर
मैनें भी देखा
बूढ़े कुम्हार की ओर आस से
वह मेरी मंशा समझ गया
और उसने अपना हाथ लगा
सम्हाला मिट्टी को चॉक पर
मिट्टी में भी जीने
की आस बंधी
और संभल गयी वह चॉक पर
एक सुन्दर सा घड़ा बन गया
आज मेरे हाथ से
धूमते हुए चाक पर।
10 टिप्पणियाँ
बहुत खूब शरद जी
जवाब देंहटाएंअच्छी उपमा दे कर कवि नें बात कही है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता, बधाई।
जवाब देंहटाएंसारगर्भित कविता है | बूढ़े हाथों की हमेशा ही जरूरत होती है नए पीढ़ी को और यह भी सच है की सधे हाथों से ही आकर ले पाती है कोई भी कृति, चाहे घड़ा हो या जीवन |
जवाब देंहटाएंकवि को साधुवाद !
सुशील
nice
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
मैनें भी देखा
जवाब देंहटाएंबूढ़े कुम्हार की ओर आस से
वह मेरी मंशा समझ गया
और उसने अपना हाथ लगा
सम्हाला मिट्टी को चॉक पर
मिट्टी में भी जीने
की आस बंधी
और संभल गयी वह चॉक पर
एक सुन्दर सा घड़ा बन गया
आज मेरे हाथ से
धूमते हुए चाक पर।
सुन्दर अभिव्यक्ति
अच्छी कविता...बधाई
जवाब देंहटाएंबूढ़े हाथों की जरुरत को समझती और समझाती सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंAti sundar
जवाब देंहटाएंDhinka chika sahi pakde h
हटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.