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कुम्हार का घड़ा [कविता] - शरदचन्द्र गौड

आज मैने घडा बनाया
घूमते हुए चाक पर
गीली मिट्टी को चढ़ा
अपनी हथेलियों और
अंगुलियों से सहेजकर

चाक पर चढ़ी
मेरे हाथों से घूमती मिट्टी
मुझ से पूछ रही थी
मेरा क्या बनाओगे
जो भी बनाओं
घड़ा या सुराही
दिया या ढक्कन
बस बेडौल नहीं बनाना

घबराहट में वह
इधर-उधर गिर जाती
और ताकती
बूढ़े कुम्हार की ओर
ये तुमने
किसे बिठा दिया चॉक पर
मेरा रूप बनाने
नौसीखिये हाथों में
ढलती मिट्टी
चिन्तित है अपने भविश्य पर
मैनें भी देखा
बूढ़े कुम्हार की ओर आस से
वह मेरी मंशा समझ गया
और उसने अपना हाथ लगा
सम्हाला मिट्टी को चॉक पर
मिट्टी में भी जीने
की आस बंधी
और संभल गयी वह चॉक पर

एक सुन्दर सा घड़ा बन गया
आज मेरे हाथ से
धूमते हुए चाक पर।

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10 टिप्पणियाँ

  1. अच्छी उपमा दे कर कवि नें बात कही है।

    जवाब देंहटाएं
  2. सारगर्भित कविता है | बूढ़े हाथों की हमेशा ही जरूरत होती है नए पीढ़ी को और यह भी सच है की सधे हाथों से ही आकर ले पाती है कोई भी कृति, चाहे घड़ा हो या जीवन |
    कवि को साधुवाद !
    सुशील

    जवाब देंहटाएं
  3. मैनें भी देखा
    बूढ़े कुम्हार की ओर आस से
    वह मेरी मंशा समझ गया
    और उसने अपना हाथ लगा
    सम्हाला मिट्टी को चॉक पर
    मिट्टी में भी जीने
    की आस बंधी
    और संभल गयी वह चॉक पर

    एक सुन्दर सा घड़ा बन गया
    आज मेरे हाथ से
    धूमते हुए चाक पर।

    सुन्दर अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  4. बूढ़े हाथों की जरुरत को समझती और समझाती सुन्दर कविता

    जवाब देंहटाएं

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