बस्तर के घने जंगलॉं के भीतर केवल लाल-आतंकवाद ही नहीं पनप रहा बल्कि उम्मीदें भी अपनी बाहें फैलाये बैठी हैं। किसी भी पहाड या पेडों के झुरमुट के पास खडे हो कर स्वांस भी लीजिये हवा की ठंडक से पहले बारूध की गंध सिहरन भर देगी। अब तो देखने वालों को केवल लाल रंग ही इस हरीतिमा में नज़र आता है। लेकिन पारखी आँखें जानती हैं कि रंग क्या होते हैं, कैसे होते हैं। बस्तर की चमक को लौटा लाने में जुटा एक कर्मठ लेखक सुनार की तरह पहचानता है कि यहाँ की असल चमक क्या है, कहाँ है। हरिहर वैष्णव, यह नाम अब किसी परिचय का मोहताज नहीं। बस्तर को जानने की इच्छा रखने वाले हरिहर वैष्णव की आँखों से ही इस अंचल की समझ विकसित करते हैं।
बस्तर बोल रहा है के प्रथमांक में जिस बालक की कहानी हरिहर जी ले कर आये हैं वह उम्मीद से भर देता है कि जंगल के भीतर उम्मीद के बीज पड गये हैं। नक्सली आतंकवाद को संतूराम के इन्द्रधनुषी रंगों नें कहा है कि उम्मीद बारूद से हो ही नहीं सकती। एक आदिम कहा जाने वाला बालक अपने देश की समझ शायद उनसे अधिक रखता है जिन्हे सभ्य कहलाना विरासत में मिला है। मैं श्री बुधेश्र्वर बघेल को प्रणाम करता हूँ जो उस उम्मीद के सूत्रधार हैं जिसका नाम है सन्तूराम। - [संपादक, साहित्य शिल्पी]
--------------------
मई २००९ की एक सुबह। दिन और तारीख याद नहीं। बहरहाल, छोटे भाई खेम वैष्णव को एक फोन आता है। फोन होता है दैनिक देशबन्धु' (रायपुर, छत्तीसगढ़) के स्थानीय संवाददाता भाई श्री शैलेष शुक्ला जी का। शैलेष शुक्ला जी हम दोनों भाइयों से मिलने का समय माँगते हैं। खेम उन्हें समय देते हैं और थोड़ी ही देर बाद शुक्ला जी आ पहुँचते हैं। उनके हाथ में दो तीन दिनों पहले का देशबन्धु' का अंक है। नमस्कार चमत्कार के बाद वे देशबन्धु का एक पृष्ठ हम दोनों भाइयों के सामने रख देते हैं और इंगित करते हैं, अपने एक समाचार की ओर। वह समाचार होता है एक आदिवासी बालक -द्वारा बनायी गयी पेन्टिंग का। समाचार पढ़ कर और उसमें छपी पेन्टिंग देख कर हम दोनों भाई प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते और तय करते हैं कि हमें न केवल उस बालक की कला से बल्कि स्वयं उस बालक से भी रूबरू होना ही पड़ेगा। हम दोनों भाई शैलेष शुक्ला जी को उनके इस समाचार के लिये धन्यवाद देते हैं और तुरन्त फोन लगाते हैं तीन लोगों को। पहले ‘सहारा समय' छत्तीसगढ़ के संवाददाता श्री राजेन्द्र बाजपेई, दूसरे ‘जी छत्तीसगढ़' के संवाददाता श्री भावेश बाजपेई और तीसरे ‘दूरदर्शन जगदलपुर’ में कार्यक्रम प्रोडयूसर श्री एम. ए. रहीम जी को। तीनों से बात होती है किन्तु तीनों ही कारसिंग गाँव तक जाने में हिचकते हैं। कारण साफ है, वह इलाका संवेदनशील है। ‘भीतर वालों' का भारी आतंक है। दहशत है लोगों में। फिर पता नहीं क्या होता है कि भावेश बाजपेई हमारे पास पहुँचते हैं और साथ चलने को कहते हैं। हिचक उनके मन में भी है’ बावजूद इसके हम तय करते हैं कि चाहे जैसे भी हो, जाना तो है। ठान लिया है तो जायेंगे। जो होगा, देखा जायेगा। हमारा कार्यक्रम सुन कर भाई खेम के कुछ शिष्य भी तैयार हो जाते हैं वहाँ जाने के लिये। तब हम पसोपेश में पड़ जाते हैं कि बच्चों को कैसे ले कर जायें! यह तो और भी खतरनाक बात होगी। किन्तु बच्चे नहीं मानते और वे अपने मातापिता को भी इसके लिये तैयार कर लेते हैं।
हम सब मोटरसायकिलों से जाना तय करते हैं और निकल पड़ते हैं। पहली मोटरसायकिल पर मैं और अनुज खेम होते हैं और हमारे पीछे बाकी लोग। यही कोई २०-२५ मिनट का सफर तय कर हम पहुँच जाते हैं कारसिंग। यह कोंडागाँव से १३ किलोमीटर दक्षिणपश्चिम में स्थित एक वनग्राम है। मेरा इस गाँव से बहुत पुराना रिश्ता है।
बहरहाल, जब हम वहाँ पहुँचते हैं तो पाठशाला की दीवारों पर बने बड़े-बड़े चित्र हमारा मन मोह लेते हैं। उन चित्रों को देख कर बच्चे तो बच्चे हम लोगों को भी तो दाँतों तले उँगलियाँ दबानी पड़ीं। क्या बात है!' हम जिस चित्र को भी देखते उसके लिये मुँह से बरबस ही निकल पड़ता, वाह! क्या बात है!' लेकिन इन चित्रों में ऐसी क्या बात है कि हम सभी की आँखें फटी की फटी रह गयीं? यह दरसल इसीलिये क्योंकि इन चित्रों का चित्रकार है महज १० वर्षीय आदिवासी बालक और जो अभी महज पाँचवीं कक्षा का छात्र है और वह भी कारसिंग जैसे गहन वन प्रान्तर से घिरे गाँव की आश्रम पाठशाला में रह कर पढ़ाई करने वाला और जिसका गाँव हँगवा गहन वन प्रान्तरों के बीच बसा है।
वह गाँव, जहाँ सूरज की रोशनी को भी पहुँचने में भारी मशक्कत करनी पड़े।
वह गाँव जहाँ के बच्चे, जवान और बूढ़े, महिला और पुरुष; सभी, सब के सब, किसी भी दिन ‘भीतरवालों' द्वारा अगवा कर लिये जाने की आशंका की बाट जोहते रहते हैं। यह गाँव कोंडागाँव से यही कोई २० किलोमीटर दूर दक्षिणपश्चिम में स्थित है। हमें लगता है मानो दहकते चट्टानों से शीतल जल की धारा ही तो फूट निकली है।
ऐसे नक्सली हिंसा और आतंक से पलपल जूझते गाँव हँगवा (बस्तर, छत्तीसगढ़) में जन्मा सन्तूराम कोर्राम इन दिनों कोंडागाँव में छठवीं कक्षा का छात्र है। उसके परिवार में उसकी माँ, पिता और उसे मिलाकर कुल छह भाई बहिन हैं। वह उन भाई बहिनों में सबसे बड़ा है। एक एकड़ खेती के अलावा थोड़ी सी बाड़ी भी है, जिसमें धान और जोंधरा (मक्के) की खेती भी कर ली जाती है। वनांचल का रहने वाला होने के कारण जंगल से उसका नाता है ही और वह जंगल में विचरता भी रहता है किन्तु चित्रकला उसके लिये उसकी पहली प्राथमिकता है।
वह कहता है कि उसे चित्र बनाने के अलावा और कुछ अच्छा लगता ही नहीं। नित्य कर्म और पढ़ाई के बाद बचा सारा समय वह चित्रकला में ही लगाता है। वह उसमें खोया रहता है। खेलने में उसका मन कम ही लगता है, बल्कि लगता ही नहीं। कारसिंग आश्रम पाठशाला में उसकी शिक्षिका सुषमा शोरी कहती हैं, यह बाकी बच्चों से बिल्कुल अलग किस्म का है। अधिकांशतः गुमसुम रहता है। किसी न किसी सोच में खोया रहता है। सभी की बातें सुनता बड़े ही ध्यान पूर्वक है और उस पर तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं देता किन्तु यथासमय अपनी प्रतिक्रिया चित्र बना कर व्यक्त करता है।''
सन्तूराम कोंडागाँव आने से पहले कारसिंग नामक गाँव की आश्रम पाठशाला में पढ़ता था। वहाँ उसने पहली से पाँचवीं तक की शिक्षा पायी और मिडिल स्कूल में दाखिला लेने के लिये कोंडागाँव आ गया। कारसिंग की आश्रम पाठशाला में ही पढ़ने के दौरान उसकी कला प्रकाश में आयी। उसकी कला को सबसे पहले पहचाना आश्रम अधीक्षक बुधेश्र्वर बघेल ने। उन्होंने आश्रम के बच्चों को रचनात्मकता से जोड़ने के उद्देश्य से औपचारिक पढ़ाई के अलावा दूसरी गतिविधियों से भी परिचित कराया। सबसे पहले उन्होंने बच्चों में चित्रकला के प्रति रुझान पैदा करने का प्रयास किया और इसी प्रयास के दरम्यान सन्तूराम कोर्राम और सुखराम कोर्राम नामक दो बालकों की प्रतिभा उभर कर सामनेआयी। ये दोनों कॉपी पर पेन्सिल से चित्र बनाया करते थे। तब बुधेश्र्वर बघेल ने उन्हें रंगीन पेन्सिलें खरीद कर दीं और उनसे चित्रों में रंग भरने को कहा। बुधेश्र्वर बघेल यह देख कर आश्चर्यचकित रह गये कि दोनों ही बालको में गजब की प्रतिभा है। सन्तूराम तो मानों जन्मजात चित्रकार है। तब बुधेश्र्वर बघेल ने उन्हें राष्ट्रीय महापुरुषों के कई रंगीन चित्र उपलब्ध कराये और उन्हें चित्रित करने को कहा। इसमें सन्तूराम ने बाजी मार ली।
तब बुधेश्र्वर बघेल [दायीं ओर प्रस्तुत चित्र] ने तय किया कि इस बच्चे की प्रतिभा का उपयोग वे आश्रम की खाली पड़ी दीवारों पर चित्र बनवा कर करेंगे। और उन्होंने अपनी मंशा सन्तूराम को बतायी। सन्तूराम उत्साहित हो गया और उसने दीवार पर सबसे पहला चित्र बनाया देवी सरस्वती का। और इसके बाद तो एकएक कर सारे राष्ट्रीय महापुरुषों के चित्र उसने दीवारों पर बड़ी ही कुशलता के साथ उकेर दिये। बातचीत में सन्तूराम की माँ ने, जो बिल्कुल ही पढ़ीलिखी नहीं हैं, और नहीं जानतीं कि कला किसे कहते हैं, कहा, मैं अपने बेटे के इस काम से बहुत प्रसन्न हूँ। यह तो बहुत ही अच्छी बात है कि मेरा बेटा बहुत अच्छे अच्छे चित्र बनाता है। मैं चाहती हूँ कि यह पढ़ाई के साथसाथ चित्र भी बनाता रहे।''
जहाँ अपनी विलक्षण प्रतिभा के लिये सन्तूराम की प्रशंसा की जानी चाहिये वहीं उसकी उस प्रतिभा को पहचान कर उसे उभारने में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले आश्रम अधीक्षक श्री बुधेश्र्वर बघेल की भी तारीफ की जानी चाहिये और तारीफ की जानी चाहिये भाई श्री शैलेष शुक्ला जी की भी जिन्होंने हमें इस प्रतिभाशाली और भावी सफल चित्रकार के विषय में जानकारी दी।
-------------------------------------------
आलेख एवं प्रस्तुति - हरिहर वैष्णव
हरिहर वैष्णव का जन्म 19 जनवरी 1955 को दंतेवाडा (बस्तर) में हुआ। आपके पिता का नाम श्यामदास वैष्णव तथा माता का नाम जयमणि वैष्णव है। आप हिन्दी साहित्य में स्नात्कोत्तर हैं। आप मूलत: कथाकार एवं कवि हैं साथ ही आपने साहित्य की अनेकों विधाओं में कलम चलाई है।
आपने न केवल बस्तर की पवित्र माटी में जन्म लिया बल्कि इसे जिया, इस पर गहरा शोध भी किया। बस्तर की साहित्यिक सांस्कृतिक परम्पराओं पर आपके आलेख प्रामाणिक और अंतिम हैं। आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं – मोहभंग (कहानी संग्रह), लछमी जगार (बस्तर का लोक महाकाव्य), बस्तर का लोक साहित्य (लोक साहित्य), चलो चलें बस्तर (बाल साहित्य), बस्तर के तीज त्यौहार (बाअ साहित्य), राजा और बेल कन्या (लोक साहित्य), बस्तर की गीति कथाएँ (लोक साहित्य), धनकुल (बस्तर का लोक महाकाव्य), बस्तर के धनकुल गीत (शोध विनिबन्ध)। इतना ही नहीं आपने बस्तर की मौखिक कथाए (लोक साहित्य) के अलावा घूमर (हल्बी साहित्यिक पत्रिका), प्रस्तुति, (लघुपत्रिका), एवं ककसाड (लघु पत्रिका) का सम्पदन भी किया है।
किशोरावस्था से ही आरंभ हो कर बस्तर की परम्पराओं और संस्कृति को उत्कृष्ट दस्तावेज बनाता आपका लेखन अनवरत जारी है। वर्तमान में बस्तर पर केन्द्रित पाँच पुस्तकों पर आप कार्य कर रहे हैं। आपने लाला जगदलपुरी के जीवन और कार्यों को भी पुस्तकबद्ध करने का दायित्व उठाया है। आपने सांस्कृतिक आदान प्रदान कार्यक्रम के अंतर्गत ऑस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी के आमंत्रण पर 1991 में ऑस्ट्रेलिया, लेडिग-रोव्होल्ट फाउंडेशन के आमंत्रण पर 2000 में स्विट्जरलैंड तथा दी राकेफेलर फाउंडेशन के आमंत्रण पर 2002 में इटली नें बस्तर का प्रतिनिधित्व किया। इतना ही नहीं आपने स्कॉटलैंड की एनिमेशन संस्था “हाईलैंड एनिमेशन” के साथ मिल कर बस्तरिया लोक भाषा हल्बी की पहली एनिमेशन फिल्म का निर्माण किया।
आपको छतीसगढी हिन्दी साहित्य परिषद से “स्व. कवि उमेश शर्मा सम्मान (2009) तथा दुष्यंत कुमार स्मारक पाण्डुलिपु संग्रहालय, भोपाल द्वारा वर्ष 2010 के लिये “आंचलिक साहित्यकार सम्मान” प्राप्त है” यहाँ मैं यह भी कहना चाहूंगा कि अपने निरंतर किये जा रहे शोध कार्यों एवं लेखन के द्वारा आपने जो स्थान बस्तर और इसके बाहर भी हृदयों में हासिल किया है वह सम्मान अनमोल है। आप वर्तमान में सरगीपारा, कोंडागाँव (बस्तर) में अवस्थित हैं।
21 टिप्पणियाँ
गुदड़ी का लाल
जवाब देंहटाएंमुहावरा
ऐसों के लिए
ही तो बना है
बेहतरीन उपयोगी जानकारी। सरकार और कला प्रेमी संस्थाएं इस ओर अवश्य ध्यान दें।
लेखक हरिहर वैष्णव का लेखन के लिए चयन बेहद प्रभावशाली है। लेखक को लिखने और साहित्य शिल्पी को प्रस्तुत करने के लिए बधाई। इस लेख को आप नुक्कड़ पर अवश्य लगायें। प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएंकमाल है। देश में प्रतिभाएं किस किस रूप में कहाँ कहाँ मौजूद है उसका यह बेहतर उदाहरण हो सकता है। आपका टीम और आप बधाई के पात्र हैं जो इस प्रकार की सूचनाओं को तरजीह देते हैं।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com
बहुत सुंदर आलेख, जिसके द्वारा ढेर सारीजानकारी मिली।
जवाब देंहटाएंवैषणव जी इस लेख से सचमुच मैं स्तब्ध रह गयी हूँ। प्रतिभा किसी भी परिस्थिति में पनप सकती है। जिस माहौल का आपने चित्र खींचा है उसमे संतूराम अगर आडी तिरछी लकीर भी खींच लेता तो बहुत बडी बात थी लेकिन इतनी बेहतरीन चित्रकारी। यहा मैं उसके अध्यापक बघेल जी की भी प्रशंसा करना चाहूंगी।
जवाब देंहटाएंबस्तर के जंगल में बंदूख के कर क्रांति करने का दावा करने वालों को ये चित्र दिखाने चाहिये उन्हे भी पता चले कि आखिर क्रांति क्या होती है और कैसे पैदा होती है
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
संतूराम की प्रतिभा उसके बनाये चित्रों से प्रगट हो रही है ....निश्चय ही यह बालक अप्रतिम प्रतिभा का धनी है ...हरिहर वैषनव जी बधायी के पात्र है जिन्होंने हमसे इस विलक्षण प्रतिभा संपन्न बालक से मिलाया !
जवाब देंहटाएंइस ACKNOWLEDGMENT - जहाँ अपनी विलक्षण प्रतिभा के लिये सन्तूराम की प्रशंसा की जानी चाहिये वहीं उसकी उस प्रतिभा को पहचान कर उसे उभारने में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले आश्रम अधीक्षक श्री बुधेश्र्वर बघेल की भी तारीफ की जानी चाहिये और तारीफ की जानी चाहिये भाई श्री शैलेष शुक्ला जी की भी जिन्होंने हमें इस प्रतिभाशाली और भावी सफल चित्रकार के विषय में जानकारी दी।
जवाब देंहटाएं...में जोडना चाहिये कि इस लेख को लिखने और संतू को सामने लाने के लिये हरिहर वैष्णव की भी मुक्त हृदय से प्रशंसा की जानी चाहिये। इसके साथ ही साहित्य शिल्पी को भी धन्यवाद दिया जाना चाहिये कि यहाँ हमेशा उत्तम प्रस्तुतियाँ होती हैं।
बस्तर की असल पहचान संतूराम जैसे बच्चों में और हरिहर वैष्णव जैसे समर्पित लेखकों से है।
जवाब देंहटाएंहरिहर वैष्णव जी, संतूराम से परिचित कराने के लिये धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंExcellent work done
जवाब देंहटाएंप्रतिभाओं के लिए उसकी परख जरूरी है, बस्तर की दो प्रतिभाएं हरिहर और खेम वैष्णव जी स्वयं रचना सक्रिय हैं और प्रतिभाओं को तराश रहे हैं, उजागर कर रहे हैं, हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएंबुधेश्वर बघेलजी को प्रणाम, संतू को प्यार और आशीर्वाद। हरिहर वैष्णवजी को बहुत-बहुत धन्यवाद। साहित्य शिल्पी का आभार।
जवाब देंहटाएंAabhaar bhaaii Raajiv jii aur saahity-shilpi team kaa. Abhaar aap sabhii kaa jinhein yeh prastuti bhaayii.
जवाब देंहटाएंऐसे विलक्षण बालक और उसकी कला को अपने आश्रम में जगह देने वालेक की प्रशंशा में जो शब्द कहे जायेंगे छोटे ही पड़ेंगे...आपने इन्हें प्रकाश में लाकर स्तुत्य कार्य किया है..आभारी हैं आपके
जवाब देंहटाएंनीरज
Sahitya shilpi manch ko badhayi ek nayaab kalakaar ko saamne laane ke liye. Jo aabha aur dakshta unke fan mein hai vah is prastutikaran se aur bhi ujwaal hui hai. Harihar Vaishnav ji ka aabhaar
जवाब देंहटाएंआदरणीय हरिहर वैष्णव जी,
जवाब देंहटाएंसंतूराम एक विलक्षण खोज है। यही वह बीज है जिसमें आज के रक्तरंजित बस्तर अंचल का सतरंगी भविष्य छुपा हुआ है। जब तक आप जैसे सजग, सपर्पित लेखक हैं, बुधेश्वर बघेल जैसे गुरु हैं कल तो संतूराम का ही होगा।
हरिहर जी!
जवाब देंहटाएंमैं राजीव जी की इस बात से पूर्णत: सहमत हूँ कि संतूराम एक विलक्षण बीज है, वह बीज जो बस्तर के रक्तरंजित वर्त्तमान पर आशा का एक वटवृक्ष बनकर उभरने की काबिलियत रखता है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप, आपके भाई खेम जी और दूसरे "प्रेरणाश्रोतों" को पाकर संतूराम और उसके जैसे दूसरे "हीरे" कोयले की खादानॊं से ज़रूर निकल कर द्निया के सामने आएँगे।
इस आलेख के लिए धन्यवाद!
-विश्व दीपक
अच्छा है....इन प्रतिभाओ को सामने आना चाहिए
जवाब देंहटाएंसंतुराम को बंधाई.................
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.