
संजीव तिवारी नें इस चर्चा को आगे बढाते हुए अपने विचार इस पोस्ट में रखे - "अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जानते तो आप मुक्तिबोध को भी नहीं जानते।"
केवल कृष्ण नें इस चर्चा को एक दृष्टिकोण देते हुए दो खुले पत्र लिखे। पहला पत्र राजीव रंजन को - "मैं न तो लाला जी को जानता हूँ न ही मुक्तिबोध को।" तथा दूसरा पत्र संजीव तिवारी को - "दिक्कत लाला जी में नहीं है।"
केवल कृष्ण नें इस चर्चा को एक दृष्टिकोण देते हुए दो खुले पत्र लिखे। पहला पत्र राजीव रंजन को - "मैं न तो लाला जी को जानता हूँ न ही मुक्तिबोध को।" तथा दूसरा पत्र संजीव तिवारी को - "दिक्कत लाला जी में नहीं है।"
इस चर्चा को वेबसाईट हस्तक्षेप नें भी आगे बढाया और केवल कृष्ण के एक पत्र को प्रकाशित किया। इसके अलावा हरिहर वैष्णव नें लाला जी की उपेक्षा को अपनी टिप्पणियों में चर्चा का विषय बनाया।
इसी संदर्भ में एक टिप्पणी हाल ही में बस्तर के सबसे दूर दराज के क्षेत्र बीजापुर से आयी है जो लाला जी के प्रति स्नेह का एक दस्तावेज है। बीजापुर की "पूनम विश्वकर्मा वासम" लिखती हैं कि -
"पूरी की पूरी यादें जैसे मेरे समक्ष तस्वीर के रूप में सामने आ गई। लालाजी के साथ मेरा बहुत गहरा रिश्ता रहा हैं। आज सालों बाद भले ही वे मुझे भूल गये होगे पर मेरी यादों में वे आज भी ताजा हैं, जगदलपुर की गलियों में हाथ में छाता पकड़े जब भी मैं उन्हें देखती मेरा मन बिना कुछ कहें उनके आगे नतमस्तक हो जाता, और वो जवाब में बस इतना ही कहते कैसी हो पूनम कभी जब मैं लिखा करजी थी और उनसे सलाह लेने उनके घर जाती तो उन्हें अक्सर बिना चश्में के किताबों के बीच उलझा पाती मुझे आष्चर्य होता कि इन बुढ़ी ऑंखों में इतनी रोषनी आती कहां से हैं, तब मुझे एहसास होता कि ये तो जीवन भर की साहित्यिक मेहनत हैं, जो आज भी ऊर्जा और उत्साह से लालाजी को भर देती हैं, अक्सर मैं उनके लिये केले ले जाती क्योंकि केले ही वो बड़ी आसानी से खा सकते थे। उन्हें शायद ये पूनम विष्वकर्मा याद न हो पर मुझे वह मेरा बचनप और मेरी यादों में बसा जगदलपुर और उसमें बसे लालाजी आज भी याद हैं, बिलकुल भोर की सुबह की तरह .......................।"
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साहित्य शिल्पी पर लाला जगदलपुरी की रचनायें प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित की जा रही हैं। इन रचनाओं पर आपके विचार आमंत्रित हैं -
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न तुम हो, न हम हैं
यहाँ भ्रम ही भ्रम हैं।
दिशाहीन राहें,
भटकते कदम हैं।
नहीं कोई ब्रम्हा,
कई क्रूर यम हैं।
मिले सर्जना को,
गलत कार्यक्रम हैं।
यहाँ श्रेष्ठता में,
पुरस्कृत अधम हैं।
किसी के भी दुखडे
किसी से न कम हैं।
पुकारा जिन्होंने,
अरे, वे वहम हैं।
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प्रश्न ही प्रश्न बियाबान में हैं
हम-तुम इतने उत्थान में हैं
भूमि से परे, आसमान में हैं।
तारे भी उतने क्या होंगे,
दर्द-गम जितने इंसान में हैं।
सोना उगल रही है माटी,
क्योंकि हम सुनहले विहान में हैं।
मोम तो जल जल कर गल जाता,
ठोस जो गुण हैं, पाषाण में हैं।
मौत से जूझ रहे हैं कुछ,
तो कुछ की नज़रें सामान में हैं।
मुर्दों का कमाल तो देखो,
जीवित लोग श्मशान में हैं।
मन में बैठा है कोलाहल,
और हम बैठे सुनसान में हैं।
किसने कितना कैसे चूसा,
प्रश्न ही प्रश्न बियाबन में हैं।
सोचता हूँ, उनका क्या होगा?
मर्द जो अपने ईमान में हैं।
11 टिप्पणियाँ
लाला जगदलपुरी की ग़ज़लों में इतनी ताजगी और बोधगम्यता है कि सीधे मन में उतर जाती है। गज़ल पुकारा जिन्होंने अरे वे वहम हैं में शब्दों की कंज़ूसी के बाद भी भावों की गहराई बहुत है।
जवाब देंहटाएंमिले सर्जना को,
जवाब देंहटाएंगलत कार्यक्रम हैं।
यहाँ श्रेष्ठता में,
पुरस्कृत अधम हैं।
इतनी बडी बातें इतने कम शब्दों में केवल अनुभव से पगा शायर ही कह सकता है।
श्रेष्ठ गजल
जवाब देंहटाएंगागर में सागर भरने की कला में माहिर हैं लाला जगदलपुरी
जवाब देंहटाएंवाह वाह...
जवाब देंहटाएंएक एक शेर में उनका अनुभव बोल रहा है..
हिन्दी गज़ल का अभी भी विकास हो रहा है...इसलियें उनकी ग़ज़लें इसके विकास में विशेष योगदान दे रही हैं....
आभार...
गीता
मुर्दों का कमाल तो देखो,
जवाब देंहटाएंजीवित लोग श्मशान में हैं।
मन में बैठा है कोलाहल,
और हम बैठे सुनसान में हैं।
मैं इंटरनेट का धन्यवाद करूंगी कि लाला जगदलपुरी जैसे शायर को जान सकी।
nice
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
न तुम हो, न हम हैं
जवाब देंहटाएंयहाँ भ्रम ही भ्रम हैं
पहली ग़ज़ल तो एसी है जैसे बिना कुछ कहे ही लाला जगदलपुरी नें बहुत कुछ कह दिया हो।
हिन्दी ग़ज़ल क्या होती है यह जानना हो तो लाला जगदलपुरी को पढना चाहिये।
जवाब देंहटाएंमन में बैठा है कोलाहल,
जवाब देंहटाएंऔर हम बैठे सुनसान में
Bahut is nageenedari se shilpi ne shabd prayog kiya hai. Daad..Daad...
श्रेष्ठ बस यही कह सकती हूँ|
जवाब देंहटाएंसुधा ओम ढींगरा
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.