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वायदों पर जीते बरसों बीत गये {रिपोर्ताज} [बस्तर बोल रहा है, अंक-2] - हरिहर वैष्णव


बस्तर बोल रहा है के दूसरे अंक में आज हरिहर वैष्णव एक रिपोर्ताज प्रस्तुत कर रहे हैं। बस्तर का एक एक गाँव आज भी 'कारसिंग' ही है और देशबन्धु में २१ जनवरी १९८१ को प्रकाशित यह विवरण आज तीस साल बाद भी उसी तरह सजीव है जैसे इस वनांचल में वक्त ठहरा हुआ हो। पाठकों से यह रिपोर्ताज गहन विमर्ष की अपेक्षा रखता है - संपादक, साहित्य शिल्पी।

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दरखास, दरखास, कितरोय दरखास देउन थाकुन गेलू जनाब! मान्तर हुन दरखास केंव जायसे जाले। केबेय सुनई नीं होय।''1 [1 : (दरख्वास्त, दरख्वास्त कितने ही दरख्वास्त दे कर थक चुके हैं, ज़नाब! परन्तु ये दरख्वास्त न जाने कहाँ चले जाते हैं। कभी सुनवाई ही नहीं होती।)]

ये शब्द हैं ग्राम कारसिंग के पटेल श्री मँगलू मुरिया के। कारसिंग ग्राम कोंडागाँव-मर्दापाल वन मार्ग पर कोंडागाँव से लगभग तेरह किलोमीटर पर स्थित एक वन ग्राम है। यह गाँव चारों ओर से जंगलों से घिरा है। ऊँचे ऊँचे सालवृक्षों के जंगलों के बीच यह तीन-चार सौ की आबादी वाला नन्हा सा गाँव बरबस ही मन को मोह लेता है और कुछ भीतर झाँकने पर मन के कोने में गहरा दर्द भी भर देता है।

हम जब गाँव में दाखिल हो रहे थे, तब हमें डबरे में से पानी ले जाती हुई कुछ आदिवासी महिलाएँ दिखीं। खेतों की श्रृंखला पार कर हम गाँव पहुँच गये थे। गाँव के सिरे पर ही हमें एक कुआँ नज़र आया। कुआँ नया बना लग रहा था, परन्तु बनाने के तुरन्त बाद ही उसकी जगत टूट भी गयी थी। भीतर की दीवार भी यहाँ वहाँ दरक गयी थी और पानी बदबूदार लग रहा था।

बहरहाल, जब हम गाँव के भीतर पहुँचे तो सारा गाँव लगभग सुनसान सा पड़ा था। दोचार अधनंगे बच्चे दीख पड़े। हमने उनसे कोटवार के विषय में पूछा तो वे सहमते हुए बतलाने लगे कि कोटवार बयानार गया हुआ है, किसी काम से। तब तक गाँव में बने थानागुड़ी2 का आठपहरिया3 भी हमारे पास आ चुका था। हमारा परिचय पा कर वह हमें थानागुड़ी तक ले गया। पानी वगैरह का इंतजाम भी उसी ने बड़ी तत्परता से किया था। हममें से बाकी लोग थानागुड़ी में ही रह गये थे, भोजनादि की व्यवस्था के लिये और मैं, भाई जयदेव बघेल के साथ कैमरा और टेप रिकार्डर लिये गाँव का चक्कर लगाने के लिये निकल पड़ा था।
[2: थानागुड़ी : अतिथियों के लिये बना विश्रामगृह। 3: थानागुड़ी में गाँव वालों की ओर से अतिथियों की सेवा के लिये नियुक्त कर्मचारी।]

गाँव दो सीधी पंक्तियों में बसा हुआ है। एक मकान के पीछे दूसरा मकान नहीं है। रास्ते के दोनों ओर आमने सामने झाड़ियाँ ऊगी हुई हैं। गहरा सन्नाटा छाया हुआ था पूरे गाँव में। अगलबगल के बच्चे हमें सहमी आँखों से देखते हुए झट् अपनी झोपड़ियों के भीतर भाग जाते थे; मानों उन्होंने कोई अजूबा देख लिया हो। मुझे लगा, आज भी जंगलों के बीच रहने वाले इन आदिवासियों के प्रति न तो हम सहज हो पाये हैं और न हमारे प्रति ये। दरअसल हमारे व्यवहार में वह बात अभी तक नहीं आ पायी है जिससे ये वनवासी हमें अपनी ही तरह इन्सान समझ पायें। हम उनके लिये आज भी अजूबा बने हुए हैं; जैसे कि हमारे लिये ये।

गाँव में काफी दूर निकल जाने के बाद बमुश्किल एक झोपड़ी में हमें एक महिला नज़र आयी। हमने उससे अनुमति ले कर आँगन में प्रवेश किया। उसकी गोद में एक-डेढ़ बरस का एक बच्चा दुबका हुआ था। बगल में नौ-दस बरस का एक बालक खड़ा खाँस रहा था। झोपड़ी के भीतर भी एक महिला नज़र आयी। दोनों महिलाएँ अपने अपने काम में व्यस्त थीं।

"क्यों बाई, हम इस गाँव में काफ़ी देर से हैं, किन्तु कहीं कोई आदमी नज़र नहीं आता। क्या बात है?'' हमने प्रश्न किया।

"इस प्रश्न के उत्तर में वह महिला बोली थी, सब खेत गये हैं, बाबू। धान काटने।''

"सब, मतलब क्या औरतें भी?''

"हाँ बाबू, औरतें भी।''

"लेकिन तुम लोग तो घर पर ही हो। तुम लोग क्यों नहीं गयीं?'' मैंने पूछा था।

"मैं इस बच्चे की देखभाल करने के लिये रुक गयी हूँ।'' उस महिला ने उत्तर दिया था।

"और वह बाई क्यों नहीं गयी?'' मेरा संकेत झोपड़ी के भीतर बैठी महिला की ओर था।

"वो दूसरे गाँव की है। वे लोग इस लड़के को यहाँ झाड़-फूँक कराने के लिये लाये हैं।'' उसने उस नौ-दस बरस के लड़के की ओर इंगित कर कहा।

"क्यों, इसे क्या हो गया है?''

“.............'' वह चुप हो जाती है।

लड़के को रह रह कर खाँसी आ रही थी। उसकी श्र्वसनप्रक्रिया आदि से लग रहा था कि उसे क्षय जैसी कोई बीमारी थी।

"झाड़-फूँक से ठीक हो जाएगा?'' हमने पूछा था।

"हाँ, हो जाएगा। मेरा बेटा बड़ा अच्छा सिरहा है।'' वह बतलाती है।

"इसे अस्पताल क्यों नहीं ले जाते?'' हमारी सलाह होती है।

"अस्पताल जाने से क्या होगा बाबू? दवई-सूजी के लिये तो पैसा लगता है। और फिर यहाँ से आठ-नौ कोस दूर है, कोंडागाँव।''

"क्यों, क्या यहाँ आसपास कोई अस्पताल नहीं है?''

"नहीं है। पास में बम्हनी में एक नर्स रहती है।''

"अच्छा, यदि झाड़फूँक से ठीक नहीं होगा तो?''

"नहीं होगा तो क्या करेंगे! मरने पर माटी दे देंगे। मरना यहाँ भी है, वहाँ भी है।'' यह सुन कर मैं सहम जाता हूँ। वह महिला कितनी सहजता से यह कह गयी थी, सोच कर सिहरन हो आती है।

"ऐसा क्यों सोचते हो कि अस्पताल जाने से भी मौत होगी ही?''

"होती है बाबू। मौत होती है। कितने ही लोगों को हम देख चुके हैं। अस्पताल में भरती किये और दूसरे तीसरे दिन मौत हो जाती है।''

"कभी किसी अस्पताल में किसी को भर्ती करवाये थे?''

"हाँ बाबू। हमारे रिश्तेदार का एक बेटा था। वो लोग दूसरे गाँव के हैं। उसकी बीमारी बहुत बढ़ गयी थी। उसे शहर के बड़े अस्पताल में भर्ती करवाये थे। हम लोग भी उसको देखने गये थे। .......'' बतलाते हुए वह अतीत में खोती चली जाती है....... पहले तो सूजी4 खरीदने के लिये कहा गया। दुकान में गये तो सेठ बोला, एक सूजी का दाम दस-ग्यारह रुपया है। हमारे पास इतना पैसा नहीं था। नहीं खरीद सके। दूसरे दिन लड़के की मौत हो गयी। हम लोग लहास के पास बैठ कर रोने लगे तो एक नर्स बाई ने हमें डाँट दिया, यहाँ नहीं रोना है, अस्पताल है। हमें बहुत खराब लगा था। बाद में लहास को लेकर चले गये। [4: सूजी - इंजेक्शन]

हमने देखा, उस महिला के मन की वितृष्णा उभर आयी थी। उसकी बातें सुन कर हम दोनों के मन बोझिल हो आये थे। फिर हम वहाँ अधिक देर न बैठ सके। उठ आये वहाँ से।

रास्ते में उसी टूटे कुएँ के पास एक युवक खड़ा दिखा। और हम उस से बातें करने लगे थे।

"क्यों भाई, तुम्हारा नाम क्या है?''

"झितरु।''

"यहाँ कैसे घूम रहे हो, तुम? खेत नहीं गये?''

"नहीं, मैं कोंडागाँव गया था। अभी ही वापस लौटा हूँ।''

"अच्छा, यह बताओ कि इस कुएँ का क्या माजरा है?''

"यह कुआँ लगभग दो-तीन साल पहले ब्लाक (खण्ड विकास कार्यालय) की ओर से बना था। बनने के कुछ ही दिन बाद इसकी जगत टूट गयी। भीतर की दीवार भी जगह जगह से दरक गयी। पेड़ की पत्तियाँ भी गिरती रहीं और भीतर कई झाड़-झंखाड़ भी उग आये हैं।''

"पानी यहीं का पीते हैं, गाँव वाले?''

"नहीं।''

"तब, कहाँ का पानी पीते हैं?''

"खेत में डबरासा है। उसी को खोद कर थोड़ा सा और गहरा बना दिया गया है। वहीं का पानी पीते हैं, सब।''

"किसने खोदा है उसे?''

"गाँव वालों ने ही।''

"तुम सब मिल कर क्या इस कुएँ को ठीक नहीं कर सकते?''

"कर क्यों नहीं सकते?''

"तो फिर करते क्यों नहीं?''

"कोई तैयार ही नहीं होता।''

"इसका मतलब गाँव में एकता नहीं है?''

"इसके बारे में बड़े-बुजुर्ग ही कुछ बता सकते हैं।''

"तुम क्या करते हो?''

"खेती।''

"इसके अलावा?''

"मैं गाँव का आठपहरिया हूँ।''

"क्या यहाँ दो दो आठपहरिया हैं?''

"जी। हम दोनों भाई हैं।''

"तुम्हारा क्या काम होता है, आठपहरिया की हैसियत से?''

"थानागुड़ी में लकड़ी, पानी और बर्तन वगैरह का इन्तजाम रखना।''

"किसके लिये?''

"नाकेदार, दफेदार और पुलिसपाइक तथा इसी तरह और भी सरकारी मुलाजिमों के लिये।''

"ये लोग तुम्हारी सेवा के बदले कुछ रुपये-पैसे देते हैं?''

"नहीं। सरकारी मुलाजिम तो कुछ नहीं देते, उलटे रौब अलग गाँठते हैं।''

"तो फिर तुम मुफ़्त में क्यों करते हो यह सब?''

"नहीं, मुफ़्त में नहीं। गाँव वाले हमें साल में धान वगैरह देते हैं।''

इसके बाद हम आठपहरिया के साथ ही गाँव के दूसरे छोर पर पहुँच गये थे। गाँव के सुख-दुःख की बात निकलने पर उसने एक हरिजन युवती की दास्तान सुनायी। हम तब तक उस युवती के घर के पास पहुँच चुके थे। सोचा, मिलते चलें। संयोग से वह घर पर ही थी। पता लगा, उसका वर्तमान पति और मास्टर की ओर से उत्पन्न बच्ची भी वहीं हैं। हमने उससे बातचीत की :

"तुम्हारा नाम?''

"किसलिये?'' उसके स्वर में तल्खी थी।

"बस, यों ही। तुम्हारे बारे में आठपहरिया ने बतलाया था, सो जानना चाहता था।''

"तब तो नाम भी बताया होगा।''

"अच्छा छोड़ो, न बताओ नाम। कोई बात नहीं।''

"नोनी, डरने की बात नहीं है।'' आठपहरिया ने समझाया, ये हमारे दोस्त जैसे हैं। गाँव के सुख-दुःख की बात निकली तो तुम्हारे बारे में भी थोड़ा-बहुत मैंने इन्हें बता दिया। सो, ये तुमसे मिलने चले आये। जो भी पूछें, निडर होकर बताना।''

"मुझे डर किसका पड़ा है, जो!''

"हाँ, हाँ किसी का डर नहीं है। तुम बताओ बहन, क्या हुआ तुम्हारे साथ?''

बहन सम्बोधन सुन कर शायद उसका संकोच थोड़ा सा मिटा। बोली, "जान कर क्या करोगे?''

"कुछ नहीं। यों ही।''

उसने बताया कि पन्द्रह-सोलह वर्ष की उम्र में उससे एक भूल हो गयी थी। पास के ही गाँव के एक शिक्षक ने उसका सर्वस्व लूट लिया था। घरवालों ने विवाह के लिये जोर दिया मगर कोई कामयाबी नहीं मिली। कुछ दिन तो वह आता जाता रहा। बाद में आना जाना बन्द कर दिया।

"तो तुमने कोर्ट-कचहरी में दरख्वास्त क्यों नहीं दी?''

"दरखास देने से क्या होगा, बाबू? क्या वह मुझे अपने घर में रख लेगा?''

और जब हमने कोर्ट में अरजी देने की बात पर जोर दिया तो उसने कहा था, क्यों मजाक उड़ा रहे हो बाबू! कौन सुनेगा मेरी बात?''

और वह युवती गहरे विषाद से भर उठी। इतने में उसकी बेटी वहाँ आ गयी थी। नंगधड़ंग। वह युवती उस बच्चे के धूल-धूसरित शरीर को धुलाने के लिये उठ खड़ी हुई थी। विस्तार से बात करने पर पता चला कि उसके माता-पिता ने पंचायत बुला कर उसे उस शिक्षक को सौंपना चाहा था, किन्तु जब जब पंचायत बुलायी जाती, वह शिक्षक भाग खड़ा होता। बहुत प्रयत्न करने के बाद भी जब वह हाथ नहीं आ सका तो उसके पिता ने बयानार गाँव के एक सजातीय सज्जन के यहाँ उसकी शादी कर दी। अब वह अपने पति और पुत्री के साथ अपने पिता के घर में रहती है। उसके पति को उसके अतीत के विषय में जानकारी है, लेकिन इस बात को लेकर उनके बीच कभी भी कलह उत्पन्न नहीं होती।

हम उससे और उसके पति से बातचीत कर थानागुड़ी लौट आये। अब तक कोटवार सायतूराम बयानार से वापस आ गया था। सायतू बहुत ही परिश्रमी और ईमानदार है। साथ ही, सरल स्वभाव का भी।

हमने सायतू से बातचीत की। सायतू ने भी आठपहरिया की बातों को ही दुहराया था। कोटवार की हैसियत से गाँव में अमनचैन बनाए रखना, जन्म-मृत्यु का लेखा-जोखा रखना उसके प्रमुख कर्त्तव्य हैं। इसके साथ ही सरकारी मुलाजिमों के खाने-पीने का बन्दोबस्त भी करना पड़ता है। उसने यह भी बताया कि इन मुलाजिमों के खाने-पीने की व्यवस्था गाँव वालों से सारी (चंदा) वसूल कर की जाती है। बदले में रुपया-पैसा कुछ नहीं मिलता। उस पर तुर्रा यह कि व्यवस्था में थोड़ी सी भी खामी रह गयी तो वे लोग बिगड़ भी पड़ते हैं। शराब, सल्फी और मुर्गे का इंतजाम बहुत ही ज़रूरी होता है।

सायतू सन् छिहत्तर से कोटवारी कर रहे हैं। इसके पूर्व इनके पिता करते थे। हमारी बातचीत चल ही रही थी कि कुछ और लोग भी आ गये। कोटवार ने सभी लोगों से हमारा परिचय कराया। हमने गाँव के पटेल श्री मँगलू राम से चर्चा शुरु कर दी। मँगलू पटेल ने बताया, वे सन् इकसठ से, यानी जब से इस गाँव को वन विभाग ने बसाया है, इस गाँव के पटेल हैं। परिवर्तन की बात पूछने पर उन्होंने बताया कि कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ इन उन्नीस बरसों में। हाँ, दो-तीन वर्ष पहले खण्ड विकास कार्यालय की ओर से एक कुआँ अवश्य बनाया गया था। आज भी है .....किन्तु टूटा हुआ। बदबूदार पानी से भरा हुआ।

"कुएँ की बात निकलने पर मैंने उन्हें कुरेदा, अरे हाँ, कुएँ की बात पर से मैं एक बात पूछना चाहता हूँ। आप लोग मिल कर उसे बनवाते क्यों नहीं? सफाई क्यों नहीं करवाते उसकी?''

"कौन करेगा?''

"आप सब। गाँव वाले।''

"गाँव वाले.......!'' व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ मँगलू राम बोलते हैं, "भाई साहब! एक से कहो तो दूसरे पर टिकाता है। सभी अपने अपने में मस्त हैं। और फिर, अभी कुआँ हमारे सुपुर्द भी तो नहीं हुआ है।'' और बातों बातों में उन्होंने बताया कि इस कुएँ का ठेका बम्हनी गाँव के एक व्यक्ति रामदास पनका ने लिया था। रामदास ने झितरु और मँगतू से क्रमशः अस्सी और बाईस रुपये कुएँ के नाम पर ही उधार लिये थे। आज तक नहीं लौटाया है। कुएँ में काम पर लगे मजदूरों में से आठ व्यक्तियों को पाँच पाँच रुपये एवं दस दस किलो गेहूँ प्रति व्यक्ति के हिसाब से पच्चीस दिन की मजदूरी बता कर भुगतान किया है। शेष राशि विभाग -द्वारा पासिंग होने पर दी जाएगी, कहा गया है। इस प्रकरण की रिपोर्ट बी.डी.ओ. से की गयी है। इसकी जाँच की जा रही है।

"अच्छा जाने दीजिए। हाँ, एक बात बताइये। यहाँ आसपास स्कूल कहाँ है?”, विषय का रुख बदलते हुए हमने पूछा।

"बम्हनी में है। और भी दूसरे गाँवों में है। किन्तु सभी गाँव काफी दूरी पर हैं।''

"आपके गाँव के बच्चे कहाँ जाते हैं पढ़ने?''

"कहीं नहीं।''

"मतलब?''

"किसी भी गाँव में जाने के लिये बच्चों को नदी, नाले और भयावह जंगलों को पार करना पड़ता है। खौफ के मारे न तो बच्चे जा सकते हैं ओर न ही हम भेजना चाहते हैं।''

फिर अपने गाँव में पाठशाला खुलवाने की बात क्यों नहीं सोचते?''

"सोचते कैसे नहीं हैं जनाब! कितने ही दरखास दे चुके हैं, अब तक।''

"कितने दिन हुए दरख्वास्त दिए हुए?''

"दिन.....? सालों हो गये जनाब, सालों। आज उन्नीस बरस हो गये दरख्वास्त देते देते। किन्तु पता नहीं, ये दरख्वास्त कहाँ चले जाते हैं!''

"उन्नीस बरस.....!'' मैं आश्चर्य से पूछता हूँ, “...और आज तक कुछ भी नहीं हुआ?''

मँगतू बताते हैं, इस साल थोड़ी सी आशा बँधी है। एस.डी.ओ. (सिविल) और बी.डी.ओ. साहब से मुलाकात कर उन्हें भी दरख्वास्त दिये थे। आश्र्वासन मिला है। और फिलहाल पाठशाला और शिक्षक के आवास के लिये गाँव वालों की ओर से झोपड़ियों का निर्माण तय किया गया है। अगले सत्र से पाठशाला आरम्भ हो जाने की आशा है।''

"यह तो बहुत अच्छी बात है।'' मैंने कहा।

"हाँ, हमारे बच्चे भी पढ़-लिख कर ज्ञान पायेंगे, उन्नति करेंगे।''

"अच्छा, एक बात बताइये। आप लोग अपने बच्चों को पढ़ाने की ज़रूरत अब क्यों महसूस करते हैं? क्योंकि हमने तो कुछ वर्षों पहले शिक्षा विभाग के कर्मचारियों से यह सुना था कि पाठशाला खोल कर बैठे रहने पर भी एक भी आदिवासी बालक बालिका वहाँ झाँकते तक नहीं। माँ-बाप अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते। इसकी बजाय खेतों में या फिर मवेशी चराने के लिये जंगल भेजना ज्यादा पसंद करते हैं।''

"यह तो साहब, वक्त वक्त की बात है। हमारी अज्ञानता का फायदा उठा कर हमें बहुत लूटा गया है।''

"हाँ, बात तो आप सही कह रहे हैं।''

जनाब! हम चाहते हैं कि ये लूट आगे न होने पाए। हमारे अधिकार हमसे न छीने जाएँ। इसके लिये हमारा पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी है। इसीलिये हम अब पढ़ाना-लिखाना चाहते हैं अपने बच्चों को।''

देर आयद दुरुस्त आयद। निश्चित ही अब ग्राम्य अंचलों में रहने वाले भोलेभाले आदिवासी अपने शोषण को पहचान रहे हैं। और जान रहे हैं अपने अधिकारों को।

फिर हमने घोटुल के बारे में पूछा तो उत्तर दिया गया, घोटुल हमारी परम्परागत संस्था है। हमारी आवश्यकता है। हम यहाँ अपने भावी पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं।

निश्चित ही घोटुल बस्तर के मुरिया जनजाति की परम्परागत थाती है। अक्षुण्ण सांस्कृतिक धरोहर है। वेरियल एल्विन की किताब में वर्णित आमोद-प्रमोद का स्थल यह नहीं। हमें इसके विषय में अपनी पूर्वाग्रहयुक्त धारणाओं को बदलना होगा।

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7 टिप्पणियाँ

  1. Website is not working property. I had tried many times to comment on the post but failed. please check the technical difficulty.

    Nice article Vaishnav ji. Thanks

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  2. इस उत्कृष्ट प्रस्तुति पर टिप्पणी करने की मैं कल से ही कोशिश कर रही हूँ। कुछ असुविधा है।

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    हरिहर जी कितना दुखद है कि आज भी एसे गाँव जीवित हैं। हम कब जागेंगे और कब आगे बढेंगे। एसी जगहों पर विकास कभी हो पायेगा?

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  3. अनन्या से सहमत साहित्य शिल्पी को खोलने में पिछले कुछ दिनों से दिक्कत हो रही है। हम किसी भी सदी में पहुँच जायें कारसिंग जैसी जगहें हमें पीछे मुद कर सोचने को बाध्य कर ही देंगी। समाधानों के विषय में भी बात होनी चाहिये।

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  4. घोटुल, थानागुडी, अठपहरिया जैसे परम्परा के चिन्हों को रिपोर्ताज में भलीभांति बताया गया है। अच्छा रिपोर्ताज है।

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  5. जब बहुत सालों पहले के बस्तर को याद करता हूँ और आज के बस्तर को देखता हूँ तो लगता है जैसे उस समय का बस्तर अपने घने जंगलों से अपनी बात कहता था ..! जो बहुत कम लोग सुन पाते थे ? पर आज के बस्तर को आप जैसों के कारण पूरी दुनिया सुनती है ! धन्यवाद आपका ...इसी तरह आपकी आवाज़ सभी सुने और हमारे बस्तर को भी लगे कि उसकी आवाज़ सभी सुन रहें हैं ..! अच्छा लगता है न सभी को कि उसकी आवाज़ सभी सुने ..?

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