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मिमियाती ज़िन्दगी, दहाडते परिवेश [ग़ज़ल संग्रह से रचनायें -3] - लाला जगदलपुरी

लाला जगदलपुरी नें अपनी पुस्तक "बस्तर-लोक कला संस्कृति प्रसंग" में लिखा है - ‘धरोहर’ शब्द की अर्थवत्ता व्यापक होती है। प्रत्येक क्षेत्र में, प्रत्येक आयाम में धरोहरें उपलब्ध मिलती हैं। धरोहर के अंतर्गत प्रमुख रूप से लोकांचल में प्रचलित परिपाटी के तहत प्रस्तुत सांस्कृतिक-गतिविधियाँ तथा अनुकरणीय चरित्र और उनके कार्य आते हैं। किसी भी धरोहर पर उसके परिवार को, समाज को और राष्ट्र को गौरव होता है। हमारे व्यावहारिक जीवन के विभिन्न कालखंडों से धीरे धीरे अनेक धरोहरें लुप्त होती जा रही हैं, परंतु इतिहास उन्हें उनके मूल रूप में ही अपने पास सुरक्षित रखता आ रहा है।"

समझने पर बारीक लगती है यह बात। लाला जगदलपुरी का सम्पूर्ण लेखन और कार्य भी आज धरोहर हो गये हैं। यह लुप्त नहीं होने चाहिये। उनका कार्य वर्तमान को भी दिशा दे रहा है और हमारा ही दायित्व है कि उनकी एक एक पंक्ति को सहेजे तथा उसके निहितार्थ को प्रसारित करें।

इसी दिशा में साहित्य शिल्पी पर लाला जगदलपुरी पर केन्द्रित प्रति सोमवार प्रकाशित होने वाली श्रंखला में आज प्रस्तुत है उनके ग़ज़ल संग्रह "मिमियाती ज़िन्दगी दहाडते परिवेश" से तीन रचनायें -

मनुष्यता पहाड ही ढोती

भोर के हंस चुग गए मोती,
बैठ कर तमिस्त्रा कहीं रोती।

मौत बेवक्त भला क्यों आती?
जिन्दगी यदि जहर नहीं बोती।

अस्मिता चिंतन की हरने को,
चिंता रात भर नहीं सोती।

आदमी व्यक्त जब नहीं होता,
चेतना, चेतना नहीं होती।

वक्त बदले कि व्यवस्था बदले
मनुष्यता, पहाड ही ढोती।

पीडा आयी पीडा के मन

विकल करवटें बदल बदल कर
भोगा हमनें बहुत जागरण,
’गहराई’ चुप बैठे सुनती
’सतह’ सुनाते जीवन दर्शन।

देव दनुज के संघर्षों का
हमने यह निष्कर्ष निकाला,
’नीलकण्ठ’ बनते विष पायी
जब जब होता अमृत मंथन।

सफल साधना हुई भगीरथ
नयनों में गंगा लहराई,
सांठ गांठ में उलझ गये सुख,
पीडा आयी पीडा के मन।

ऐसे ऐसे सन्दर्भों से
जुड जुड गयी सर्जना अपनी,
हृदय कर रहा निन्दा जिनकी
मुँह करता है उनका कीर्तन।

गूँज रही है बार बार कुछ
ऐसी आवाज़ें मत पूछो;
नहीं सुनाई देता जिनमें
जीवन का कोई भी लक्षण।

रीते पात्र रह गये रीते

मचल उठे प्लास्टिक के पुतले,
माटी के सब घरे रह गये।
जब से परवश बनी पात्रता,
चमचों के आसरे रह गये।

करनी को निस्तेज कर दिया,
इतना चालबाज कथनी में;
श्रोता बन बैठा है चिंतन,
मुखरित मुख मसखरे रह गये।

आंगन की व्यापकता का,
ऐसा बटवारा किया वक्त नें;
आंगन अंतर्ध्यान हो गया,
और सिर्फ दायरे रह गये।

लूट लिया जीने की सारी,
सुविधाओं को सामर्थों नें;
सूख गयी खेती गुलाब की,
किंतु ‘कैक्टस’ हरे रह गये।

जाने क्या हो गया अचानक,
परिवर्तन के पाँव कट गये;
’रीते-पात्र’ रह गये रीते,
’भरे पात्र’ सब भरे रह गये।

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17 टिप्पणियाँ

  1. गूँज रही है बार बार कुछ
    ऐसी आवाज़ें मत पूछो;
    नहीं सुनाई देता जिनमें
    जीवन का कोई भी लक्षण।

    अतुलनीय पंक्तियाँ। हिन्दी भाषा में इतनी साफ ग़ज़लें मैने नहीं पढीं।

    जवाब देंहटाएं
  2. अस्मिता चिंतन की हरने को,
    चिंता रात भर नहीं सोती।


    वक्त बदले कि व्यवस्था बदले
    मनुष्यता, पहाड ही ढोती।


    देव दनुज के संघर्षों का
    हमने यह निष्कर्ष निकाला,
    ’नीलकण्ठ’ बनते विष पायी
    जब जब होता अमृत मंथन।

    ऐसे ऐसे सन्दर्भों से
    जुड जुड गयी सर्जना अपनी,
    हृदय कर रहा निन्दा जिनकी
    मुँह करता है उनका कीर्तन।

    करनी को निस्तेज कर दिया,
    इतना चालबाज कथनी में;
    श्रोता बन बैठा है चिंतन,
    मुखरित मुख मसखरे रह गये।

    लाला जगदलपुरी को अब तक नहीं पढ पाने का अफसोस है। हिन्दी की इतनी उन्नत ग़ज़लें कि हर शेर पर वाह वाह कर उठा हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  3. निस्तेज, सर्जना, मुखरित, निष्कर्ष, तमिस्त्रा आदि आदि इन शब्दों को ग़ज़ल में डालना और अत्यधिक गेयता और कोमलता से बात रखने का काम कोई महान शायर ही कर सकता है।

    जवाब देंहटाएं
  4. Deep, Thank you SAHITYASHILPI

    -Alok Kataria

    जवाब देंहटाएं
  5. लाला जगदलपुरी को पढना अपनी प्यास बढाने वाला है। साहित्य शिल्पी के प्रयास को धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  6. मौत बेवक्त भला क्यों आती?
    जिन्दगी यदि जहर नहीं बोती।

    बेहद गहन प्रस्तुति…………हर रचना बेजोड्…………पढवाने के लिये आभार्।

    जवाब देंहटाएं
  7. ..... उर्दू एवं संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्दों का अनूठा संयोग एक साथ वह गज़ल के क्राफ़्ट में नि:शब्द हूं .....

    लाला जगदलपुरी को पढ़ना ..... ऐसे ही है जैसे हम सब छोटे छोटे से बच्चे हों और अपने सिर पर किसी बुज़ुर्ग के आशीषरूप हाथ का स्पर्श अनुभव कर रहे हों

    .......छोट छोटे बच्चे और बाबा की पोटली से निकलती एक से बढ़ कर एक उत्सुकता और जिज्ञासा बढा़ने वाली रचनायें........
    आभार राजीव जी

    और कोटिश: प्रणाम लाला जी को

    जवाब देंहटाएं
  8. आदमी व्यक्त जब नहीं होता,
    चेतना, चेतना नहीं होती।

    अनुपम

    जवाब देंहटाएं
  9. nissandeh bahut hii stutya prayaas. laalaa jii kii rachnaaon ko antarjaal par prakaashit karane ke is paawan yagya mein main hameshaa aapke saath khadaa miluungaa. unakii rachnaaon par sakaaraatamk tippaniyaan dekh kar meraa maathaa garw se uunchaa ho gayaa hai. Kaaran we mere saahityik guruu rahe hain. bastar jaise pichhadaa kahe jaane waale anchal mein unkaa aawirbhaaw hii saahitya-sewaa ke liye huaa hai.

    जवाब देंहटाएं
  10. गूँज रही है बार बार कुछ
    ऐसी आवाज़ें मत पूछो;
    नहीं सुनाई देता जिनमें
    जीवन का कोई भी लक्षण।
    Kitne gahre raaz chupe hai is satya ki gahraaion mein..lagta hai kahkashaan mein hai aur bhi kahkashaan aur....

    जवाब देंहटाएं
  11. क्या कहूँ जितना पढ़ती जा रही हूँ
    उतनी ही और अधिक प्रभावित होती जा रही हूँ...
    हर पंक्ति अपने आप बोलती है...

    राजीव जी,
    आपका बहुत बहुत आभार.... इतनी समृद्ध साहित्यिक धरोहर से
    हमारा परिचय कराने के लियें..

    गीता पंडित .

    जवाब देंहटाएं
  12. लाला जगदलपुरी समकालीन साहित्य की अनमोल धरोहर हैं जिनका समग्र प्रकाशित करने का दायित्व छत्तीसगढ़ शासन को निभना चाहिए. सशक्त रचनाओं के चयन हेतु संपादकगण आभार के पात्र हैं.

    जवाब देंहटाएं
  13. राजीव जी बहुत -बहुत आभारी हूँ कि आप ने लाला जगदलपुरी से परिचय करवाया |पढ़ कर धन्य हो गई | हिन्दी में इतनी उत्तम ग़ज़ल | और पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ गई है |
    सुधा ओम ढींगरा

    जवाब देंहटाएं
  14. लाला जगदलपुरी जी के गज़ल संग्रह के अंश जितनी बार भी पढ़े एक सुखद अनुभूति हुई। उनकी संकेतात्मक शैली में लिखी रचनाओं मे निहित गूढ़ अर्थ समझ कर एक विशेष आनन्द आया और साहित्य के "शिवं " तत्व की अनुभूति हुई। आपका बहुत बहुत धन्यवाद कि आपने इतने उच्च कोटि के साहित्य से परिचित करवाया। अब इन्हें और जानने और पढ़ने की इच्छा है। हिन्दी में गज़ल लिखने में इनकी गज़लें मार्ग दर्शन कर सकती हैं।

    सादर,
    शशि पाधा

    जवाब देंहटाएं
  15. कभी-कभी ये होता है कि आप किसी की प्रशंसा करना चाहो और आपके पास शब्द न हों। मेरी स्थिति अभी वैसी हीं है। मैं लाला जी की तीनों रचनाओं के एक-एक शब्द को "क़ोट" करना चाहता हूँ .. एक-एक शब्द का उल्लेख करना चाहता हूँ अपनी इस टिप्पणी में... क्योंकि मेरे हिसाब से हरेक शब्द में "एक अनुभवी आदमी की सोच का व्यापक विस्तार" छुपा हुआ है। चाहे ग़ज़ल हो या कविता.. लाला जी पढने वाले को झकझोर देते हैं और यही एक सफ़ल रचयिता की पहचान होती है।

    मैं इन्हें ऐसे हीं पढता रहना चाहूँगा।

    धन्यवाद,
    विश्व दीपक

    जवाब देंहटाएं

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