
लाला जगदलपुरी पर बात करनी आवश्यक है। यह इस लिये नहीं कि वे अच्छे रचनाकार या कवि है, इस लिये भी नहीं कि उन्होंने 92 वर्ष की अपनी आयु में भी रचनाधर्मिता को जीवित रखा है अपितु इस लिये कि वे एक अंचल की पहचान हैं। साहित्य शिल्पी नें बस्तर के ही साहित्यकार विजय सिंह से बात की। विजय सिंह समकालीन कविता में प्रचलित नाम है तथा "सूत्र" लघुपत्रिका का संचालन करते हैं। लाला जगदलपुरी पर अपने संस्मरण सुनाते हुए उन्होंने कहा कि मैं आश्चर्य से भर जाता था कि कोई व्यक्ति एक पूरे अंचल और शहर की पहचान बन गया। मुझे आश्चर्य होता था कि कोई व्यक्ति जगदलपुरी भी हो सकता है? मैंने लाला जगदलपुरी के नाम की छाया में ही कविता कहानियाँ लिखना आरंभ किया। लाला जी के साथ जब मुझे पहली बार कविता पढने का अवसर मिला तो मैं संकोच से भरा हुआ था। लाला जी को जब मैने पहली बार सुना तो मंत्रमुग्ध हो गया। मैंने लाला जी से यह सीखा कि साहित्य से जुडना कितना सुखद अहसास होता है।
लाला जी से जुडा विजय सिंह जी का पूरा संस्मरण शीघ्र ही प्रस्तुत किया जायेगा। हर सोमवार प्रस्तुत होने वाली श्रंखला में आज आप पढें लाला जगदलपुरी की तीन रचनायें। [-संपादक, साहित्य शिल्पी]
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पीर हृदय की युवा हो गयी,
कोहरे में हर दिशा खो गयी।
ऐसी वायु चली मधुवंती,
संवेदनशीलता सो गयी।
चिथडों पर पैबंद टाँकते,
जिजीविषा सुईयां चुभो गयी।
शब्द ब्रम्ह की चाटुकारिता,
अर्थों की अर्थियाँ ढो गयी।
मान गये चुप्पी का लोहा,
मन को अपने में समो गयी।
गयी सुबह कुछ ऐसे लौटी,
सूरज की लुटिया डुबो गयी।
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धूप के दुख ने किया उसको नमन
दर्द नें भोगे नहीं जिस दिन नयन,
मिल गया उस दिन हृदय को गीत धन।
जब अंधेरा पी चुके सूरजमुखी,
तब दिखाई दी उन्हें पहली किरन।
नींद टूटी जिस सपन की शक्ति से,
चेतना के घर मिली उसको दुल्हन।
फूल जब चुभ गये, तो मन को लगा,
है बडी विश्वस्त कांटों की चुभन।
देखते ही बनी बिजली की चमक,
जब घटाओं से घिरा उसका गगन।
छाँह के अहसान से जो बच गया,
धूप के दुख नें किया उसको नमन।
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जीवन का संग्राम जंगली
इस धरती के राम जंगली,
इसके नमन-प्रणाम जंगली।
कुडई, कुंद, झुईं सम्मोहक,
वन-फूलों के नाम जंगली।
वन्याओं-सी वन छायाएं,
हलवाहे सा घाम जंगली
भरमाते चांदी के खरहे,
स्वर्ण मृगों के चाम जंगली।
यहाँ प्रभात ‘पुष्पधंवा’ सा,
मीनाक्षी सी शाम जंगली।
शकुंतला सी प्रीति घोटुली,
दुष्यंती आयाम जंगली।
दिशाहीन, अंधी आस्था के,
जीवन का संग्राम जंगली।
11 टिप्पणियाँ
इस धरती के राम जंगली,
जवाब देंहटाएंइसके नमन-प्रणाम जंगली।
कुडई, कुंद, झुईं सम्मोहक,
वन-फूलों के नाम जंगली।
तीनों ही ग़ज़लें गहरी और हमेशा याद रह जाने वाली है। अंतिम गज़ल शायर की महानता दर्शाती हैं जहाँ आंचलिकता से उनका जुडाव देखा जा सकता है।
विजय जी नें सही कहा कि साहित्य से जुडना कितना सुखद अहसास होता है। लाला जगदलपुरी को मैने सुना है और यह कह सकता हूँ कि उनसे जुडा होने वाला व्यक्ति कितने गर्व का अहसास करता है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी ग़ज़लें, बधाई
जवाब देंहटाएंI will appreciate Sahitya Shilpi for series on Lala Jagdalpuri.
जवाब देंहटाएंछाँह के अहसान से जो बच गया,
जवाब देंहटाएंधूप के दुख नें किया उसको नमन।
मुझे याद नहीं पड्ता कि आज की हिन्दी ग़ज़ल इस उँचाई तक आती भी है?
nice
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
शब्द ब्रम्ह की चाटुकारिता,
जवाब देंहटाएंअर्थों की अर्थियाँ ढो गयी।
निहितार्थ बहुत गहरे हैं।
अच्छी गज़ल...बधाई
जवाब देंहटाएंसलाम
जवाब देंहटाएंEXCELLENT
जवाब देंहटाएंशब्द ब्रम्ह की चाटुकारिता,
जवाब देंहटाएंअर्थों की अर्थियाँ ढो गयी।
यह शेर खूब रहा। लाला जी ने शब्द-प्रेम की खिंचाई करने के लिए शब्दों का हीं ताना-बाना बुन दिया है: "अर्थ" एवं "अर्थियाँ".... मुझे यह प्रयोग अच्छा लगा।
बाकी शेर भी कमाल के हैं। पहली और तीसरी ग़ज़ल आराम से समझ गया। दूसरी को समझने में अभी भी लगा हूँ।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
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