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वास्तविकता [लघुकथा] - संजय जनांगल

समीक्षक ने फलां पुस्तक की समीक्षा कुछ इस प्रकार की, ‘‘प्रस्तुत पुस्तक में त्रुटियाँ है। ये है, वो है, ऐसा नहीं लिखना चाहिए था, ऐसा लिखा होना चाहिए था।

समीक्षक ने क़िताब की वास्तविकता से रूबरू करवाने की भरपूर कोशिश की। लेकिन सम्पादक महोदय ने इस समीक्षा को यह कहकर निरस्त कर दिया कि युवा लेखक है। निरूत्साहित की जगह उत्साहित करना चाहिए।

कुछ समय बाद समीक्षक को पता चला कि फलां लेखक सम्पादक का भक्त था।

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7 टिप्पणियाँ

  1. साहित्य जगत की निर्भय हो कर पोल खोल दी है।

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  2. लेखन हमेश निर्भीक ही होना चाहिए... आभार

    जवाब देंहटाएं
  3. अच्छा कटाक्ष .... .. सम्पादक महोदय को प्रकाशन भी तो चलाना है. हा हा

    शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  4. boss, full support karata hun aapkee baat ko.

    Avaneesh tiwari
    Mumbai

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