
रूप के लोभी नयन ने रूप का सिंगार देखा,
रंग के अभिलाषियों ने रंग का भंडार देखा।
हम चमन के फूल से मिलते रहे बैरागियों से
और हमने आग देखी, फूल पर अंगार देखा।
हाँ कभी हम भी गये थे, पंख छूने तितलियों के,
मेघ सा मन कह रहा था साथ खेलें बिजलियों के।
इस जतन में चार दिन की जिंदगी हमने गंवायी,
और दुनिया में लगा यह झूठ का बाज़ार देखा।
रात का अंतिम पहर था भोर तक हम भी जगे थे,
चाँदनी रस में घुली थी, रूप के मेले सजे थे।
एक पल चेहरा दिखाकर छिप गया वह बादलों में,
आज कुछ बदला हुआ सा, चाँद का अभिसार देखा।
हम समर्पण कर चुके थे भूलकर अस्तित्व सारा,
और जिसक सामने अपना सभी व्यक्तित्व हारा।
गूढ़ अर्थ से भरी मुद्रा लिए वह देखती हैं,
आज हमने मूर्तियों का अजनबी व्यवहार देखा।
प्रेम के पथ पर दिखे उन हादसों से डर गए हम,
क्या बताएँ किस तरह अवसाद ही से भर गए हम।
राहगीरों का सभी कुछ लूटकर के जुल्म ढाती,
फूल-सी कोमल हथेली को लिए तलवार देखा।
रचनाकार परिचय:-
गौरव शुक्ला कुछ समय पूर्व तक कवि और पाठक दोनों ही के रूप में अंतर्जाल पर बहुत सक्रिय रहे हैं।
अपनी सुंदर और भावपूर्ण कविताओं, गीतों और गज़लों के लिये पहचाने जाने वाले गौरव को अपने कुछ व्यक्तिगत कारणों से अंतर्जाल से दूर रहना पड़ा। साहित्य शिल्पी के माध्यम से एक बार फिर आपकी रचनायें अंतर्जाल पर आ रही हैं।
4 टिप्पणियाँ
gourv jee apane badali samajik paristhion me vyakti ke charitra ka achha manovegyanik chitran kavita ke madhayam se kiya hai
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
बार बार कविता पढी पंक्तियाँ मन में उतर गयीं
जवाब देंहटाएंati sunder rachna
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.