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बापू के जूते ! [कविता] – डॉ. राजीव श्रीवास्तव

आज भी याद आते है ,
बापू के जूते,जो उन्होने
बड़े चाव से खरीदे थे ,
जब उन्हे बोनस मिला था !

समय बीतता गया और ,
जूते पुराने हो गये!
रोज सुबह पैरो मे जाते ,
तो शाम को ही निकल पाते थे।
इस बीच कई सड़के नाप लेते ,
कई मंज़िलो पे दस्तक देते ,
देर शाम को जब घर पहुँचते
तो धूल से सने रहते
थके से, हारे हुए से!
चुप- चाप बिना किसी शिकायत
एक कोने मे टिक जाते
सुबह के इंतेज़ार में।

समय बीतता गया
और लगने लगा
कि अब थक चुके है ,
तलवे घिस चुके थे ,
फीते के नाम पर चंद धागे ,
बगल से सिलाई उधड चुकी थी ,
हर कदम पे आगे से मुँह खोल
कर कहते—बस अब और नही।

कई बार बापू ने सोचा की
मोची से मरम्मत करवा ले ,
पर हर बार
गृहस्थी के पहिये तले
ये अरमान दब जाते,
कभी हमारी फीस, कभी कपड़े
और तो और हमारे नये जूते...
पर बापू के जूते
बेबस खड़े देखते रहते ,
अपनी बारी के इंतेज़ार में..

आख़िर ये एक
मध्यम वर्गीय परिवार
के मुखिया के जूते थे,
जिसे अपने बारे मे सोचने का
कोई अधिकार नही होता ।
उसके हिस्से तो बस आती है ,
बलिदान, त्याग और ढेर सारी
ज़िम्मेदारियाँ।

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6 टिप्पणियाँ

  1. आख़िर ये एक
    मध्यम वर्गीय परिवार
    के मुखिया के जूते थे,
    जिसे अपने बारे मे सोचने का
    कोई अधिकार नही होता ।
    उसके हिस्से तो बस आती है ,
    बलिदान, त्याग और ढेर सारी
    ज़िम्मेदारियाँ।

    खूब बहुत खूब

    जवाब देंहटाएं
  2. बडी ही संवेदनापूर्ण कविता है। पिता पर केन्द्रित इतनी अच्छी रचनायें कम ही पढने को मिलती हैं।

    जवाब देंहटाएं
  3. vishy achchha hai ,prishrm kiya hai anytha n len kthy ke str pr rchna meri km smjh ke karn mujhe kmjor prteet ho rhi hai jb ki aap kee sundr rchnayen pahle pdhne ko mil chuki hain
    kbhi jb batchit hogi to vichar vimrsh ho jayega

    जवाब देंहटाएं
  4. यथार्थपरक रचना. 'बापू' का प्रयोग चौंकता और आकर्षित करता है.

    जवाब देंहटाएं

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