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समानता [लघुकथा] - आलोक कुमार सातपुते

बेरोज़गार अर्जुन नौक़री की चाह लिये एकलव्य के कार्यालय पहुँचा।

काफ़ी देर इंतज़ार के बाद कार्यालय प्रमुख एकलव्य के चेम्बर से उसका बुलावा आया। अन्दर प्रवेश करते ही एकलव्य के तेज़ को देखकर अर्जुन दंग रह गया। उसका कटा हुआ अंगूठा भी वापस अपनी जगह पर था।

नौक़री पा जाने की आस में अर्जुन ने उसके समक्ष अपनी ख़राब आर्थिक परिस्थितियों का रोना, रोना शुरू कर दिया।

इस पर एकलव्य ने कहा-‘‘कल तक जो दशा मेरी थी, आज वही तुम्हारी है। जिस तरह कई वर्षों तक द्रोणवाद-अर्जुनवाद फैला हुआ था, उसी तरह आगामी कई वर्षों तक एकलव्यवाद फैला रहेगा। समानता इसी तरह से आती है।

एकलव्य के इस कथन पर अर्जुन के भीतर का अर्जुन सिर उठाने लगा, सो उसने कहा- ‘ये तो कोई बात नहीं हुई कि, चूँकि द्रोणवाद-अर्जुनवाद कई वर्षों तक फैला रहा, इसलिये एकलव्यवाद भी कई वर्षों तक फैला रहे। इसमें समानता वाली बात कहाँ है? ये तो कल तेरी बारी तो आज मेरी बारी वाली बात हुई।

अब एकलव्य के अन्दर के एकलव्य की बारी थी सो उसने कहा-‘‘गेट आऊट! गेट आऊट फॅ्राम हियर।’’

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9 टिप्पणियाँ

  1. एकलव्य और अर्जुन के माध्यम से कही गयी बात विचार योग्य है।

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  2. heheheh bahut damdaar hai badhu !
    good one

    Avaneesh

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  3. अवसर वदी जमाना है या यों कहे जिस्की लाथी उसकी भेन्स

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  4. ऐसा ही होता है अकसर .
    .बहुत अच्छे...

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  5. यथार्थपरक लघुकथा. इसे कोइ अन्य आदर्शपरक मोड़ देने से इसकी मारकता का ह्रास होता. धारदार कथ्य.

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. कटार सी मारक.... सार्थक लघु कथा

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