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ममता का कर्ज [लघुकथा] - देवी नागरानी

अमर अपने माता पिता का इकलौता बेटा था। जानकी और वासुदेव ने लाड़ प्यार के आँचल में ममता की छाँव तले उसे पालकर बड़ा किया , और उसकी हर आरज़ू को पूरा करने को तत्पर रहते थे। ज्यों ज्यों अमर प्राइमरी से मिडिल, फिर मिडिल से हाई स्कूल का फासला तय करता रहा, उसकी ख़ूबियाँ भी प्रेम का पानी पाकर निखरती रही। शक्ल सूरत से तो वह मनमोहक था पर बुद्धिमान भी बहुत साबित हुआ। जब वह कालेज पहुंचा तो माँ-बाप के सामने अमरिका जाकर पढ़ने की इच्छा प्रकट की, और साथ में वह वादे भी करता रहा कि वह पढ़ाई पूरी करते ही वापस आकर पिता के नक़्शे-क़दम पर चलकर, यहीं पर बसेरा डालकर उन दोनों की देखभाल भी करता रहेगा। इस प्रकार माता-पिता की ममता का क़र्ज़ भी उतारता रहेगा। उसकी मीठी बातें और सलीकेदार सोच सुनकर दोनों जानकी और वासुदेव बहुत खुश हुए और अपनी तमाम उम्र की बाक़ी जमा पूँजी लुटाकर उसे बाहर रवाना करने में मदद की। यूं वक्त आने पर अमर उनकी आँखों में नए सपने सजाकर उनकी आँखों से दूर चला गया।

पहले अमर जल्दी-जल्दी उन्हें ख़त लिखा करता था, उन्हें अपनी पढ़ाई के बारे में, अपने बारे में, माहौल के बारे में बताता, पर बहुत जल्द ही उन ख़तों की रफ़्तार ढीली पड़ गयी और वक्त ऐसा आया की वासुदेव के लिखे हुए ख़तों का जवाब आना भी बंद हो गया। यूं दो साल और बीत गए। निराशा आंखें उठाये हर सूनी डगर पर ख़त के इंतज़ार में पथराई आँखों से निहारा करती थी। और एक दिन डाकिया एक बड़ा सा लिफाफा उन्हें दे गया, जिसमें ख़त के साथ-साथ कुछ फोटो भी थे। जल्दी में वासुदेव ख़त पढ़ने लगा जिसको सुनते-सुनते उसकी पत्नि जानकी वहीं बेहोश हो गयी। ये अमर की शादी के फोटो थे जो उसने वहाँ की अंग्रेज़ लड़की के साथ कर ली थी और ख़त में लिखा था " पिताजी हम दोनों फक़त पांच दिन के लिए आपके पास आ रहे हैं और फिर घूमते हुए वापस लौटेंगे। एक ख़ास बात है अगर हमारे रहने का बंदोबस्त किसी होटल में हो जाये तो बेहतर होगा। पैसों की ज़रा भी चिंता न कीजियेगा।"

यह ख़बर थी जो पढ़ने के बाद वासुदेव का बदन गुस्से से थर-थर कांपने लगा, जिसे क़ाबू में रखते हुए वह अपनी पत्नी को होश में लाने की कोशिश करता रहा और वहीं ज़मीन पर बैठकर बच्चों की तरह रोने लगा। उम्मीदें और अरमान सब बिखर गए, सामने उनके ममता का शीशमहल टूटा और खँडहर हो गया। जिसको अपने लहू से सींचा, वह अपनाइयत को भूल कर गैर देश को अपना मान बैठा, वह गैरों से भी बदतर है। ऐसा बेटा प्यार तो छोड़ो, नफ़रत के क़ाबिल भी नहीं है, यही कुछ सोचते-सोचते आँख से आंसुओं का झरना बह निकला। दूसरे दिन सुबह तार के ज़रिये बेटे को जवाब में लिखा " तुम्हारा हाल पढ़ा। पढ़कर जो दिल को धक्का लगा है उसी को कम करने के लिए हम पति-पत्नी कल तीर्थों के लिए रवाना हो रहे हैं, कब लौटेंगे पता नहीं और अब हमें किसी का इंतज़ार भी नहीं। इसलिए तुम पराये मुल्क को अपना समझ कर नये रिशतों को निभाने की कोशिश करना। यहाँ अब तुम्हारा अपना कोई नहीं है."...वासुदेव।

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8 टिप्पणियाँ

  1. इसमें संदेह नहीं कि यह एक बहुत अच्छी कहानी है। प्रवासीय कहानियों में यह एक आम विषय है।

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  2. नागरानी जी की यह लघुकथा प्रेरक है।

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  3. प्रेरक लघुकथा , सारगर्भित और सुंदर रचना , शुभकामनायें

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  4. Aap sabhi paathakon aur lekhakon ka bahut aabhaar is Laghukatha par apni rai dene ke liye.

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