
पूर्वी हिन्दी के अंतर्गत अवधी बघेली और छत्तीसगढी के साथ साथ बस्तर भूमि की हल्बी बोली भी एक आर्य बोली है। पहले भी यह संपर्क बोली थी और आज भी यह बस्तर की संपर्क बोली के रूप में प्रतिष्ठित है। स्वतंत्र राज्य काल से ले कर प्रजातंत्र तक की इसकी यह यात्रा कथा अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुए है। बस्तर-हल्बी और मराठी में “उन” प्रत्यय समान अर्थ में प्रचलित मिलता है और बस्तर की हल्बी के संबंध कारक की “चो” विभक्ति मराठी में “चा” ध्वनित होती है। बस्तर स्थित हल्बी में प्रमुख रूप से संस्कृत, अरबी और फारसी भाषाओं के शब्द मिलते हैं। तत्सम और तद्भव रूपों में। हल्बी से उसकी कुछ उपबोलियाँ भी जुडी हुई हैं। वे हैं – भतरी, चंडारी, मिरगानी, कुंबुचवी और पंडई। इन में भतरी का महत्व सबसे अधिक है। भतरी और अन्य उप बोलियाँ उडीसा से प्राय: भाषिक और सांस्कृतिक तालमेल बिठाती हैं।
कोई भी बोली अगर केवल अपनी मौखिक अभिव्यक्ति (लोक साहित्य) तक ही सिमट कर रह जाती तो निश्चित रूप से उसका विकास रुक जाता। किसी भी बोली का लिखित साहित्य ही उस बोली को समृद्ध बनाता है, आगे बढाता है। यह भी उल्लेखनीय है कि लेखन का प्रकाशन से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध स्थापित है।
लेखन प्रकाशन की दृष्टि से बस्तर की हलबी-भतरी तथा अन्य बोलियाँ बहुत पिछडी हुई हैं। उनमें ठहराव आ गया है। केवल हरिहर वैष्णव ही इधर हल्बी भतरी लेखन प्रकाशन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय दिखाई देते हैं। किंतु छतीसगढी अपने दीर्घकालीन लेखन-प्रकाशन को ले कर अत्यंत समृद्ध है। उसके लेखन प्रकाशन की निरंतरता बनी हुई है।
- लाला जगदलपुरी
प्रस्तुत है लाला जगदलपुरी की हल्बी बोली में रचित कविता और उसका अनुवाद।
बिहान
दखा, पाहली बिहान
बेडा जायसे किसान
कुकडा बासली गुलाय
हाक देयसे उजेंर
आँधार हाजली गुलाय
तारा मन चो होली हान
दखा, पाहली बिहान
मछरी, केंचवाँ चाबुन जाय
कोकडा मछरी गीलुन खाय
ढोंडेया धरे मेंडकी के
सोनू दादा जाल पकाय
कोएँर-कोएंर होते खान
दखा, पाहाली बिहान
दसना छूटली पनाय
मिरली मारग मन के पाँय
लेकी गेली पानी घाट
पानी लहरी मारुन जाय
हाजुन गेली रात-मसान
दखा, पाहाली बिहान
[लाला जगदलपुरी की हलबी कविता "बिहान" का हिन्दी अनुवाद] –
देखो, सबेरा हो गया है
किसान, खेत जा रहा है
सब तरफ मुर्गे बोले
सब तरफ ढेकियाँ बजीं
उजेला पुकार रहा है
अंधेरा सब तरफ खो गया है
सितारों की हानि हुई है
देखो, सुबह हुई
मछली, केंचुआ चबा रही है
बगुला, मछली निगल रहा है
ढोंढिया-साँप, मेंडकी पकड रहा है
सोनू दादा जाल फेंक रहा है
चिडियों के चहकते ही
देखो, सबेरा हो गया
बिस्तर कब का छूट गया
रास्तों को पाँव मिल गये
लडकी पनघट चली गयी
पानी में लहरें उठ रही हैं
चुडैल रात नहीं रही
देखो, सुबह हो गयी
8 टिप्पणियाँ
Thanks Sahitya Shilpi. Nice content.
जवाब देंहटाएंजंगल की सुबह भी हो गयी और जंगल का कानून भी कह दिया। वाह लाला जगदलपुरी जी -
जवाब देंहटाएंमछली, केंचुआ चबा रही है
बगुला, मछली निगल रहा है
ढोंढिया-साँप, मेंडकी पकड रहा है
सोनू दादा जाल फेंक रहा है
चिडियों के चहकते ही
देखो, सबेरा हो गया
बिस्तर कब का छूट गया
रास्तों को पाँव मिल गये
लडकी पनघट चली गयी
पानी में लहरें उठ रही हैं
चुडैल रात नहीं रही
देखो, सुबह हो गयी
भाषा का गहरा ज्ञान और बहुत अच्छी जानकारी मिली है। मैं हलबी भतरी आदि बोलियों से परिचित तो नहीं हूँ लेकिन लाला जगदलपुरी की कविता बिहान हलबी बोली की समृद्धता को बताती है।
जवाब देंहटाएंभाषा से परिचित नहीं हूँ फिर भी
जवाब देंहटाएंकविता की मिठास अंदर तक पंहुच गयी..
आभार...
'बिहान' को पढ़कर पता चलता है कि लाला जगदलपुरी ने अपने अंचल की संस्कृति को अपनी नसों में दौड़ा रखा है। आपको एक बार पुन: धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंजैसे कोई चित्र खीच रही हो रचना। लाला जगदलपुरी को बढ कर यह जान रही हूँ कि कविता क्या है।
जवाब देंहटाएंआभार
जवाब देंहटाएंहल्बी को प्रतिष्टित करने के इस प्रयास के लिए साधुवाद.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.