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देश से ग़रीबी हट कर न हट सकेगी [ग़ज़ल] - देवी नागरानी

देश से ग़रीबी हट कर न हट सकेगी
मज़बूत उसकी जड़ है, हिल कर न वो हिलेगी

धनवान और भी कुछ धनवान हो रहा है
मुफ़लिस की ज़िंदगानी, ग़ुरबत में ही कटेगी

चारों तरफ़ से शोले नफ़रत के उठ रहे हैं
इस आग में यक़ीनन, इन्सानियत जलेगी

नारो का देश हैं ये, इक शोर- सा मचा है
फ़रियाद जो भी होगी, वो अनसुनी रहेगी

सावन का लेना देना 'देवी' नहीं हैं इससे
सहरा की प्यास हैं ये, बुझकर न बुझ सकेगी

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6 टिप्पणियाँ

  1. सावन का लेना देना 'देवी' नहीं हैं इससे
    सहरा की प्यास हैं ये, बुझकर न बुझ सकेगी


    बहुत खूब....देवी जी..सुंदर....

    आभार..

    जवाब देंहटाएं
  2. चारों तरफ़ से शोले नफ़रत के उठ रहे हैं
    इस आग में यक़ीनन, इन्सानियत जलेगी

    कटु यथार्थ को उघारती पंक्तियाँ हैं.........

    जवाब देंहटाएं
  3. चारों तरफ़ से शोले नफ़रत के उठ रहे हैं
    इस आग में यक़ीनन, इन्सानियत जलेगी
    kya khoob likha hai
    bahut bahut badhai
    sasder
    rachana

    जवाब देंहटाएं
  4. नारों का देश है ये इक शोर सा मचा है ,
    फरियाद जो भी होगी वो अनसुनी रहेगी ।
    वाह देवी जी बेहतरीन गजल के लिए बधाइ । शुरु में , ‘देश से गरीबी...’ की जगह ‘इस देश से गरीबी...’ होता तो सायद लय और वज्न में पूर्णता आ जाती ।

    जवाब देंहटाएं

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