
मज़बूत उसकी जड़ है, हिल कर न वो हिलेगी
धनवान और भी कुछ धनवान हो रहा है
मुफ़लिस की ज़िंदगानी, ग़ुरबत में ही कटेगी
चारों तरफ़ से शोले नफ़रत के उठ रहे हैं
इस आग में यक़ीनन, इन्सानियत जलेगी
नारो का देश हैं ये, इक शोर- सा मचा है
फ़रियाद जो भी होगी, वो अनसुनी रहेगी
सावन का लेना देना 'देवी' नहीं हैं इससे
सहरा की प्यास हैं ये, बुझकर न बुझ सकेगी
6 टिप्पणियाँ
अच्छी गज़ल...बधाई
जवाब देंहटाएंEXCELLENT.
जवाब देंहटाएंHOPE FOR THE BEST.
सावन का लेना देना 'देवी' नहीं हैं इससे
जवाब देंहटाएंसहरा की प्यास हैं ये, बुझकर न बुझ सकेगी
बहुत खूब....देवी जी..सुंदर....
आभार..
चारों तरफ़ से शोले नफ़रत के उठ रहे हैं
जवाब देंहटाएंइस आग में यक़ीनन, इन्सानियत जलेगी
कटु यथार्थ को उघारती पंक्तियाँ हैं.........
चारों तरफ़ से शोले नफ़रत के उठ रहे हैं
जवाब देंहटाएंइस आग में यक़ीनन, इन्सानियत जलेगी
kya khoob likha hai
bahut bahut badhai
sasder
rachana
नारों का देश है ये इक शोर सा मचा है ,
जवाब देंहटाएंफरियाद जो भी होगी वो अनसुनी रहेगी ।
वाह देवी जी बेहतरीन गजल के लिए बधाइ । शुरु में , ‘देश से गरीबी...’ की जगह ‘इस देश से गरीबी...’ होता तो सायद लय और वज्न में पूर्णता आ जाती ।
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