
मकान जगमगा रहे कितने
भूखों दिन बिता रहे कितने?
और पचनोल खा रहे कितने?
झूठ नें सत्य को पछाडा, तो
झूठ की कीर्ति गा रहे कितने?
कमी नहीं यहां सियारों की,
रोज मुर्गे फसा रहे कितने!
कहकहों की गिरफ्त में पड कर,
अश्रु भी खिलखिला रहे कितने!
कितने डूबे अंधियारे में,
मकान जगमगा रहे कितनें!
आंखों को बंधक में रख कर,
लोग चश्में लगा रहे कितने!
----------
सिंधु जो अँट गये खारे न रहे
नदी चढी कि किनारे न रहे,
अमन की चाह के मारे न रहे।
रात कैसे कटी बताएं क्या?
व्योम पर चांद सितारे न रहे।
हमें मिले भी सहारे ऎसे,
जो स्वयं अपने सहारे न रहे।
रात भर प्रात साधने वाले,
कहां गए? भिनसारे न रहे!
बात उनकी क्या करे बूँद कोई,
सिंधु जो अँट गये, खारे न रहे!
----------
जी रहे हम ऎसी ज़िन्दगी
फूल जो आंखों में गड गये,
रंगे-हाथों वे पकड गये।
उन्हें सोने से फुरसत कहां,
रतन जो सोने में जड गये।
जवानी खडी सामने, किंतु,
जवानी के लाले पड गये।
हुए भूकम्प, उठे तूफान,
दर्द जब आपस में लड गये।
जी रहे हम ऎसी जिंदगी,
कहीं सिर गए, कहीं धड गये।
7 टिप्पणियाँ
... prasanshaneey post !!
जवाब देंहटाएंलाला जगदलपुरी बस्तर की शान हैं
जवाब देंहटाएंअध्भुत कल्पनाशीलता से भरी ग़ज़लें हैं। सोमवार की प्रतीक्षा रहने लगी है।
जवाब देंहटाएंभूखों दिन बिता रहे कितने?
जवाब देंहटाएंऔर पचनोल खा रहे कितने?
कमाल का व्यंग्य। तीनों ही बेहतरेन ग़ज़लें हैं।
सच कहूँ ...लाला जगदलपुरी जी की लेखनी
जवाब देंहटाएंमन के भावों को ऐसे लिखती है जैसे
कोंई झरना स्वत: कंदराओं से निकलकर गीतों में,
कविताओं में, गज़लों में बह निकला हो....
.आभार...
अच्छी गज़ल..बधाई
जवाब देंहटाएंजी रहे हम ऎसी जिंदगी,
जवाब देंहटाएंकहीं सिर गए, कहीं धड गये।
इन गज़लों की प्रशंसा के लिये कोई उपमा नहीं है।
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.