
बडा दायरा सिमट गया है,
व्यक्ति स्वयं से लिपट गया है
छोटे बोल बडे मुँह सुनते,
मुखडों से मन उचट गया है।
कौन कहां संवेदन ले कर,
किसके किसके निकट गया है।
भाषा उसकी बदल गयी है,
पासा जिसका पलट गया है।
मैं की रक्षा करने को वह
देखो हमसे निबट गया है।
मरियम सी हर आशा के घर,
सुख सलीब का प्रकट गया है।
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पर्ण कुटी में विवेक ठहरा है
जिंदगी क्या बोले? कोलाहल बहरा है,
इसलिये अधरों पर सन्नाटा गहरा है।
जगह-जगह मुझको देवता नज़र आते,
मिला कहीं जो मनुज, आरती में उतरा है।
मनुष्यता, तमाशबीनों को बहलाती,
जिस पर शौकिया निगाहों का पहरा है।
तब-तब अंधियारा और अधिक गहराया,
जब जब आँसू का अवगुंठन उघरा है।
उसकी रक्षा का भार कौन सिर पर ले,
जिसकी पर्ण कुटी में विवेक ठहरा है।
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टेकरी के सिर कैलाश नहीं होता है।
जीनें का मुझे अहसास नहीं होता है,
जबकि विश्वास भी विश्वास नहीं होता है।
प्यार पर्याय रहे आया है जीवन का,
हृदय से बढ कर आकाश नहीं होता है।
दूर जब होती है मन से मन की दूरी,
दर्द का चेहरा उदास नहीं होता है।
अशांति की इमारतें उँची है, लेकिन
शांति का कहीं शिलान्यास नहीं होता है।
गुलाब अंत तक गुलाब रहे आयेगा,
गुलाब से बडा पलाश नहीं होता है।
चांद बदनाम हुआ पूनम का बोलो, क्यों?
कलंक का कभी प्रकाश कहीं होता है?
झूठ की कई-कई पोशाके होती हैं।
सांच का एक भी लिबास नहीं होता है।
आज मैं ‘नीलकंठ’ किस पत्थर को समझूं?
टेकरी के सिर कैलाश नहीं होता है।
5 टिप्पणियाँ
बहुत अच्छी ग़ज़लें, प्रस्तुति का बहुत बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंजिंदगी क्या बोले? कोलाहल बहरा है,
जवाब देंहटाएंइसलिये अधरों पर सन्नाटा गहरा है।
जगह-जगह मुझको देवता नज़र आते,
मिला कहीं जो मनुज, आरती में उतरा है।
Nice one
आज मैं ‘नीलकंठ’ किस पत्थर को समझूं?
जवाब देंहटाएंटेकरी के सिर कैलाश नहीं होता है।
तीनों ही बेहतरीन ग़ज़लें हैं।
गहरे गहरे शेर हैं। हमेशा की तरह अच्छी ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंजिंदगी क्या बोले? कोलाहल बहरा है,
इसलिये अधरों पर सन्नाटा गहरा है।
सारे शेर गहरा असर करने वाले हैं। एक बारे में तीन ग़ज़लें देखकर मन थोड़ा भटक-सा जाता है। इसलिए मैं साहित्य-शिल्पी से दरख्वास्त करूँगा कि एक बारे में एक हीं ग़ज़ल प्रस्तुत किया करें। फिर हरेक शेर को आत्मसात करने में आसानी होगी।
जवाब देंहटाएंवैसे तो मेरा हक़ नहीं बनता कि मैं लाला जी की ग़ज़ल से किसी एक या दो शेर को उद्धृत करूँ, फिर भी गुस्ताखी कर रहा हूँ :) ये रहे मेरे पसंद के दो शेर:
भाषा उसकी बदल गयी है,
पासा जिसका पलट गया है।
अशांति की इमारतें उँची है, लेकिन
शांति का कहीं शिलान्यास नहीं होता है।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.