
"चूँकि चित्त को एकाग्र करने के लिये एक प्रतीक चाहिए, सो मैं मूर्ति-पूजा का पक्षधर हूँ।" एक धर्म ने अन्य दो धर्मों से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के उद्देश्य से कहा।
"मैं मूर्तिपूजा के सख़्त खिलाफ़ हूँ, पर मैं मुर्दों की पूजा का पक्षधर हूँ, सो मैं श्रेष्ठ हूँ।" दूसरे धर्म ने कहा।
"मैं तो मूर्तिपूजा का कट्टर विरोधी हूँ, पर मैं एक स्थान-विशेष पर बैठकर एक चित्र विशेष की पूजा, उससे प्रार्थना व उसकी आराधना का पक्षधर हूँ, सो मैं तुम दोनों से श्रेष्ठ हूँ।" तीसरे धर्म ने कहा।
श्रेष्ठता सिद्ध करने की होड़ लिये वे तीनों एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के पास निर्णय के लिये पहुँचे, और उसके समक्ष अपना-अपना पक्ष रखा।
वह व्यक्ति यह सोचकर मुस्कुराया कि प्रतीक की पूजा तो तीनों ही में प्रचलित है, पर उसने बड़ी ही समझदारी से उत्तर दिया- जिस धर्म का पालन करने वाले जहाँ अधिक हैं, वहाँ पर वह धर्म श्रेष्ठ है। अर्थात् तुम लोगों की श्रेष्ठता तुम्हारे सिद्धांतों में नहीं, बल्कि बहुमत में है।
4 टिप्पणियाँ
बहुत गूढ अर्थ लिए एक बेहद अच्छी लघुकता प्रस्तुत करने के लिए आभार! बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंफ़ुरसत में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के साथ
सार्थक...लघुकथा के लियें आभार ..आलोक जी....
जवाब देंहटाएंअच्छी लघुकथा...बधाई
जवाब देंहटाएंअच्छी लघु कथा
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.