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नया साल [कविता] - देवी नागरानी

नया साल आकर चला जाता है
पुराना साल, जाते-जाते
पुनः नए-नए वादे कर जाता है
नये आवरण पहनता है
और
फिर नया साल बन जाता है!
अपने
ही नकाबपोश चहरे में
जाने
कितने सियाह राज़ छुपाकर
जाने से पहले
बारूदी फ़टाखों से
शरारों की दिवाली मनाता है
दिलेरों की छाती को छलनी करवाता है
शहादतों के नारे लगवाता है
उनकी बेवाओं को ता-उम्र रुलाता है
माँ बहनों की आशाओं के दीप
अपने नापाक इरादों से बुझवाता है
और फिर
वही एहसान फ़रामोशी का चलन
कुछ नया करने के लिए
नया
आवरण ओढ़कर
आ जाता है
पर
अब उसका स्वागत कौन करे?
कौन उसके सर पर खुशियों का "ताज" रखे
जिसे खँडहर बनाकर
उसने रक़ीबी हसरतें पूरी कर ली
पर
क्या हासिल हुआ?
हहाकार मचा, भूकंप आया
ज़लज़ला थरथराया
और फिर सब थम गया
सिर्फ
धरती का आंचल लाल हो गया
उन वीर सपूतों के लहू से
जिनकी
याद हर साल
फिर ताज़ा हो जाती है
जब पुराना साल जाता है
और नया साल आता है!!!

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6 टिप्पणियाँ

  1. सुंदर रचना...
    नव वर्ष की मंगलकामनाएं देवी नागरानी जी....

    जवाब देंहटाएं
  2. देवी जी नमस्कार, आपकी गज़लों की तरह आपकी कविता भी सोचने पर मजबूर कर देती हैं। बहुत बधाई! कैसी हैं आप?

    जवाब देंहटाएं
  3. Nav varsh ki shubhkamnaon ke saath aap sabhi ka aabhaar is prayaas par apne shabd jodne ke liye

    जवाब देंहटाएं

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